ललित निबंध संचयन

हिंदी के महत्वपूर्ण ललितनिबंधकारों की रचनाएँ

Saturday, September 02, 2006


1. रोजमर्रा

डॉ. शोभाकांत झा

“रोजमर्रा” रोज-रोज जने का कर्म-धर्म है। बिना किसी नागा-खाता के करते-धरते रहने की क्रिया है; जो जीते रहने के लिए अनिवार्य है। इसे हिंदी में दैनिकी और अंग्रेजी में ‘डेली रूटीन’ कहा जाता है। दैनिकी शब्द तो श्रुति प्रिय है, किन्तु रोजमर्रा कर्णकटु है – मरहास दुकलहा, लतेलू, भकुरा आदि नामों की तरह। यह अर्थप्रिय भी नहीं है – छात्रों के लिए पढञाई की तरह। ऐसा लगता है कि रोजृरोज मारने वाला कार्यव्यापार रोजमर्रा हो, जो सूर्य के साथ ही एक दिन की आयु लेकर डूब जाता हो – विराम लेता हो।

दरअसल शब्द हो या भाव, वस्तु हो या व्यक्ति उसे देखने का नजरिया महत्वपूर्ण होता है। उसे जीने का ढंग ज्यादा मायने रखता है। भिन्न-भिन्न नजरिया से देखने से एक ही वस्तु या व्यक्ति सुघद और दुखद दोनों लग सकता है – गोपी और कंस के लिए कृष्ण की तरह, संयोगी-वियोगी के लिए चन्द्रमा की भाँति।

रोजमर्रा भी रोज-रोज मरने-जीने का जरिया उस नजरिया के कारण से बन जाता है, जब हम उसे कोल्हू के बैल की तरह जीने लगते हैं; जिन्दगी को रोजमर्रे की मशीन बना लेदे हैं। खूँटे से बँध जाते हैं। तब हम तिल-तिल मरने लगते हैं, छीजने लगते हैं। रोज-रोज मरने-जीने लगते हैं। सुबह-शाम की सीमा में दौड़ते रहना नियति बन जाती है। लीक से हटकर चलने-करने की प्रवृत्ति मर जाती है।

सच तो यह है कि दैनिकी देहधारी की नियति है, धर्म है। इससे न योगी बच सकता है, न योगेश्वर कृष्ण। धर्म-क्रर्म तो करना ही चाहिए। इससे बचना पलायन है, परजीिता है, पाप है। कृष्ण-लीला का सफल मंचन है। उदाहरण है – संदेश है – अपनी-अपनी लीला के सफल मंचन के लिए, लीला का रस लेते हुए जीवन जीने के लिए। लीक से हटकर चलकर कभी-कभी सुख-दुख का जायका लेना चाहिए। दैनिकी सीमा से बाहर निकलकर खुले आकाश का आनन्द लेना जीवन का आस्वाद बढ़ाना है।

बहुत से अदमी शक्ल-सूरत से आदमी जरूर होते हैं, किंतु अपनी आदत और रोजमर्रे के ऐसे बिन बिके गुलाम होते हैं कि आदमियत को उनके आदमी होने पर शक होने लगता है। न वे सोनहा बिहान को आँखों में भर पाते न परी-सी शाम को। न रिमझिम में उन्हें भिंगा पाती हैं न बहारें उमगा पाती हैं। दिन-प्रदिदिन के ढर्रे पर ढला-बाँधा जीवन ऐसा बैल बन जाता है कि लाखों के सावन व्यर्थ भेंट चढ़ जाते हैं। शिशिर-वसंत यों ही बीत जाते हैं। न उन्हें छू पाते हैं, न गुदगुदा पाते हैं।

ऐसी ही तबियत के एक बेचारे मजबूरी के मारे एक बरात में शामिल हुए। रोजमर्रा के बैल। आठ बजे उठने वाले – रूसज को बाँस भर ऊपर उठाकर। बरात के हो-हल्ला में बेचारे को नींद नहीं आयी। सो सुबह उठ गए। मेरे आग्रहग पर प्रातः भ्रमण पर निकल पड़े। उस दिन सूरज निकलने वाला था। प्राची का गाल लाल हो उठा था। अधर पर सुनहरी मुस्कान आ-आकर तर कर रही थी। डाली पर कोयल के मधुबोल रस घोल रहे थे। महुए और आम के बौर से बयार महमहा रही थी, परन्तु बयार और बहार की मनुहार से बेखबर संवेदनाशुून्य साथ के सज्जन बोले – “चलिए झा जी ! नहाना-धोना है। पिछ़ड़ जायेंगे। बरातियों के भीड़-भाड़ में फँस जायेंगे। ई काकरंगे कोयलका बोल सुन के ? समय पर चाय नहीं मिलीतो सिर दर्द न हो जायेगा। मेरा तो दो दिन का धंधा ही चौपट हो गया।” उनकी बात को अनसुना कर मैंने उनसे उनसे कहा – “भैया भरोसेलालजी ? जरा सुहानी सुबह का आनन्द तो लीजिए। कोयल के अमोल बोल से आज श्रवण और मन को नहला लीजिए। नहाना धोना तो होगा ही।”

वे बोले, “अरे भाई साहब ! यह सुबह क्या आज ही हो रही है ? यह तो रोज ही होती है। यह साली कोयलतो रोज पड़ोसी के आम पेड़ पर सुबह-सुबह चीखकर नींद हरामकरती रहती है। और एक आप हैं कि...”

अपनी डूबी और उन की ऊबी तबियत को सम्हालते हुए मैं जनवासे की ओर चल पड़, पर मन सोचने लगा कि भाई भरोसे लालजी रोजमर्रा के मारे हुए लोग हैं। वह लक्ष्मी के लिए ललाते हुए लोगों तो दौड़ाता ही है, लक्ष्मी के लाड़ले को भी हँफाता है। इस दौड़ने-हाँफने के क्रम में आदमी ईश्वर को तो भूल ही जाता है, अपने तक को भूल जाता है। ह भूल जाता है कि वह मनुष्य है। जगत का बेहतरीन जीव। मनुष्य सभी इन्द्रियों से सुख ले सकता है – पशु-पक्षई नहीं। धन और धाम साधन हैं, साध्य नहीं। जीवन वरदान है। इस वरदान काउचित उपभोग करें। चारों ओर फैले सृष्टि के सौंदर्य का आस्वाद लें। हँसें, गायें, रोयें, नाचें, मगन होने का क्षण ढूँढें। रोज-रोज के उबाऊ काम से कुछ समय नीकालकर हँस-हँसकर निढाल होना सीखें। बतरस का आनन्द घर में लें, बाहर में लें। घरवाली से लें, घर वालों से लें। घरवाली को कीमती साड़ी लाकर दे देने में उसे उतनी प्रसन्नता नहीं मिलती जितना उसके रुप पहनावे का कभी-कभार मौका निकाकर प्रशंसा कर देने में होती है।

कुछ लोग अपने आज का आरंभ सुबह सकारे अवधेश के द्वारे जाकरत करते हैं। मंदिर में राजित नाजीवलोचन को नमनकर निहारकर निहाल होते हैं – अवध निवासी की तरह, तुलसी कर तरह –

अवधेस के द्वारे सकारें गई सुत गोद कै भषति लै निकसे
अवलोकि हौं सोच विमोचन को ठगि-सी रही, जे न उगेधिकसे।।
तुलसी मनरंजन रंजित अंजन नैवन सुखंजन-जातक से
सजनी ससि मैं समसील उभय, नवनीता सरोरुउ से निकसे।।

कुछ लोग प्रभाती भजन गाकर या आकाशवीणी से सुनकर प्रातः स्मरण से दिन का प्रराम्भ करते हैं। दैनिकी की बोहनी करते हैं। कुछ लोग उठते ही चिड़चिड़ाहट से, डाँट-डपट से, चिंता-चेतावनी से दिवसमधु का रंग बदरंग करते हुए। शुरुआत तो घात करेगी ही। तनाव बढ़ायेगी। हँसी छीनेगी। दिनभर के लिए मुँह का स्वाद बिगाड़ देगी – करुआ-करुआ।

कुछ लोग भोर सूरज निकलने के पहले से उसके स्वागत के लिए तैयार बैठे होते हैं। चिड़ियों की चोंच से फूटते संगीत को, पर्वतों की कोख से झरते झरनों और बहती नदियों के कल-कल, छुल-छुल राग से सतरंगी किरणों से स्फूर्ति लेकर नई उमंग के साथ दिनारंभ करते हैं। आशा-उमंग, नव-नव सपनों और सोच से किया गया आरंभ रोजमर्रा को बोझ याऊब का पर्याय नहीं बनने देता। व्यक्ति को मशीन बननेनहीं देता। मन को मरघट नहीं बनने देता है।

रोज-ब-रोज काम-धाम से, रहन-सहन से, सोच-समझ से मुक्ति दिलाने के लिए धार्मिक-सामाजिक उत्सव-त्यौहार आयोजित होते हैं। दीपपर्व पर छोटे-बड़े - सभी दीप जला कर उजाला का आव्हान करते हैं। होली के रंग में तो बूढ़े भई ऐसे रम जाते हैं कि देवर-से लगने लगते हैं – “भर भागुन बुढ़वा देवर लागे”। रोज-रोज की आपा-धापी द्वन्द्व , त्रास-कुंठा से विकुंठ बनाने के लिए ही आते हैं, ये त्यौहार , फिर भी कोई अभागा अपनी दैनंदिनी का गुलाम बनकर विरस-बेचैन बना रहे तो मौसम क्या करे ?

सप्ताह के अंत को – (वीक इन्ड) जश्न की तरह मनाने की प्रथा पाश्चात्य संस्कृति में प्रचलित है। रोज-रोज के भागमभाग से मुक्ति पाने के लिए प्रकृति की गोद में या इधर-उधर मोद पाने लोग दौड़ पड़ते हैं। सप्ताह भर में छीजे-बीते बल, उत्साह, ऊर्जा को वापस पाने के लिए – लोग रोजर्रा से दूर चले जाते हैं। जीने का जायका लेने यहाँ भी यह संस्कृति पनप रही है – कलमी पौधे की तरह, क्योंकि पाश्चात्य जीवनशैली – सोच यहाँ पैर जमानेलगी है। संयुक्त परिवार प्रायः टूट चुके हैं। अकेलेपन के कैदी लोग बनते जा रहे हैं। संयुक्त परिवार जब था तब किसी का विवाह, किसी का उपनयन, मुंडन, जन्मोत्सव आदि कुछ न कुछ साल भर आयोजित होते रहते थे। मेहमानों का आना-जाना लगा रहता था। जीवन के नियमित कर्म आदमी को ऊबा नहीं पाते थे। अब तो सब बदलगया है।

बदलाव को रोका नहीं जा सकता। सभी वस्तु-व्यक्ति प्रतिक्षण बदलते रहते हैं। बेहतर है बदलते समय के साथ हम सब अपनी जीवनशैली भी बदलें और रोजमर्रा को अपने ऊपर बावी न होने दें। उसके दबाव में आकर जीवन के रस को सूखने न दें। मर-मर के जीने से अच्छा है ललक उमगकर जीना। इसके लिए सपने बुनें। कभी-कबार अपनी जीवनशैली-सोच में बदलाव लाकर जायका बदलकर। शम्भु को सदा समाधि में डूबे रहने की आदत है। इस ादत से ऊबकर गौरी ने उनके और अपने जीवन को सरस बनाने के लिए कदाचित यह तरकीब सोची होगी। उसने पति परमेश्वर से निवेदन किया कि हे शिव ! आप नटवेष धारण कर डमरू बजाते हुए नाचें। मुझे आपका यह नृत्य देखकर बड़ा आनन्द आता है। शिव तो अदना भक्त की भी प्रार्थना स्वीकार कर लेते हैं, मन की कर देते हैं, फिर पार्वती के निवेदन को कैसे टालते ? वैसे भी राम की तरह वे मर्यादी की डोर से बँधे नहीं रहते। नटराजज यदाकदा नाचदिखाते ही रहते हैं, अतः वे गौरी की यह प्रार्थना सुनी और उसका मान रखा –

आज नाथ एक ब्रत मोहि सुख लागत है।
तोहें सिव धरि नटवेष कि डमरू बजावह हे।।
राखल गौरै का मान चारू बचाओल हे।।

अब आप ही सोचिये कि जब महादेव समाधि छोड़कर गौरी का मान-मन रखने के लिए नाच सकते हैं तो हम नरदेव अपनों का मन रखने के लिए नहीं नाच सकते ? मायाका नाच तो नाचते ही हैं, क्या मनोविनोद के लिए, एकरसता से निजात और ऊर्जा पाने के लिए नीहं नाच सकते ? अपने और अपनों के लिए दैनिकी को दरकिनार कर नाचना तबियत तरोताजा रखने के लिए जरूरी है। भगवान की लीलाएँ बहुत सारे आशय के संग-संग इस जरूरी की भी अभिव्यक्ति है। जीवन को जंजाल की समझ से जीने के बजाय लीले के भाव से जीना चाहिए। लीले के भीतर सुख-दुख, लाभ-हानि, अच्छे-बुरे सारे भाव समाहित हैं। संसार में कोईऐसानहीं हुआ जिसे सारी मनचाही मुरादें मिल गई हों – राम को भी नहीं, फिर काम के गुलाम आदमी को कैसेसब कुछ मिल सकते हैं। अतृप्ति को बढ़ाना और अतृप्त बने रहना काम की नियति है –

बुझैन काम अगिन करूँ तुलसी विषय भोग बहु घीतें।।

बेहतर है जीवन के सब कुछ को स्वीकार करते हुए हम अपने दैनिक कर्म-धर्म में सरसता ताजगी लाने के लिए प्रार्थना से अपने प्रभात की शुरूआत करें और भजन से दिनका समापन। रात्रि भोजन के पश्चात चिरंजीव संदीप के संग भजन में हम बैठ जाते हैं। घर के छोटे-बड़े सब शामिल होकर कीर्तन करते हुए दैनिकी को विराम देतेहैं – मधुमय मन और पावन नाम संकीर्तन से। कितना क्या पुण्य मिलता होगा, उसेपरमात्मा ही जाने, परन्तु प्रेम, प्रसन्नता, तनावमुक्ति, मुस्कान आदि की सद्य प्राप्ति से कौन रोक सकता है। ऐसा अनुभव आप भी करके देखिये न ! दिन भर में एक बार भी हँस-मुस्कराकर देखिये न ! रोजमर्रा मीठा लगने लगेगा।

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प्रस्तुतिः जयप्रकाश मानस (सृजनगाथा)

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