ललित निबंध संचयन

हिंदी के महत्वपूर्ण ललितनिबंधकारों की रचनाएँ

Saturday, September 16, 2006

17. ललित निबंध का स्थापत्य



ललित निबंध यह अभिधा या विधा समीक्षकों के बीच विवाद का विषय रहा हा – व्यंग्य विधा की तरह। बहरबाल इस विवादक से बचते हुए ललित निबंधों के बीच से उभरे मूल्यों और उनकी बनावट-बुनावट के संबंध में एक संवाद स्थापित कनरे का यह एक विनम्र प्रयास है। पहले भाषा बनती है। उसका बहुशः प्रयोग होता है। बाद में उसका व्याकरण बनता है। उसका मानक रूप बनता है। ठीक इसी तरह पहले रचनाएँ जन्म लेदी हैं, उनकी प्रवृत्तियों व शैली-शिल्पों को देखकर ही उनका स्थापत्य या शास्त्र बनता है, जो हमेशा विकासशील रहता है – सभ्यता संस्कृति की तरह। ललित निबंध को इसी परिप्रेक्ष्य में तरह-तरह से परिभाषित करने का प्रयास किया गया – अन्य विधाओं के सदृश। परिभाषाएँ कम पड़ती गईं तो ऐसा है, वैसा नहीं, नेति नेति कहकर छोड़ दिया जाता है – ब्रह्म की तरह।

व्यक्ति व्यंजक निबंध, रम्य निबंध, आत्मव्यंजक निबंध, ललित निबंध, पर्सनल एस्से, अदि अदि नामों से प्रचलित यह साहितय रूप अपने स्वरूप का संकेत दे देता है। लल् धातु से क्त प्रत्य और इट् आगम से बना ललित शब्द इस विधा का नाम है, मूल्य और विधान भी, जैसे आदरणीय क्षेमेन्द्र ने औचित्य को स्थिर काव्य का जीवन कहा है – औचित्यं स्थिर काव्यस्य जीवन, वैसे ही लालित्य को इस विधा का जीवन कहा जा सकता है – लालित्यं ललित निबंधस्य जीवनम् (इति से मतिः) ऐसा मेरा मानना है। इस विधा के पुरोधा आदरणीय हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ललित शब्द की बड़ी व्यापक व्याख्या की है। मतलब य कि इन रचनाओं के भीतर चाहे संस्कृति गान हो, लोक गाथा हो, भावना-कल्पना की उड़ान हो, विचार-चिंतन हो, आत्मकथा हो, बीती व्यथा हो, यथार्थ हो, व्यंग्य – सब कुछ ल्लित्य से लिपटे होते हैं, मधुमिश्रित होते हैं।

कोश के अनुसार – “अनाचार्योपदिष्टं स्याल्ललितम्”, अर्थात जो आचार्यों या उनके शास्त्रों से उपदिष्ट न हो, हर प्रकार की जकड़बंदी से मुक्त हो, ऐसी बनावट और बुनावट वाली रचना या कला ललित है। साहित्य दर्पण के अनुसार जिस रचना के अंग-विन्यास में सुकुमारता हो, वह ललित है – “सुकुमारतयाङगानाम विन्यासो ललितं भवेत्।” इस परिभाषा का प्रयोग देखना हो तो आदरणीय हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबंध ‘नाखून क्यों बढ़ते हैं’, ‘अशोक के फूल’ तथा अन्य प्रतिष्ठित निबंधकारों की रचनाएँ पढ़ सकते हैं। नाखून जैसी नाचीज़ को भी चीज़ बना देना, पाठ्य बना देना, अशोक के फूल जैसे निर्गन्ध फूलों को भी स्मृति गंध का विषय बना देना इस लालित्य का प्रताप है। समस्त साहित्य लालित्य या रमणीयता का ही प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप है। “रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दः काव्यम्” यह काव्य लक्षण इसी तथ्य का संकेत है।
ललित निबंध विधा अविचारित रमणीय का रूप है, इसलिए वह रम्य निबंध भी कहा जाता है। अविचारित रमणीयता का आशय रहाँ यह कतई नहीं है कि इसमें विचार को अनर्गल समझा जाता है। तर्क और यथार्थ से यहाँ परहेज किया जाता है। यहाँ यथार्थ से पलायन नहीं है। रम्य पूर में सब स्वीकार है। डॉ. परमानन्द श्रीवास्तव, परसाई जीने के ललित निबंधों की चर्चा करते हुए ठीक ही कहा है कि “परसाई के गद्य की पठनीयता इसी वृहत्तर लालित्य की धारणा से प्रभावित है जिसमें व्यंग्य-विनोद, क्रोध, तनाव सबके लिए जगह है। परसाई के ललित निबंधों में व्यक्ति और आत्म का जो स्पर्श है, वह निरंतर गहरी सामाजिकता में रचा-बसा है।” – ललित निबंध; सं. अष्टभुजा शुक्ल, पृष्ठ 25
जाहिर है अविचारित रमणीय का आशय अनर्गल या निरर्थक रमणीयता से नहीं है। “बुध विश्राम सकलजनरंजनि” रमणीयता ही काम्य है। इस काम्य उद्देश्य को अनदेखा कर अथवा समझने की शिद्दत न उठाकर कुछ समीक्षक इसके स्थापत्य पर ‘नास्टेल्जिया’ या उन्मानद का पंक प्रक्षेप करते पाये जाते हैं। अतीत जीविता का आरोप लगाया जाता है। स्मृति का प्रलाप इसे मानने की भ्राँति पाली जाती है। मानने और पालने की अपनी-अपनी रुचि है, दृष्टि है, कोई क्या कर सकता है। ललित निबंध की प्रासंगिकता पर ऊँगली उठाते हुए श्री राजेन्द्र यादव का कहना है कि “हिन्दी में ललित निबंध की मूल चेतना नास्टेल्जिया है।... छूटे हुए अतीत को हाय हाय भाव से याद करना, चूँकि यहाँ रचनाकार अतीत में स्थित होता है, इसलिए वर्तमान को भी रुमानीया धिक्कार भाव से देखता है।”
– ललित निबंध; सं. अष्टभुजा शुक्ल, पृष्ठ 31

यथार्थवादियों का ऐसा अभियोग वस्तुतः भ्राँति मात्र है या नकार की प्रवृत्ति की सूचना। ललित निबंधों का सच इसके विपरीत साक्ष्य देता है। वस्तुतः यह विधा न वर्तमान या यथार्थ से पलायन को उकसाती है न अतीत के प्रति अतिरिक्त मोह को प्रश्रय देती है। अतिरिक्त मोह किसी भी विधा के लिएदोष है – अनोचित्य दोष की तरह। यथार्थ से साक्षात्कार सभी रचनाकार अपने-अपने संवेदन तंत्र से करते हैं और उसे अपने-अपने ढंग से व्यक्त करते हैं। प्रोफेसर रमेशचन्द्र शाह का मन्तव्य है कि “यथार्थ आत्मतः आविष्कृत करते चलने की प्रक्रिया साहित्य में गहरी मौलिकता को जन्म देती है। निबंध की समस्या आत्म को आत्म से और आत्मसे ही परात्म और अनात्म को पकड़ने की है।”
– शैतान के बहाने, पृष्ठ 4 भूमिका

बात साफ है, न अतीतजीवी होना गुण है न निखालिस वर्तमान में जीना। अपने समय से साक्षात्कार करने वाले प्रभाष जोशी ने कहा है “यथार्थवादी वर्तमानवादी होते हैं। वर्तमान में सिर्फ पशु ही जीते हैं, क्योंकि उसका कोई अतीत नहीं होता।... आदमी आदमी हुआ तो इसलिए कि उसके स्मृति मिली और वह भविष्य के सपने देखने लगा। वर्तमान यथार्थ हो सकता है, परन्तु यथार्थ सत्य नहीं हो सकता। सत्य को यथार्थ केआर-पार देखकर ही आप पा सकते हैं।” – जनसत्ता में छपे लेख से

दरअसल अतीत से कटे लोग कटी पतंग की तरह होते हैं। छने हुए ्तीत या परम्परा का स्मरण या गान गौरव गान है। भूमि वंदना का विधान है। संस्कृति का अभइनंदन है। इसी गान के द्वारा क्या भारतेन्दु और मैथिलीशरण गुप्त ने सुप्त भारतीयता को जगाने का प्रयास अतीत गान द्वारा नहीं किया था। क्या गांधी, आज़ाद, भगत सिंह, राणाप्रताप,शिवाजी जैसों की याद अतीत स्मरण नहीं है ? क्यायह स्मरण राष्ट्रीयता-जागरण काविधान-सा नहीं है ? हमारी परम्परा ‘स्मृति’ को देवी के रूप में स्मरण करती है,जो सभी प्राणियों के भीतर व्यक्त-अव्यक्त रूप से विद्यमान है – कदाचित इसलिए नमन करती है। यह देवी हमें वह ताकत देती है। क्रूर वर्तमान की मार सहने की शक्ति देती है। टूटने से बचाती है। भारतीयसोच के बारे में एग्स विल्सन ने ठीक ही कहा है कि “भारत एक भौगेलिक वास्तविकता से कहीं अधिक परम्परा तथा एक बौद्धिक आध्यात्मिक ढाँचा है।” ललित निबंध भौतिक वास्तविकता का यथोचित आदर करता है, पर अपनी शर्त पर। वह भौगोलिक या भौतिक वास्तविकता से अधिक भारत की आत्मा जिन परम्पराओं, आध्यात्मिकता और संस्कृति में निवास करती है उनकी आराधना करता है। एक घड़ी-आधी घड़ी की नास्टेल्जिया या अतीत की आह-ओह भाव से भरा गान यदि जीवन को, नहला जाये तो क्या बुरा है ? प्रसाद जी ने तो मधुआ के हवाले से कह ही दिया है कि ‘मौज-मस्ती की एक घड़ी भी ज्यादा सार्थक होती है एक लम्बी निरर्थक जिंदगी से।’ क्या यथार्थावादी भीतर से रुमानी तबियत के नहीं होते ? फिर रुमान की वास्तविकता से हाय-तौबा क्यों। उन्हें फ्रायड के पास जाकर सच से पिरचित होना चाहिए। फिर क्या यथार्थ बोध केवल करुआ, कषैला, खट्टा, तीता का ही नाम है, उनमें मधु भाव शामिल नहीं ? जीवन का यथार्थ सब का मिश्रण है – मौसम की तरह, आम की खटमिट्ठी की तरह, पनहा (प्रपाषक रस) की तरह। राम और श्याम की लीलाओं में मारण, मोहन, धारण-निवारण – सब कुछ साझा है।

किसी एक लेखक या उसकी या और की कुछेक रचनाओं को पढ़कर किसी विधा के प्रति धारणा बना लेना भ्राँति को आमंत्रित करना है। प्रोफेसर रमेश चन्द्र शाह जैसे स्थापित निबंधकार और समर्थ समीक्षक जब मुझ जैसे नवसिखुये निबंध लेखक की पहली कृति पर ऐसा अभिमत प्रकट करते हैं तो मेरे भीतर का निबंधकार आश्वस्ति से तृप्त होता ही है, ललित निबंध का स्थापत्य भी रेखांकित हो जाता है। बड़ी विनम्रता और संकोच के साथ आप सब की कृति ‘स्मृति गंध’ पर की डॉ. शाह की टिप्पणी मैं प्रस्तुत करना चाहता हूँ – इस क्षमायाचना के साथ कि आप इसे आत्मप्रशंसा न समझेंगे –

निबंध – विशेषकर वह निबंध जो ‘पर्सनल एस्से’ के नाम से जाना जाता रहा – एक विलक्षण विधा है और हिन्दी खड़ी बोली ने उसे आरंभ से ही बड़ी ललक और सहज सांस्कृतिक आत्मविश्वास केसाथ अपनाया, न केवल अपनाया, बल्कि उसे एक विशिष्ठ भारतीय रंग और स्वर में भी ढाला। यहाँ उसने ललित निबंध के रूप में अपनी अलग ही पहचान स्थापित की।

शोभाकांत झा को यदि यह विधा रास आई है तो इसका कारण यही है कि उनके स्वभाव तथा संस्कार में वे आधारभूत अर्हताएँ विद्यमान हैं, जिनके बिना कोई भी लेखक इसविधा में प्रवेश करने को प्रेरित नहीं हो सकता। इन अर्हताओं में जहाँ एक ओर मिथिला की रसमयी आँचलिकता से अभिषिक्त उनकी रसात्मक संवेदना की सुस्पष्ट भूमिका कार्यरत देखी जा सकती है, वहीं भारत के हृदय की कुंजी स्वरुप हिन्दी और उसकेसाहित्य के अखिल भारतीय स्वरूप का परिश्रमपूर्वक अर्जित बोध भी (शोभाकांत का सोचने और महसूस करने का अपना स्वाधीन ढंग है। प्रचलित साहित्यिक रुढि़यों (नई-पुरानी) की जकड़बंदी से वे ग्रस्त नहीं, यह उनके लेखों में साफ देखा जा सकता है। इसी से जहाँ एक ओर वे तुलसी के कृतित्व को लेकर वे कुछ काम की बातें कह सकते हैं, वहीं दूसरी ओर वे विद्यापति के प्रति अपनी रीझ-बूझ को पाठक के लिए नये सिरे से, नई सूझ-बूझ के साथ सार्थक और उत्तेजक बना सके हैं। यह लचीलापन-संवेदना तथा रुचि दोनों का – उनके विवेकी साहित्यिक भाव-बोध को दर्शाता है। फिर, जिस खुली संवेदना और भावप्रवणता के साथ वे साहित्य को पढ़ते हैं, उसी खुली संवेदना और सहज भावप्रवणता के साथ अपने जीवनानुभवों को भी। ‘स्मरणं त्वदीयम’ और ‘स्मति गंध’ जैसे ललित निबन्ध इस प्रतीति को बल देते हैं। महज नास्टेल्जिया से अपने को अलगा सकने वाली गुणवत्ता इन निबन्धों में दिखाई गई है। उम्मीद करनी चाहिए का आगे लेखक की साहित्यिक रीझ-बूझ तथा जीवनानुभूति का और भी एकाग्र तथा गाढ़ा मेल उसके निबंधों के जरिए प्रकट होगा।

ललित निबंध या किसी भी विधा के स्थापत्य के संबंध में बहुत कुछ कहा जा सकता है और कहा जा चुका है। कोई कहना अंतिम नहीं होता क्योंकि स्थापत्य निरंतर सृजन के कारण बदलता रहता है – नये नये वास्तुशास्त्र की तरह। ‘अदबुत अपूर्व स्वप्न’ जिससे विवेच्य विधा और आधुनिक हिन्दी गद्य का आरंभ माना जाता है। तब से लेकर आज तक इसकी निरंतरता बनी हुई है। ललित निबंधों का लेखन कम जरूर हुआ है, पर बंद नहीं। इसकी प्रासंगिकता चुकी नहीं है। आत्म को परात्म का व्यक्ति को समष्टि का पाठ्य बना देने की कला में निपुण यह विधा मरेगी नहीं – गीत काव्यकी तरह, कविता की तरह। यह कविता का गद्य विकल्प है। जरूरत है अष्टभुजा शुक्ल के शब्दों में “अन्य विधाओं के साथ चलने को आज ललित निबंध को नितांत वैयक्तिक हाहाकर, चिन्ता, धुर ग्राम्य प्रेम या संस्कृति के रंगीन कुहासे से बाहर आकर नए भावबोध के साथ सन्दर्भों से टकराना होगा।” – ललित निबंध; भूमिका पृष्ठ 2

अंत में आदरणीय हजारी प्रसाद द्विवेदी के मन्तव्य से बात को समेटना चाहता हूँ – “आचार, रीति-रिवाजों से लेकर धर्म, दर्शन, शिल्प सौन्दर्य तक में सर्वत्र नये सिरे से सोचने कीआवश्यकता है। कोई नैतिक मूल्य अंतिम नहीं; कोई शिल्प विधि सर्वोत्तम नहीं कही जा सकती, कोई अभिव्यक्ति पद्धति सर्वश्रेष्ठ नहीं हो सकती।” – ललित निबंध; लेख रमेश कुंतल मेघ पृष्ठ 19
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16. हरसिंगार




आंगन का नाम अधर पर आते ही मन ग्राम्यगंधी हो उठता। उसमें भी आंगन के कोने में उगा हरसिंगार और तर करके रख देता है। उसके ऊपर नीचे झरे-बिछे जोगिया रंगी डंठलों वाले खेत पुष्पों की सुगंध से शरदभोर पूरी तर विभोर हो उठती है। इसी भोर की तरह सराबोर मैं उसकी कलियों को चुनने लगता हूँ और मन स्मृति को।
बचपन के रचे वे पन्ने खुल जाते हैं, जिन पर धीरे-धीरे गोरी होती भोर का उतरना रचा होता। सोनहा बिहान, शबनम की मुसकान और प्रभाती गान के छंद रचे होते। बाबूजी पौ फटने से घंटाभर पहले ही प्रभु को प्रभाती सुनाने लगते थे और हम डलिया लेकर हरसिंगार की कलियाँ चुनने पहुँच जाते थे-

रामचन्द्र रघुनाय तुमरों हौं बिनती केहि भाँति करौं।
अघ अनेक अवलोकि आपने, अनघ नाम मनुमानि डरौं।।
पर-दुख दुखी सुखी पर-सुख ते, संत-सील नहि हृदय धरौं।
देख आनकी बिपति परम सुख, सुनिसंपति बिना आगि जरौं।।
नाना वेष बनाय दिवस-निसि, पर बित जेही तेहि जुगति हरौं।
एकौ पल न कपहुँ अलोल चित, हित है पद-सरोज सुमिरौं।।

उन दिनों सोचहीन वय के कारण बाबूजी के इस प्रभाती गान का अर्थ नहीं लगा पाता था और इन दिनों दिवस-निशि अर्थ दौड़ में दौड़ते रहने के कारणपर-दुख देखकर सुखी और पर-सुख देख दुखी होने वाले आज के अर्थलोलुप मन में ऐसे भजन भाव समा भी कैसे सकते हैं ? इस बहुरूपिए युग को वह रुचि कहाँ कि वह रामरुप मे रम सके। हरसिंगार आगंन में नही होता तो बाबू जी के गाये इस प्रभाती की स्मृति भी शायद ही आती। महादेवी के यह पद भी क्यों याद आते-

पुलक-पुलक उर सिहर-सिहर तन
आज नयन क्यों आते भर-भर
शिथिल मधु पवन गिन-गिन मधुकण
हरसिंगार क्यों झरते-झर-झर।

पुलक का स्वाद पवन की सिहरन, स्मृति की मिठास और हरसिंगार के झरने का अहसास बचपन की उम्र को क्या मालूम। बचपन तो संग-साथ सबको सहजता से भीतर समोना जानता है, ऊभू-चूभ होना जानता है। स्वाद तो बाद की उम्र लेती है। संग-संग रीझने-खीझने, नाचने-गाने, छिपने-छिपाने, उलाहना देने और अभाव में अकुलाने से उपजी प्रीती का आस्वाद गोपियों को तब लगा जब श्याम गोकुल छोऱ गया। और श्याम को भी व्रज छूट जाने पर व्रज लीला की बेशुमार सधियो का स्वाद मेरा भी गोकुल बहुत दूर छूट गया है। दूर होने पर स्मृति और गाढी हो जाती है- प्रीति की तरह, अहसास की तरह। शहर लाख सिर पटक ले जब तक भीतर का आदमी मरा नही है, तब तक उसकी पर्याय स्मृति मर नही सकती। सिंगार का सुगंध सिरा नही सकती, कोयलिया की बोली भुला नही सकती।

रही बात हरसिंगार क्यों झरता है, तो जो खिलता है क्या झरना उसकी नियति है। फूल अपनी सुगंध फैलाकर और अच्छे अपनी अच्छाई को आचरण देकर दूसरो को खिलने का अवसर देते है। समय रहते ही हट जाते है- जमे नही रहते नेताओ की तरह। धक्का खाकर बाहर होने की आदत अच्छी नही होती। हरसिंगार देवाधि देव महादेव का श्रृंगार है, वह उनका श्रृंगार बनने, उनके संग पाकर कृतार्थ होने, औरों को कृतार्थ करने की मशां से झर जाता है। रुपगुण के फीका पडने से पहले ही वृन्त से हट जाता है- सगे-सनेहियों को कृतार्थ होने का, अपने होने को प्रमाणित करने का मौका देकर सूखने पर तो सभी झर जाते है दयनीय दया का पात्र बनने से पहले ही विकसित हो जाना बेहतर है। रुप-राध इतराने की वस्तु नही, रमने-रमाणे की चीज है, यह कहते हुए हरसिंगार यह भी झरकर कहना चाहता है कि नश्वरता संसार की नियति है, इसलिए अच्छे के लिए अपने को अर्पित कर देना अच्छा है। बहुत सारे आशय झरने मे समोया हुआ है। समझ-सोच के अनुपात से आशय खुलता जाता है।

हरसिंगार के मनुहार का मौसम प्रकृति के निखार की भी रुत होती है। अवदात अकाश, शरदचन्द्र का आहलादमय हास दिपदिपाते तारे- दिपावली के दीप जैसै। वनश्री सधस्नाता सी लटों से शबनम की बूंदे बच्चो के मन जैसे निर्मल जल, मनुहार के लिए गुहार लगाती रातरानी। शारदीय शक्ति पूजा के लिए आहवान करती नवरात्रा। वर्षा भींगे अलसाये और कृषि कर्म से थके लोक मन को शक्ति आराधना के लिए उत्साहित करता शरद दुर्गोत्सव। दुर्गति से बचाने वाला और दुर्गम विकास-विजय यात्रा को सुगम बनानेवाली दुर्गा की आराधना के लिये भर-भर डलिया हरसिंगार चुन लेने हेतु किशोर-किशोरियों में होऱ सी लग जाती थी, तब के दिनों में। रामू, श्यामू, बाले-बिन्दे, रमेश, महेश, गमकला, उर्मिला, गोदा, भूल्ली पीसी और जागेकाका- गाँव भर के किशोर वय शक्ति भक्ति की औकात के मुताबिक पौ फटने से पूर्व ही- देंखे कौन कितना फूल चुनता है, फूल चुनती थी। कमल मुख मुसकाते तालाब मे सात-सात डुबकी लगाकर तैरकर कमलों को काढते और बालसखा छिन्नमस्ता देवी की आराधना के लिए दुर्गास्थान (उच्चैठ) चल पऱते।

डुमरा से कोसो भर की दूरी पर उच्चैठ मे दुर्गा देवी राजती है, लोरिका धनौजा दोनो गाँव को पारकर जाना पऱता था। सब बाल सखाओ के हाथों मे फूलो की डलियाँ होती और जेब में ताम्बें के दो-चार पैसे। उन दिनों दो-चार पैसे दो-चार रूपये के बराबर होते। साथ मे चूऱा-गुऱ की पोटली भी। मंदिर परिसर मे पहुँचते ही भीऱ का ठेमल-ठेल और मेले का रेलम-पेल। मंदिर मे प्रवेश पाने के लिए छोटे रेल डब्बे कीसी धक्का-मुक्की देवी के चरण छू लेने की होऱ-सी लग जाती। देवी के उपर चढे फूल जब बाह के अर्पित होते फूलो के हल्के झटके से, या भार से, या अन्य कारणो से या देवी की कृपा से भक्तो की अँजुरी मे और भक्तिनो के आंचल में गिरते तो वे विभोर होकर भगवती की प्रसन्नता को सम्हालकर रख लेते, माथे से निकलते। गिरिजा पूजन के समय सीता के आँचल मे भी देवी के उपर चढी माला प्रसन्नता का प्रतीक बनकर गिरी थी और देवी गिरीजा मुस्कुरा उठी थी- खसी माल मूरति मुस्कानी।


निर्मल का अंजुरी मे गिरना या आँचल में आ जाना संभवतः उन्हीं स्मृतियो और ज्ञाताज्ञात संस्कारो की स्मृति है।
अष्ठमी के दिन का तो रंग ही दूसरा होता था। भौइद्दी मे बसे पचास गाँवो की श्रध्दा उमऱ पऱती थी- अर्पित होने के लिए, माँ की ममता दया पाने के लिए, सांसारिक सुख और पारलौकिक कृपा पाने के लिए। ‘दुर्गा माता की जय’, ‘दुर्गा महारानी की जय’ की जयकार कोसों दूर से सुनाई पऱती। श्रध्दा मेले का शोर आसपास के दसो गाँव में सुनाई पऱता। मंदिर के भीतर-बाहर ‘दुर्गा सप्तशती’ पाठियों के पाठ से आयतन पावन होता। आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से दशमी तक चलने वाला यह दशमी मेला आज भी स्मृति मे जुऱ आता है-हरसिंगार की कलियों को चुनते हुए। कालिदास,का वह गढ (टीला) आखों के सामने झूल जाता है, जहाँ वे पढे थे। यहीं कालिदास पत्नी की वाक-बाण से बिंध होकर विद्या पाने आये, को कालि की कृपा से मिल गई और वे कालिया से कालिदास बन गये थे। भले ही विद्वानो का बहुमत उज्जैयिनी में कालिदास का होना प्रमाणित करता हो, पर इस किवदंती को एकदम से नकारा भी नही जा सकता, क्योंकि मिथिला विद्वानों से मंडित रही है और वैसे भी विद्वान, संत-महात्मा एक देश-काल के होकर नही रहते।
‘हरसिंगार’ या मैथिली ‘सिंगरहार’ हरश्रृंगार का तद-भव रुप है। तत्सम से तदभव जरा ज्यादा मीठा होता है। लोकभाषा की प्रकृति मे ढला हुआ, काक से ‘कागा’ और पिक से ‘कोईलिया’ की तरह मीठा। यह भले ही उगा हो हर-गौरी के श्रृंगार के लिए, पर इसे अन्य देव-देवियों के लिए, पर इसे अन्य परहेज नहीं। पवन-गगन सब इससे तर होते हैं। आप भी तर हो सकते हैं। यह हर की तरह सबके लिए औढर है और औषधि भी। इसकी कोमल पत्तियों को पीसकर सुबह शाम खाली पेट पी लीजिए, पुराना बुखार उतर जायेगा। भूख जग जायेगी। विश्वास बढ़ाने के लिए मेरी नातिन स्वाति से पूछ लीजिए, जो इसकी पत्ती पीकर अच्छे स्वास्थ्य की मालकिन है। तईभ से वैद्यनारायण की तरह मेरे आंगन में विराजमान है। श्रीखंड जंदन के साथ इसके दो-चार गोरोचन रंगी डंठलों को घिस दिजीए सुगंध में छवि और छवि में सुगंध समा जायेगी और यह गोविन्द के भाल के गोरोचन तिलक बन जायेगा। जब भी हरसिंगार को चुनता रहता हूँ तो दिनकर की ये काव्य पंक्तियां स्मृति द्वार से अधर पर उतर आती हैं और भूले-बिसरे दिन और लोग याद आ जाते हैं –

पहन शुक्र का कर्णफूल दिशा अभी भी मतवाली।
रहते रात रमणियाँ आई ले-ले फूलों की डाली।

हरसिंगार की कलियाँ बनकर वधुओं पर झर जाऊँगी।
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15. सर्वमंगल भाव और संस्कृत साहित्य




साहित्य सदैव सर्वमंगल भाव को जीता है। उसका आग्रह सबका हित है। हित बाव के बिना साहित्य नहीं रह सकता। जैसे हाथी के पैर के विस्तार में सारे जीवों के पाँ समा जाते हैं, वैसे इस मंगल भाव में सभी प्रकार के हित भाव समा जाते हैं। शिव सुंदर और सत्य होता ही। यह ‘साहित्य’ शब्द, जो शब्द अर्थ के परस्पर प्रतिस्पर्द्धी सौंदर्य से वाणी की उपासना करता है, संस्कृत भाषा का शब्द है। ‘संस्कृत’ शब्द भी अपने आप में संस्कार और सौंदर्य बोधक है। परिष्कृत या संस्कारित भाषा का नाम ‘संस्कृत’ है। संस्कार मंगल मूलक होते हैं। यह मंगल मूला देव भाषा देवताओं को तो भावित करती रही है, हजारों वर्षों से हमारी चोस-समझ को भी संस्कारित करती रही है। जितना दार्शनिक विचारधाराओं का, मानवीय मेघा का चतुर्दिक प्रसार और प्रस्रवण संस्कृत युग में हुआ उतना आधुनिक भारतीय भाषाओं की बात कौन कहे, विश्व भाषाओं में भी कदाचित नहीं हो सका। आधुनिक दर्शन-चिंतन के केन्द्र पाश्चात्य देश जरुर बन गए है, परन्तु प्राचीन काल मे भारत ही केन्द्र रहा है। इस केन्द्रत्व का साक्षी है नालंदा एंव तक्षशिला के विश्व विद्यालयों का इतिहास। सबका श्रेय-प्रेय संस्कृत का सनातन द्दयेय रहा है। दुर्योग या काल योग से सब के शुभाकांक्षी बुद्दद् जैसे दलितों के खासम खास हो गए है, पंथ या सम्प्रदाय के घोर विरोधी कबीर खास पंथ के पिंजरे में कैद हो गए, सूर-तुलसी पर वर्ग विशेष की मुहर लग गई है। ज्यादातर स्वतंत्रता के बाद सत्ता पर काबिज होने अथवा बने रहने के अपवित्र उद्देश्य से भाषावाद, जातिवाद, सम्प्रदायवाद की विष-वेलि बोने में हमारी धरु राजनीति ने महारत हासिल कर ली है। परिणति सामने है। संस्कृत की छोङिये, जिस हिन्दी को गैर हिन्दी भाषी लोगों ने राष्ट्रभाषा बनाने के लिए पहल की, एक जुटता दिखाई, राष्ट्रीय एकत्व के लिए सभी वर्गो के लोग को सिर पर कफन बाँध आगे आने हेतु प्रोत्साहित किया, उसी को पहले उर्दू से विलगाया गया। अब तो उसकी बोलियों से भी उसे अलग करने की प्रवृति पनप रही है। जिस अंगेजी के विकल्प के रुप मे और राष्ट्रीयता को पुष्ट करने के लिए हिन्दी को स्थापित किया गया था, स्वदेशी अवधारणा का अनुष्ठान किया गया था, उसी हिंदी को आजादी के बाद क्षुद्र स्वार्थवश किनारे करने का कुप्रयास किया जा रहा है, तो संस्कृत के भगवान ही मालिक है।

संस्कृत निर्विरोध रुप से उत्तर का सेतुबंध रही है। समस्त भारतीय भाषाओं की जननी-जैसी रही है। वृहत्तर भारत के वाङ्मय का माध्यम रही। ‘वसुधैव कुटुम्ब’ के भाव को सर्वातमना जीती हुई सबको आत्मसाक्षकर आत्मीयता देती रही। उसी को वर्ग विशेष की भाषा मानकर उसके पठन-पाठन पर ग्रहण विडंबना नही तो क्या है? यह वर्ग विशेष की भाषा नहीं, अशेष की है। कांची-काशी की नहीं, समस्त भारतवासी की है। संकीर्णता की नही, उदारता की है। इसी उदारता से प्रभावित होकर दाराशिकोह ने उपनिषदों का अनुवाद फारसी मे किया था। रसखान ब्रजभाषा के रस मे पगे और मलिक मुहम्मद जायसी की अवधी में समाधी लगी।वेद वाणी समस्त जगत के जीव और नर-नारी के शिवत्व की कामना करती हुई कहती है-

ऊँ स्वस्ति मात्र उत पित्रे नो अस्तु। स्वस्ति गोभ्यो जगते पुरुषेभ्यः
विश्वं सुभूतं सुविदत्रं नो अस्तु ज्योगेव द्दशेम सूर्यम् –ऋगवेद् 1-31-4
इसी भाव का भाष्य यह श्लोक है-
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वेसन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्ददुखभागभवेत्।।

पितृपक्ष में तर्पण करते हुए भारतीय जन न केवल अपने पितरो को जलांजलि देकर उनकी तृप्ति की कामना करते हैं अपितु विश्व के समस्त जङ-चेतन के लिए तृप्ति जलांजलि समर्पित करते है।

ऊँ देवास्तृप्यन्ताम्, ऋषयस्तृन्ताम् संवत्सरः सावयवः तृप्यताम् नागास्तृप्यताम् सागरा स्तृप्यन्ताम्, पर्वता-स्तृप्यन्ताम् सरितस्तृप्यन्ताम् मनुष्यास्तृप्यन्ताम् रक्षांसितृप्यन्ताम् पशवस्तृप्यन्ताम, वनस्पतयस्तृप्यन्ताम् औषधयस्तृप्यन्ताम् भूतग्रामचतुर्विधस्तृप्यन्ताम्।

वेद-वेदांग की भूमिका के बाद पुराणों की भूमिका सर्वमंगलत्व की दिशा में कम महत्वपूर्ण नहीं कही जा सकती। शक्तिस्वरुपा देवी की प्रार्थना करते हुए भक्त- सबके सारे हितों की सिद्दि हेतु याचना करता है

सर्वमंगल मंगल्ये शिवे सवार्थ साधिके।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरी नारायणी नमो स्तुते।। -दुर्गासप्तशती

श्रीमदभागवत पुराण की मंगलकामना और भी व्यापक है। विश्व की मंगलभावना से भावित है। दुष्यों तक की निर्मल बुद्धि की कामना की गई है। प्राणियों में परस्पर सदभावना हो। मन शुभ मार्ग में प्रवृत्त हो तथा निष्काम भाव से रमा रमण में हमारा मन रमता रहे

स्वस्त्यस्तु विश्वस्च खलः प्रसीदतां
ध्यायन्तु भूतानि शिवं मिथोधिया।
मनश्च भद्रं भजतादधोक्षजे
आवेश्वयतां नो मतिरप्यहैतुकी।।

यह सर्वशुभोदय की भावधारा गंगोत्री की तरह सहस्रधार होकर संस्कृत काव्य-भूमि में बहती रही है। लोगों को भ्रांति है कि संस्कृत पूजापाठ की भाषा है। पंडितों की भाषा है। जन साधारण की समस्या सोच, सुख-दुख, चरित्र से इसका दूर का भी संबंध नहीं। आभिजात्य वर्ग की अभिव्यक्ति का माध्यम रही है। आज के संदर्भ में इसकी प्रासंगिकता चुक गई है। अदी-अदि न जाने कितने भ्रम फैले हुए हैं, किन्तु गहरे उतर कर देखें तो ये सारे भ्रम, भ्रम ही हैं, सतही हैं। संस्कृत संदर्भहीन नहीं हुई है। कोई भी भाषा जब साधारण जन के बीच संवाद का माध्यम नहीं रह जाती तो उसमें ताजगी भले ही कम हो जाती है, किन्तु इससे वह संदर्भही नहीं हो जाती।सबके हित की उपेक्षा करके िकसी भाषा का साहित्य जी नहीं सकता।जबआदि कवि वाल्मीकि का अदना हृदय क्रौंचवध पर रो उठा था, तब उन्होंने राम जैसे आर्तत्राण महानायक की खोज अपने श्लोकों की सृष्टि रचने के लिए की थी। इस खोज में मुनि ने सतचरित्र एवं सभी के हितभाव को केन्द्र में रखा था। नारद जी से प्रश्न करते हुए आदि कवि ने जिज्ञासा प्रकट की कि अभी इस लोक में कौन ऐसा वीर पुरुष है, जो धर्मज्ञ, कृतज्ञ सत्यसंध, दृढ़वती गुणवान, विद्वान, चरित्रवान और प्राणिमात्र का हितैषी है ? नारद मुनि ने राम का ना लिया। सबका कल्याणकरना राम का काम था –

कोन्वस्मिन् साम्प्रतं लोके गुणवा कश्च वीर्यवान्।
धर्मज्ञश्च कृतज्ञश्च सत्वाक्यो दृढ़वतः।।
चारितत्रेण च को युक्तः सर्वभूतेषु को रतः।
विद्वान कः कः समर्थश्य कश्चैक प्रिय दर्शनः।। - वा.रा.वा. कां. 2-3

व्यास यदि मनुष्य को सृ-ष्टि का श्रेष्ठतम जीव मानते हैं, तो कालिदास प्रकृति अर्थात् प्रजा के हित को सर्वोपरि स्थान देते हैं। पग-पग पर राजा या प्रशासक को कालिदास की कविता प्रकृति रंजन का स्मरण दिलाती है। राजा प्रकृति रंजनात्, अर्थात् सब प्रकार से प्रजा को प्रसन्न रखने वाला ही राजा हो सकता है। अभिज्ञान शाकुन्तलम् के अंत में नाटककार का भरत वाक्य है कि राजा प्रजा के हित में रत रहे। विद्या में वृद्धि हो। शिव हम सबका शुभ करें –

प्रवर्तताँ प्रकृति पार्थिवः
सरस्वती श्रुतमहतां महीयसाम्।
ममापि च क्षपयतु नील लोहितः
पुनभवं परिगतशक्तिरात्मभूः।।

परम्परासे हटकर सोचने और रचने वाले करुणा के कवि भवभूति समस्त भावों के केन्द्र में करुणा को रखकर जग मंगल के लिए अपनी प्रतिबद्धता सम्प्रेषित करतेसे जा पड़ते हैं। अशेष मानवीयसहानुभूति का स्त्रोत करुणा ही तो है। उसमेंसंसार के शुभोदय का निवास है। परपीड़ा अधमताई है तो परोपकार पुण्यकापुंज। एक से बचने और दूसरे को करने के लिए करुणा चाहिए। इसी चाह की खोज भवभूति की करुणा है। पृथ्वी तनया प्रकृति स्वरूपा सीता की पीड़ा से द्रवित कवि चित्त करुणा का आश्रय लेता है। लोकाराधन के लिए सीता का निर्वासन प्रजाहित के लिए प्रकृति का पीड़न कहा जा सकता है। प्रजा मंगल के लिए और भी विकल्प खोजे जा सकते थे। इसकल्प की कसक-कचोट से पत्थर भी रो उठता है। प्रकृतिरोती है। राम रोते हैं। स्वयं राम को अपना उत्तरचरित अपराध बोध से भारी लगता है – ते ही नो दिवसाः गताः (उत्तरराम चरितम् ्ंक 1) इसी करुणा ने तो ुबद्ध को घरबार छुड़ाया था। विश्वमंगल की साधना के लिए उसकायाथा। भवभूति का कवि अपनी तथा सबकी विभूति का कारण प्रेम, करुणा और परोपकार को मानते हुए कामना करता है कि सारे संसार का शिव हो। सभी प्राणी परिहत निरत हों। दोष शांत हों। सभी स्थान के निवासी सुखी हों –

शिवमस्तु सर्वजगतां परहित निरताः भवन्तु भूतगणाः।
दोषाः प्रयान्तु शान्ति सर्वत्र सुखी भवतु लोकः।। - मालतीमाधवम् 10-25

कविता संसार का प्रतीक और पात्रों के माध्यम से मंगल का संदेश देता है। वह समस्त मानवता के प्रति स्वभावतः प्रतिबद्ध होता है। पक्षी, पर्वत, प्राणी-जड़ चेतन सभी उसकी सहानुभूति और प्रेम के पात्र होते हैं। संस्कृत इसी भाव की पूजा करती है। सर्वदया का पाठ पढ़ाती है। सबके श्रेय-पेय की स्तुति गाती रहती है। अपने कल्याण से पहले विश्व मंगल की कामना की जाती है – “शिवमस्तु सर्व जगताम्।”

संस्कृत की भारत सावित्री पूडा-पाठ प्रधान नहीं, धर्म और कर्म प्रधान है। धर्म की व्याख्या में समष्टि का मंगल विधान सर्वोपरि है, बाह्याडंबर नहीं। धर्म की अवधारणा प्रजा और समाज के धारण या रक्षण करने से अर्थवती है। वे कर्म और यम नियम, जो ध्वंस से बचाते हैं और निर्माण करते हैं, उन्हें धर्म कहते हैं। वे आचरण जो आतंक नहीं, आनन्द और अभय़ प्राणि मात्र के लिए सिरजते हैं, उन्हें धर्म की मर्यादा कहते हैं। तभी तो भारत सावित्री कहती है –

धारणादधर्म इत्याहुर्धर्मोधारयते प्रजाः।
यत् स्यात् धारणसंयुक्तं सधर्म इत्युदाहृतः।
- महाभारत

ऐसी सर्व मंगल धारणधर्मी आवधारणा वाले धर्म को अर्थ, काम एवं राज्यका मूल माना गया है – त्रिवर्गोsयं धर्ममूलं नरेन्द्र राज्यं चेदं धर्ममूलंवदन्ति (महाभारत वनपर्व 414) आशय यह कि जो अर्थ धर्मार्जित नहीं होता, अनीति अन्याय व दुष्ट साधनों से अर्जित होता है, वह अनर्थकारी होता है। गलाकाट प्रतियोगिता व लूट-खसोट को बढ़ावा देता है। आदमी को आदमी नहीं रहने देता। वह धर्म से अनुशासित न रहने पर हवस का रूप ले लेता है। अनुजा तनुजा, परजा में भेद भूल जाता है। आसुरी बन जाता है। धर्म रहित राज्यकी भी यही दशा होती है। हस्तिनापुर का राज्य उसे छोटा लगता है। जो प्राप्त भाग है उसका विकास भूलकर काश्मीर की रट लगाने लगता है। मानों काश्मीर मील जाने पर उसकी कोई इच्छा शेष नहीं रहेगी। यह देश हमेशा धर्म को कमोबेश केन्द्र में रखता चला आया है। लंका जीतकर लंकावासी को और बंगलादेश बंगलावीसी को सुशासन के लिए सौंप दिये गये। यह भारतीय धर्म का मंगल भाव है जिससे हमारा जीवन, हमारे आचार-व्यवहार और हमारी राजनीति अनुशासित है। यह धर्म आध्यात्मिकता की ऊँचाई पर पहुँचकर जीवन के बहुविध अच्छे कर्मों को ही शिव की आराधना मानता है। इस शिव स्तुति का यही विशद आशय है –

आत्मात्वं गिरिजामतिः सहचराः प्राणाः शरीरं गृहम्
पूडा ते विषयोपभोगरचना निंद्रा समाधिस्थितिः।
सञ्चारः पदयोः प्रदक्षिणविधिः स्तोत्राणि सर्वा गिरो
यतयतकर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भो तवाराधनम्।। - शंकराचार्य शिवमानसपूजा
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14. निर्वासन



निर्वासन और निर्वसन के बीच मात्र एक मात्रा का अंतर है, परन्तु दोनों के भीतर निहित अपमान-अवसाद की तादात में बेशुमार फर्क है। ठीक है कि जिसके असन, वसन और वास का ठीक-ठिकानान नहीं होता, उसके लिए पुण्य प्रकाशी काशी भी मगहर जैसी हो जाती है और पुण्य सलिला शीतला गंगा भी अंगारवाहिनी लगती है –

असनं वसनं वासो येषां चैवाविदानतः।
मगधेन समाकाशी गंगाप्यंगारवाहिनी।।

परन्तु आधा पेट खाकर, लंगोटी लकाकर, वृक्ष के नीचे रहकर भी कमोबेश सुख काअनुभव किया जा सकता है, ‘अइहहिं बहुरि बसन्त रितु’ की आशा में जीया जा सकता है। फुटपाथ को वास स्थान बनाकर जिंदगी को घसीटकर लोग जी ही रहे हैं। परन्तु निकाले जाने का दर्द बड़े-बड़े मर्दों से नहीं सहा जाता। इसकी पीड़ा भोक्ता को तो हिला ही देती है, द्रष्टा को तटस्थ नहीं रहने देती, द्रवित कर देती है। पाषाण को पिघला देती है। प्रमाण चाहिए तो पंचवटी से पूछिए, जोसीता के अकारण निर्वासन की कचोट से रो उठी थी, बज्र का हृदय फट पड़ा था। आकाश चीत्कार कर उठा था। वनदेवी थरथरा उठी थी और तभी सेराम राम नहीं, राजा राम – आत्मनिर्वासित राम – रह गए थे।

निर्वासन यातना का अक्रूर रूप है। यह निर्वासित को जल्दी से मारता नहीं, सालता है। चोट नहीं पहुँचाता, कचोटता है। यदि अच्छे कार्यके लिए, देशहित के लिए निर्वासन राजदंड के रूप में दिया जाता है तो वह ज्यादा दुःकद नहीं होता। व्यक्ति अच्छे काम के नाम पर कालापानी की सजा भी काट लेता है। तिलक ने तो कालापीन की यातना सहते-सहते गीता का भाष्य ही लिख डाला था। आज़ादी के दीवानों ने क्या-क्या नहीं सहाथा, परन्तु धरणीसम धीरा सीता भी निर्वासन के दर्द को नहीं सह पाई और धरती में समा गई, क्योंकि यह निर्वासन राजदंड से प्रेरित नहीं था। अपनों के द्वारा अपने का निर्वासन था। समूह मन का निकाला था। राजा समूह मन का मालिक कहालाता है। प्रकृति का रंजन करने वाला राजा कहलाता है। उसमें भी राम जैसे राजा ने निकाला दिया था। अनन्य ने अन्यकी तरह व्यवहार किया था। कैसे सह पाती सीता ?

यक्ष अलकापुरी से निर्वासित हुआ था, प्रिया के मन से नहीं। उसे अपनी अनवधानता का भी अहसास था,इसलिए वह आकुल हुआ था, पर आत्मघातके लिए आतुर नहीं।

देश निकाला का दर्द सहा जा सकता है, पर मन के निकाले का नहीं। थेथर लोगों की नेता किस्म के मानुष की बात और है। सौ जूते खाकर भी थेथर लत नहीं छोड़ता और ज जूते की माला पहनकर भी नेता कुर्सीनहीं छोड़ता। राम के बिना अकाम मैथिली ने मिट्टी में समा जाना ज्यादा बेहतर समझा। व्यर्थ चेतना का विलाप बनकरजीने से समा जाना अच्छा समझा गया। तिल-तिल जीवित मृत्यु को जीने से एक बार ही मरण को स्वीकार करना अच्छा समझा गया।

सीता के धरा में समा जाने के बाद क्या राम भी आराम से रह सके ? क्या वे भी आत्मनिर्वासन की पीड़ा से छटपटाते नहीं रहे ? वे ऊपर से भले ही शान्त दिखाई दे रहे थे, किन्तु भीतर से पूरी तरह अशान्त, शीतल सागर के भीतर आग चल रही थी। व्यथा कहें तो कैसे और किससे ? राजा तो ठीक से न रो सकता है न हँस सकता है।

राम की बात राम जानें। मर्यादा की सीमा राम-रहीमा के लिए सब कुछ सह्य है – संभव है (रामंतु सर्वं सहे) किन्तु आत्म निर्वासन की यंत्रणा यह यंत्र युग का मानव कैसे सहे ? इस यंत्र युग ने माल को भीतर भर दिया है और मनुष्य को बेघर कर दिया है। पति को परदेस भेज दिया है। बेटे को कारखाने का मजदूर बना दिया है। बाप-बेटे को अलग कर दिया है। जैसे-तैसे बाप-बेटे से मिलने बंबई नगरिया पहुँच भी जाता है तो बेटे को मन भर बतियाने के लिए फुर्सत नहीं। संतान झूलेघर में और भाग्यवान-भाग्यवती नौकरी पर। निर्वासन का सिलसिला एक हो तो बताया जाए, यहाँ तो सारे रिश्ते रिस रहे हैं और सरोकार सर्द हो रहै हैं। भीड़ बढ़ गई है। आदमी अकेला हो गया है। आत्मनिर्वासित आदमी आत्मगात से लेकर आतंकवाद तक कुछ भी अकर्म करने के लिए उतारू है। यह युग सच पूछें तो निर्वसन रहने से ज्यादा निर्वासन का ही दर्द भोग रहा है। अपनों से निर्वासित होकर जी रहा है। बंजारे भी साथ-साथ रहने का सुख पाते हैं। पर अघोषित बंजारे को तो वह भी प्राप्त नहीं है। भगवान बचाए इस निर्वासन से।
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13.सर्वमङगल माङगल्ये



सर्वमंगला काली कराल वंदना घोररूपा भयंकरी है, परन्तु विरोधाभास से देखिये कि वे सर्वमंगला कहलाती हैं। त्रिपुर सुंदरी व मंगल मूर्ति हैं। विचारकर देखें तो यह विरोधाभास ही है, वास्तविकता नहीं। ‘मगि’ धातु से अचल् प्रत्यय लगाकर ‘मङगल’ शब्द और ‘यत्’ तथा ‘ण्यञ्’ जोड़कर क्रमशः मङगल्य और माङगल्य शब्द निष्पन्न होता है। ‘सर्वमंगा’ विशेषण साभिप्राय है। उनके अनेक नाम-रूप हैं और सबके अभिप्राय हैं, किन्तु मांगल्य का भाव अन्तर्धारा की तरह सभी में समाहित है – तेज में प्रकाश की तरह, भगवान में भगवत्ता की तरह। ‘काली’ नाम के आशय पर ही विचार करें तो ज्ञात होगा कि शिवानी का यह नाम भी घोर रूप को प्रकट करता हुआ भी कल्याण से रहित नहीं है। प्रकृति अपने मूल स्वरूप से पृथक नहीं हो सकती। जल अपनी रसात्मकता नहीं छोड़ सकता न अग्नि अपनी उष्णता। उसी तरह काली रूप में भी शिवानी शुभ ही करती है। काली शब्द की व्युत्पत्ति है कि जो काल स्वरूप धारण कर समय के पाप-ताप-शाप दुर्वृत्त आदि को लीलती रहती है, उसे कालिका कहते हैं – कलयति लीलयति पापं दुर्वृत्तं वा सा कालिका। कलयति भक्षयति प्रलय काले सर्वम् इति काली अर्थात् काली काल बनकर दुराचार भ्रष्टाचार को लील जाती है। जग के कालकूट को महाकाल की तरह महाकाली पी जाती है और गौरी से काली बन जाती है – जैसे कपूर गौर शंकर नीलकंठ बन जाते हैं। है न मांगल्य भाव ?

मूढ़ हैं वे लोग, जो अपने को चतुर-चालाक समझकर गलत काम करते रहते हैं और सोचते हैं कि काली के कोप से वे बच जायेंगे। जग की आँखों में धूल झोंकी जा सकती है, जगदीश्वरी की आँखों में नहीं। वे भूल जाते हैं कि सर्वमंगला होकर भी दुर्वृत्त बरदाश्त नहीं कर पातीं। उसका शमन करना उनका शील है –

दुर्वृत्तशमनं तव देखि शीलम्।

भवानी का दूसरा नाम भद्रकाली भी है। काली शब्द के रूप में लगा भद्र विशेषण उनके सर्वमंगल शील का ही संकेत देता है। भद्र, अर्थात् जो भक्तों के लिए मंगल स्वीकार और प्रदान करे उसे भद्रकाली कहते हैं – भद्रं मङगलं सुखं वा कलयति स्वीकरोति भक्तेभ्यो दातुम इति भद्रकाली सुखप्रदा। भद्रकाली की असुर संहार लीला के रहस्य में भी सोचकर देखें, तो सर्वमांगल्य निहित है। संहार के पिछे सृजन का भाव भावित है। भला सोचिये की जगन्माता विश्वमूर्ति भवानी कुमाता कैसे हो सकती है ? अकारण अपने ही पुत्र असुरों का संहार क्यों करेगी ? किन्तु अपना ही पुत्र यदि कुपुत्र बन जाता है, राज-समाज का शत्रु बन जाता है तो क्या माता-पिता उसका शमन नहीं करते ? असुरों का शमन और सुरों का पोषण किसी प्रकार के पक्षपात का परिचायक नहीं है, अपितु आसुर व सुरभाव का शमन-पोषण है। जग-मंगल का विधान है। सृष्टि सुव्यवस्था है। लोकहित की रक्षा है। मूल्य-मर्यादाओं की अभिरक्षा है। शास्त्र का स्पष्ट मत है कि लोक कल्याण की दृष्टि से किया गया कार्य सुकर्म है। हत्या भी पाप नहीं धर्म है। हत्या पाप है, किन्तु वध नहीं। राम ने रावण का और कृष्ण ने कंस का वध किया था, हत्या नहीं। रावण वध के पीछे सीता मात्र निमित्त कारण थी। मुख्य कारण तो रावण का स्वयं का दुष्कृत्य था जो लोकहित को बाधित और लोक कोप को संवद्धित कर रहा था। राम का कोप उसी लोक-कोप की अभिव्यक्ति था, जिसका शिकार रावण को बनना पड़ा। भागवतकार की यह गोविन्द वंदना इसी वास्तविकता की समृति है –

लोक शोकापहाराय रावणं लोकराणः। रामो भूत्वावधीत् यस्तं गोविव्दं विन्दतां मनः।।

जन्म से ही रावण लोक को रुलाता रहा। भाइयों तक को नहीं छोड़ा। व्यासदेव का तो स्पष्ट मत है कि प्रभु मनुष्य देह धारण ही करते हैं मनुष्य को शिक्षा देने केलिए। राक्षस वध उनका एकमात्र लक्ष्य नहीं होता। आत्माराम राम के द्वारा किया गयारावण वध सीता निमित्त नहीं था, लोक हित और लोक शिक्षा से प्रेरित था –

मर्त्यावतारिस्त्विह मर्त्यशिक्षणं, रक्षोवधायैव न केवलं विभोः।
कुतोsन्यथास्यादरमतः स्व आत्मनः,सीता कृतानि व्यसनानीश्वरस्य।। - भाग. 5-19-5

तथ्यहै कि समस्त अवतार लोक उपासना की अभिव्यक्ति हैं। यह स्वार्थी मर्त्यलोग अपने अवतारों की उपासना या उनके प्रति निष्ठा का प्रकटीकरण सेंतमेंत में नहीं करता। न जाने अपने हित के लिए लोकेश को किस-किस जहालत में डालता रहता है। कृष्ण को ही लीजिए। क्या वे कबी भी सुख से दोरोटी का सके ? जिस गोपाल ने अपने बालपन में ही लोगों को त्राण दिलाने के लिए कष्ट उठाया उसी कृष्ण कोजरासंध की इस मांग पर कि मथुरा के लोग मुझे कृष्ण-बलराम को सौंप दें हत्या के लिए। मैं शेषलोगों को मुक्त कर दूँगा। युद्ध नहीं करूँगा। अन्यथा सबको जलाकर राख कर दूँगा। लोगों ने अपना स्वार्थ देखा और कृष्ण-बलराम को क्रूर जरासंध के हाथों सौंपने का निश्चय कर लिया। यह सोचकर कि इन दोनों के मरने से हम सब बच जाते हैं, तो बुरा क्या है ? ऐसा होता है लोक ?

भागवती की असुर संहार लीला के पीछे भी लोक उपासना का भाव है। वे राक्षसों को मारती नहीं, संहार करती हैं। उनके दुष्कर्मों के विस्तार समेटती हैं। रोकती हैं – अनवरुद्ध लोक यात्रा के लिए। सभी के उपकार के लिए सदा दयालु बनी रहने वाली (सर्वोबकार करणाय सदाssर्द्रचित्ता) शिवानी दानवों को मारकर जग.का कल्याण ही तो करती हैं। अपने में मिलाकर योगियों के लिए भी दुर्लभ सायुज्य मुक्त दुष्टतम राक्षसों को भी प्रदान करती है –

एबीर्हतैर्जगदुपैति सुखं तथैते, कुर्वन्तु नाम नरकाय चिराय पापम्।
संग्राममृत्युमधिगम्य दिवं प्रयान्तु, मत्वेति नूनमहितान विनिहंसि देवि।।
- दुर्गासप्तशती 4-18

शक्ति का दुर्गा, काली, गौरी आदि रूपों में प्रकटीकरण देव शक्तियों का सामूहिक अवतरण है – समूह मंगल के लिए देव, दानव व मानव सभी उनके उपकार से उपकृत होते हैं। सभी उनके स्मरण से कृकत्य होते हैं। असुरगण तो खासकर शिव और शक्ति की उपासना करते हैं। विश्व जननी सर्वे भवन्तु सुखिनः की प्रतिमूर्ति हैं। कोई सच्चे मन से उनका स्मरण करके तो देखे –

दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः
स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि।
दारिद्र दुख भयहारिणी का त्वदन्या
सर्वोपकारकरणाय सदाssर्द्रचित्ता।। - दुर्गा सप्तशती 4-17

जाहिर है किदेव शक्तियों के पूँजीभूत रूप मंगला भगवती शुभ शक्तियों का समवाय हैं। शुभंकरी हैं। उनके नाम और रूपों की जितनी व्याख्या की जाये कम है। उनके वाहन सिंह, अस्त्र-शस्त्र और उनकी लीलाओं – सब का आशय एक ही है – सर्व मंगल। शक्ति-साधना जरूरी है शुभ-सुख की स्तापना के लिए। दुर्बल को सभी सताते हैं। आसुरी शक्ति लाख मनाने-चेताने पर भी नहीं मानती। सीधी नहीं रह सकती – कुत्ते की दुम की तरह। सत्ता सिंह की तरह होती है जिस पर नियंत्रण रखने तथा उसेशुभ कार्य में लगाये रखने के लिए देवी उस पर सवार रहा करती हैं। साधना भी जब गलतउद्देश्य से प्रेरित होती है तो श्रेय-प्रेय के बजाय ध्वंस ही सिरजती है – दक्ष यज्ञ की तरह। मातृशक्ति ज्यादा ममतामयी धैर्यवती और उदार होती है। वह कुपुत्र को भी स्नेह देने में कोताही न हीं बरतती, किन्तु शरीर का ही कोई अंग जब सड़ जाता है, उसेक विष से सारे शरीर का खतरा बढ़ा जाता है तब उसे काटकर फेंक देने में ही क्षेम निहित होता है। ठीक इसी तरह जब कोई दानव या मानव समाज के लिए खतरा बन जाता है तब उसका अपसरण या नाश अपेक्षितहो जाता है। संहार लीला का यही रहस्य है। रहस्य यह भी है कि आदमी शिक्षा ले। आदमी आदमी बना रहे। ब्राह्मी सृष्टि का वह सर्वोत्तम जीव बन के रहे। आध्यात्म और भोतिकतामें तालमेल रहे। दुर्का दुर्गति दूर करने और योग-क्षेम वहन करने के लिए मानवताके आह्वान पर अवतरित होती हैं। सबका मंगल नारायणी का अभिप्रेत होता है।

सर्वमङगल माङगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये त्र्यंबकेगौरि नारायणी नमोsस्तुते।।
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12. भोग और शक्ति



साधारण तौर पर पानी और जल में, भोग और भोजन में, भोज और भोजन में कोई अंतर नहीं दिखाई देता। केवल शब्दों का हेर-फेर लगता है। मूड़ का नाम कपार जैसा लगताहै,पर बारीक विचार करने पर इनमें बहुत फर्क है। नाली का पानी जल नहीं कहला सकता, गंगा का जल पानी नहीं कहला सकता। कहना हो तो कह लीजिए पर तर्कसंगत नहीं लगता। भोज और भोजन में वही दूरी है जो राजा भोज और भोजबा तेली में है। भोज भोग के ज्यादा समीप है। जो रस, जो आस्वाद, जो सौजन्य और जो आह्लाद भोज में है वह भोजन में कहाँ ? खाना ता भूख की खानापूर्ति है और लंच पेट के प्रपंच की पूर्ति। भोज के नाम से भोज्य पदार्थ का जायका कुछ और ही हो जाता है। उसका नाम सुनते ही कई मीठे प्रसंग और संदर्भ ढेर सारे अनुषंगों के साथ मन में तैरने लगते हैं। साथ में मिल-बैठकर बाँटकर भोगने के भाव भी भोजन में शामिल हैं। एक ही प्रकार के भोजन आप होटल में कीजिए। गृहिणी की प्रीति की छौंक से सिक्त वही घर में कीजिए और वहीं सबके साथ एक प्रांत में बैठकर बोज में कीजिए, तृप्ति में भारी अंतर मालूम पड़ेगा। यही हाल भोग का है। भोज में कई प्रसंगों की साझेदारी होती है, तो भोग में भाव की। यह भाव भगवदीय भी हो सकता है और मानवीय भई। भाव के योगायोग से साधारण भोज्य पदार्थ भी भोग बन जाता है – नैवेद्य बन जाता है – भगवान का प्रसाद बन जाता है। बहुत दिन पहले की बात याद आ रही है – मेरे घर पिताजी के मामाश्री आये हुए थे। मेरे दादाजी ने बड़े प्रेम से शकरकंद को कंडे में पकाकर उसमें दूध-चीनी मिलाकर मामाश्री को देना चाहा। उन्होंने बिना चखे कहा की रहने दीजिए, ऐसा तो मैं रोज खाता हूँ। किन्तु दादाजी ने कहा इसे जरा चखकर तो देखिए। यह खाना नहीं भोग है, प्रसाद है, इसका स्वाद ही और है। प्रसन्न हो जायेंगे। चखने के बाद वे और मांगने लगे।

दरअसल भाव का भोग लगता है। सूखी रोटी भी मेहमान को या भगवान को आदर भाव से निवेदित कीजिए वह नैवेद्य बन जायेगी और इसके विपरीत रसगुल्ले भी बिना भाव के परोसे जाने पर भूसा बन जाते हैं, क्योंकि सांवरा भाव का भूखा होता है। जूठा बेर भी प्रेम से खिलाया जाये तो वह रुचि से खाता है। बिदूर का साग भी बड़े चाव से खाता है और दुर्योधन के छप्पन भोग को भी छोड़ देते हैं। जिस छप्पन में छल छिपा हो, अहंकार मिला हो, जिमाने का भाव नहीं, निवेदन नहीं, उसे भगवान तो भगवान इंसान भी ग्रहण नहीं करता। यदि वह उसे खाता भी तो उसमें वह रस नहीं पाता, उसे व्यवहारवश निगलता है। इसीलिए भगवान को कोई चीज भोग लगाते समय भक्त बड़े भाव से निवेदन करतेहुए कहता है कि हे गोविन्द यह आपकी वस्तु आपको अर्पित है। आप उसे प्रसन्न मन से ग्रहण करें।

त्वदीयं वस्तु गोविंद तुभ्यमेव समर्पये। ग्रहण सुमुखी भूत्वा प्रसीद परमेश्वर।।

इस भाव से जब व्यक्ति खाली हो जाता है तब वह मालामाल रहते हुए भी कंगाल नजर आता है। पूरे देश को भी चाट लेने के पश्चात भी वह अतृप्त रहता है। और की तलाश में कई तरह के घोटाले हवाले में संलग्न रहता है। इस अतिरिक्त संलग्नता और हवस में पड़कर वह मनुष्यता से वंचित तो हो ही जाता है, प्राप्त सुखभोग से वंचित रहा करता है। हब्शी और वहशी को सुख कहाँ ? उसकी तो “डासत ही भाव निशा सिरा जाती है।“ जोड़ता कोई और है और भोगता कोई और है। यह आँखों देखी बात है, कानों सुनी नहीं। हमारे गाँ में एक महाजनी सभ्यता के ठेकेदार थे। नाम था सत्यदेव। नाम के विपरीत उनका आचरण था। चालीस साल पहले बहुत ब्राह्मण बंधुओं के लिए भी काला अक्षर भैंस बराबर हुआ करता था और अन्यों के लिए ओनामासी ढम, बाप पढ़े न हम जैसी स्थिति थी। इस स्थिति का फायदा उठाकर और ईमान-धरम से आँखें बचाकर वे काला-पीला किया करते थे। ऋण देते वक्त दो तीन और लेते वक्त तीन का दो बहीखाते में लिख दिया करते और ऋणी से अंगूठा लगवा लिया करते थे। पाप का धन प्रायः बहुत जल्दी बढ़ता है और उसी मान से घटता भी है। देखते-देखते सत्यदेव पहले तो शक्कर और उच्च रक्तचाप के शिकार हुए। भोग उठ गया। दो सूखी रोटी भी ठीक से खा नहीं पाते थे। जिसके पास भरपेट भोजन की व्यवस्था नहीं होती उससे ज्यादा दुःखी वह होता है जिसके पास भोगने के सारे पदार्थ प्रस्तुत होते हैं, परन्तु बीमारी के कारण वह उन्हें देखता भर है, भोग नहीं पाता।

सकल पदारथ जगमाहीं। करमहीन नर पावत नाही।

सत्यदेव के बेटे विलासी बन गए और देखते-देखते ही उनके खाने के लाले पड़ गए। पर मानता कौन है ? इतिहास पुराण के पन्ने दृष्टान्तों से भरे पड़े हैं। रोज-बरोज पास-पड़ोस में ऐसे उदाहरण देखने को मिलते हैं, पर आदमी मानता नहीं है, चेतता नहीं है, आगे-पीछे देखता नहीं है। नहीं तो ऐसा दिन क्यों देखना पड़ता कि जिनके इशारे से पत्ते हिलते थे आज वे पत्तों की तरह काँपते हैं। जिन मंत्रियों का स्वागत आँखें बिछाये होता था, आज उनके स्वागत में बंदी गृह सज रहेहैं। लानत है अमानत में खयानत करने वाले लोगों के भोग को।

भोग काशी शास्त्र होता है। कोई बहुत भूखा होने पर भी दोनों हाथ से खाने लगता है। दोनों हाथ से बटोरा जा सकता है। खाया नहीं जा सकता। ऐसा न भोगें कि हाजमा खराब हो जाए। अजीर्ण भोजन विष बन जाता है। मित भोजन मीत होता अमित मित्र। ऐसा ही भग रोग बन जाता है। भोग सुख भी होते हैं और दुःख भी। और किये का फल यहाँ या वहाँ भुगतना ही पड़ता है। क्रिया कभी निष्फल नहीं होती। यही कारण है गीता निष्काम कर्म करने के लिए प्रेरणा देती है। क्रिया के सारे फलों को कर्म-धर्म को समर्पित कर देने की सलाह देती है,ताकि अच्छे-बुरे फलों को सुख-दुख को समभाव से भोगा जा सके।

दरअसल समर्पण का भाव कर्तव्य के अहंकार का त्याग है, निमित्त भाव का स्वीकार है। यह फालतू किस्म का दैन्य नहीं, न ही हारी हुई सेना का शस्त्र समर्पण है। हारे हुए का हरिनाम तो रहारा होता ही है, दुख में तो सब सुमिरन करते ही हैं, किन्तु यह सुख में सुमिरन की मानसिकता है। असीम के प्रति ससीम का श्रद्धा अर्पण है। कृपालु के प्रति कृतज्ञता का बोध है। इन्हीं भावों के साथ भगवान को पत्र-पुष्प जो भी अर्पित आस्वाद्य बन जाते हैं, अमृत बन जाते हैं। अमृत भी तो एक अलौकिक अनुभूति ही है। मीठा अहसास है, आनन्द की चरम उपलब्धि है। फिर असली अमृत को देखा किसने है और पिया किसने है ? वस्तुतः भोजन चाहे लाख स्वादिष्ट हो, यदि भक्तिपूर्वक निवेदित नहीं होता तो वह भोग नहीं बन सकता और भक्ति रहित भोग रोग है। और ऐसा भोग आदमी को बी भोग लेता है, भले ही आदमी इस मुगालते में हो कि वह उसे भोग रहा है। मद्यपायी सोच रहा हो कि मैं मद्य पी र
हा हूँ। शंकराचार्य जैसे ज्ञानी ज्ञान की सीमा जानते हैं। अतः वे भोग रोग से बचने के लिए गोविंद भजन की सीख देते हैं –

“भोग न भक्ता वयमेव भुक्ताः
कालो न यातः वयमेव यातः
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्
गोविन्द भज मूढ़मते।।”

तुलसी के राम भी शबरी से कहते हैं कि हे भामिनी बिना भक्ति के कुल, जाति, बड़ाई, मान-सम्मान आदि जल विहीन बादल की तरह शोभित नहीं होते।

“जाति-पांति कुल धर्म बडा़ई। धन बल परिजन गुन चतुराई।।
भगतिहीन न साहई कैसा। बिनुजल बादि देखिन जैसा।”

वस्तुतः भक्तिहीनता श्रद्धआ-विश्वास का चुक जाना है। “ईश्वर मर गया” यह घोषणा करने वाला आस्थाविहीन यह युग क्या जाने कि देवता मनुष्य के लिए और मनुष्य देवुता के लिए कितना जरूरी है ? भक्ति को पूजापाठ क्रियाकाण्ड का पर्याय मानने वाले मानुष क्या जाने कि धर्म और सम्प्रदाय से भक्ति करती है, सबको सबका भाग देती है, भक्ति नहीं करती जोड़ती है। वह बाँटती है तो केवल आनन्द को, प्रेम को, उछाह को, प्रसन्नता को, वह अर्पितकर बाँटकर भोगने के लिए सूत्र देती है। उसी सूत्र की व्याक्या कदाचित मार्क्सवाद है। गीता का स्पष्ट कथन है कि जो व्यक्ति केवल अपने लिए पकाता है, बाँटकर नहीं बोगता, वह भोग नहीं पाप भोजन है – भुज्यते ते अद्यंपापा ये पचन्त्यात्मकारणात्।। भक्ति का दर्शन सहभाग का दर्शन है। इसमें भक्त, जगत और जगतपति सभी सहभाग होते हैं। एक दूसरे को भावित करते हैं एक दूसरे को श्रेय-प्रेय बाँटकर जीवन को अर्थ प्रदान करते हैं –

देवान्भावयतानेन ते देवा भायुन्तु वः।
परसांर भवयन्तः श्रेयःऋ परमावश्यथ।।
इवटान्भागान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।
नैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो छु भुङ क्ते स्तेन एव सः।। 31.11.92

भक्ति और भजन भी भोग भोजन की तरह चिंतनीय है। भजन यद्दपि भकि्त का ही स्वरुप है, परन्तु दोनों के बीच बारीक लकीर खींची जा सकती है। दोनों मे साध्य-साधन संबंध स्थिर किया जा सकता है। राम को पाने के लगए सुमिरन आवश्यक है। एक भजन साधन है। भक्ति की विद्दा है। एक भाव है तो दूसरी रस है भजन-भाव है तो भक्ति अहोभाव है इसी अहोभाव के सामने सुधा र भी तुच्छ लगने लगता है सुखदेव जी गवाह है कि राजा परिक्षित को जब वे भगवान कथा सुनाने को प्रस्तुत हुए तभी देवता लोग स्वर्ग लोक से अमृत घर लेकर पहुँच गए। और सौदा करते हुए बोले मुनिवर आप राजा परिक्षित को बनाने के लिए यह अमृत घर ले लिजिये और बदले मे हमें कथामृत का दान दीजिए। दावो पर हंसते हुए मुनि बोले काघ और कंचन में अदला-बदली कैसी? कहाँ यह अमृत और कहाँ यह भगवदीय कथमृत।

इस मकारा के पीछे निश्चय ही यह धारणा रही होगी कि अमृत तो खारे सागर से उत्पन्न रस है इसमें खारा पन का कुछ रस तो बचा ही होगा। दूसरी बात यह छीना-झुटी से बचा अमृत है। राक्षसों को वंचित कर संचित ईष्या-वेष समन्वित इस अमृत मे वह स्वाद-प्रभाव कहां जो वेद-पुराण से उदभूत भगवतकथामृत मे है। यह भक्ति रस पूरित कथा मनुष्य को ईष्या द्वेष से उपर उठाती है किसी को वंचित नही करती और न कुछ संचित करती है। यह तो सबको प्रेमसुधा रस बांटती ही रहती है। अमृत गले से नीचे उतर कर चूक जाती है, प्रभावहीन हो जाता है, स्वाद रहित हो जाता है, कथारस भीतर उतरकर तर कर देता है। देह-गेह बिसारकर भक्त सांई का सुमिरण करता कराता रहता है।

सब रग तमत रबाब तन बिरह बजावै नित्त।
और न कोई सुन सके, कै साईं के चत्त।।

कई मायने मे कथामृत अपनी श्रेष्ठता का इजहार करता है। इसमे मन को बांधने की ताकत होती है। रमाने की औकात होती है। झरने की तरह प्यास बुझाने की सामर्थ्य होती है। बादल की तरह भिगोने की सहज परोपकारी होती है। यह एक साथ कई इन्द्रियों को बाँधती है। ऐसे गुण उद्द्दि अदभूत् अमृत मे कहाँ? उसे तो एक बार पी कर आदमी निश्चिंत हो जाता है। अमरत्व के अंहकार से भर जाता है। इतना ही नही कथीमृत कई रसो का रसायन होता है। इसमें हृदय दहलाने-सहलाने और दुबोने-उबारने एख से बढ़कर एक प्रसंग होते है, लीलाचरण के अध्याय होते है जो कई तरह से विभोर करते है। यह खूबी अमृत मे कहाँ। वह घर रीत सकता है पर कथा सागर तो अथाह है। कथा के कारण ही सूर के गीत से ज्यादा तुलसी के दोहे-चौपाई जन-जने को समोते है। दूर तक खींचते है। सूर के गीत भी लीला संदर्भो के कारण कदाचित अन्यों की अपेक्षा ज्यादा रमाते है।

दरअसल भगवदीय कथा की बात ही कुछ और है। यही कथा कथा है, बाकी सब व्यथा है, क्योकिं यह भक्ति रस से सिक्त होती है और भक्ति श्रद्ददा विश्वास और प्रेम के भाव संमिश्रित होते है जो व्यक्ति को मम ममेतर से मुक्त करते है मुक्तदशा में न कोई चाह शेष रह जाती है और न चलने के लिए राह। संदेह मिट जाते है, तर्क गल जाते है। ज्ञान का जाल मिट जाता है। जिस मुक्ति के लिए मुनिगण जन्म-जन्म जतन करते रह जाते है, पंडित वृंद पोथी पढ-पढ कर थक जाते है, ुस परम को बिना किसी विशेष यम नियम और धरम-करम के भक्त पा लेता है। प्रभु को अपने भीतर पधरा लेता है-सारे संतो का एक ही मत है
पायो जिन राम, तिन प्रेम ही सो पायौ है।

नृगां जन्मसहस्त्रेण भक्तौ प्रीतिर्हि जायते।
कलौ भक्तिः कलौ भक्तिर्भक्त्या कृष्ण पुरः स्थिर्तिः भागवत 1-2-19

अर्जुन भगवान के अत्यन्त प्रिय पात्र थे अपने सखा के श्रेय के लिए गुहृय गीता ज्ञान का आख्यान उन्होनें किया। उन्हें ज्ञान योग और कर्म योग के अनेक बुझौवल बुझा लेने के बाद, फेंट-फेंटकर गुह्यादगुह्यतर ज्ञान दे लेने के बाद श्री कृष्ण ने अपने दिव्य रुप की झाँकी दिखाई। इस झाँकी से संभवतः अर्जुन का मन और चकरा गया। गीता के 18 अध्याय के 6 सौ 86 श्लोक भी चक्कर दूर नही कर सके तो श्री कृष्ण ने सौ बातो के लिए एक ही बात कही- प्रिय अर्जुन तू अपने मन को मुझमे रमा दे, मेरा भक्त बन जा, मेरी पूजाकर, मुझे प्रणामकर मुझमे समा जायगा, समझ जाएगा।
मन्मना भव मदभक्तो मव्याजी मां नमरकुरू।।
मामेवैष्सि सत्यं ते प्रति जाने प्रियोश्सि में।। 18 1165

वस्तुतः सोचकर देवों तों ज्ञान की कोई सीमा नही है शब्द शास्त्र अनन्त है। अनेक वेद-पुराण है, बाईबिल-कुराण है शास्त्र स्मृति है, अनेक ऋषि-मुनि और महापुरुष के वचन- प्रवचन है। किसको माने किसे नही, यह पचड़े का विषय है इसलिए इस प्रषंच से निजात पाने के संत पते की बात कानों मे कहते है।

भगति भजन हरिनाम है, दूजा दुख अपार ।।
मनसा बावा कर्मना कबीर सुमिरन सारे।।

सच मे सुमिरन सार है सुबदन को सार समझने वालों कोयह बात सारहीन लग सकती है परन्तु अद्वैत वेदान्त के चूड़ान्त ज्ञानी आचार्य़ शंकर भी अन्त मे सुमिरन के लिए आदेशात्मक राय देते हैं।

भज गोविन्दम् भजगाविन्द भज, मुढमते। क्योकि वे जानते है भजन भक्ति के सारे भाव समा जाते हैं। सारे ज्ञान-विज्ञान क्रिया अनुष्ठान तिरोहित हो जाते है, निराकार आकार पा जाता है निंरजन लीम्बुज श्यामल बनकर नयन मे रच जाता है। वह ऐसा अनुरुब रुप पा जाता है कि देखने वाले ठगा-सा रह जाता, जीने मरने लगता है जीयतमरत झूकिं झूकिं परत जेहि वितवत एकबार, तन यमुना तट हो जाता है और मन वृंदावन। लोक लाज छोड़कर कुल कानि को ताक पर रखकर गापियां इन्द्रियाँ रास मे रम जाती है। मीरा लागी लगन मे मगन हो जाती है चित्र द्रवित हो उठता है, विभोर हो जाता है और पोर-पोर महारास में सराबोर होने लगता है और भुवन धन्य हो उठता है।

ताग, गदगदा, द्रवते यस्य चिद्तं रुदत्यभिक्ष्णं हसति क्वच्चिद
विलन्ज उदगायेति नृत्यते च मद् भक्तितयुक्तः भुवनं पुनाति, भागवत 11/14/24

सोचकर देखें तो पता नही चलेगा कि ज्ञान की कोई सीमा नहीं है। यह पूरी तरह व्यक्ति आश्वस्त भी नहीं कर पाता जबकि भक्ति के आते ही आशवस्ति मिल जाती है। यह जीवन का बीमा है। पोषण है। अनुग्रह है। लोकसंग्रह है। भक्ति का ना कोई शास्त्र है और तर्क जाल है। नारद मुनि ने भी भक्ति के शास्त्र नही सूत्र दिये हैं, जिन सूत्र को गहकर व्यक्ति आसानी से अंधकार को पार कर सकता है। भक्ति तो गीत है, दीवानगी है, अश्रु है, अनुराग है, जीवनोत्सव है, इसलिए दुनियादारी एक किनारे करके मीरा गाती है, नाचती है और गिरिधर के रंग में रंग जाती है। सूर सूरसागर में ऊभचूम करने लगते है। तुलसी की भक्ति का मन जब “मानस नहीं” भरता तो वह कवितावाली-दोहावली गाने लगता है भक्ति में निहित इसी मस्ती को छानने के लिए भक्त गण राज पाट धन-दौलत यहां तक कि मुक्ति भी नकार कर भक्ति की मांग करते है। हनुमान जी की यह दशा है कि जहाँ रघुनाथ की गाथा गाई जाती है वहाँ वे अश्रु छलकाते उपस्थित रहते हैं। भक्तिस्वरुपा माता सीता ने भी हनुमान जी को वरदान देते हुए कहा था कि “तुम पर रघुनाथ जी नेह की वर्षा करते है”।

भक्ति लगी की वस्तु है। लगी नहीं कि समझिये ज़िंदगी तर गी, विहाल हो गई। सारी भाव बाधा दूर हो गई इसमें राधा माधव हो जाती है और माधव राधा। भक्त ज्ञान का पहाड़ा भूलकर प्रेम का पाठ पढ़ने लगता है और वह पोथी नहीं ढाई आघर पढ़ता है और सब कुछ पा जाता है।

“हहिहिं साध्यते भक्त्या प्रणामं तत्र गोपिका”

की पहली शर्त ज़रूर है, किन्तु रिरियाहट उसकी नियति नहीं। वह रिरियाती नहीं, वह पुकारती है। यही प्रकार भजन-कीर्ति और अजान होती है जो आराध्य को चाहे वह जिस किसी बाल में हो खींच लाती है। द्रौपती ने पुकारा, कृष्ण चीर बन गए। गज ने पुकार, गंडक तीर पहुँच गए। मीरा ने पुकारा उसके एक तारा बन गए। जब सूर से बाँह छुड़ाकर भागने लगे तो सूरदास रिरियाये नहीं। अपितु ललकारते हुए कहा –

“बाँ छुड़ाये जात हौ अबल जानि के महि।
हृदय से चले जाव तो मर्द बखानौ तोहीं।।”

भक्त के आत्मनिवेदन और विनय में रिरियाहट नहीं होती आत्मविश्वास, श्रद्धा और अनुराग होते हैं। उसी अनुरागवश वासुदेव हो जाते हैं। कभी उखलन में बँध जाते हैं। कभी गाय नचाने लगते हैं। चराने लगते हैं तो कभी माखन चोरी के लिए पकड़े जाते हैं। धन्य है भक्त और वृंदावन जो भगवान सहित भक्ति को भी नचाते हैं –

“वृंदावनस्य संयोगत्युनस्त्वं तरुणी नवा।
धन्यं वृन्दावनं तेन भक्तिर्नृत्ति यत्र च्।।” – 1-1-96

यही कारण है कि भगवान अपना अपमान सह सकते हैं किन्तु भक्तों का नहीं अपना वचन छोड़ सकते हैं, किन्तु भक्त को दिए हुए वचन को हर हाल में निभाते हैं। वे बैकुण्ठ को छोड़ सकते हैं परन्तु भक्त के हृदय निवास नहीं।

“नाहं वसामि बैकुण्ठे, योगिनां हृदयेषु च मत भक्ताः यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद।।”
ज्ञान और वैराग्य भक्ति के आत्मज हैं। भक्ति के आते ही व्यक्ति को संसार का वास्तविक ज्ञान असली तात्पर्य भासित हो जाता है। यह ज्ञान तर्क-वितर्क, वाद-वितंडा से कम और श्रद्धा-विश्वास से अधिक जुड़ा होता है। मतवाद नहीं, संवाद होता है। विराग के भीतर भी परमात्मा का – इन दोनों से भक्ति पुष्ट होती है। ह भी ध्यान रहे कि भक्ति तर्क को एकदम से नहीं अस्वीकारती। अंध श्रद्धा, अन्ध विश्वास, सकाम प्रेम भक्ति के स्वरूप में शामिल नहीं। भव को बंधन समझकर रस्सी तोड़ाकर पर्वत पर भाग जाना, धुनी रमाना, माया के भय से भाग खड़े होना, ये भक्ति के भाव नहीं हैं। वह जीवन को इंच-इंच स्वीकारती है, जीती है – उत्साह से जीती है, कण-कण में सीयाराम के दर्शन करती है। प्रणाम करती है और उदास निराश चेहरे पर मुस्कान बिखेरती है। वह ज्ञान की तरह स्थितप्रज्ञ नहीं रहती। वह हर रंग को , हर मौसम को अहोभाव के साथ स्वीकारती है और शरद की ज्योत्सना और वृंदावन जैसी जगह, अनुकूल काल स्थान पाकर नाचने लगती है। सुख-दुख को ईश्वर की ही देन समझकर भोगभाव से स्वीकारती है। वह भागती है आडम्बर से, चाहे वह अनुष्ठान का आडम्बर क्यों न हो। वह परहेज करती है, पुरोहिताई से, क्योंकि भक्ति भगवान से सीधा-सीधा साक्षात्कार चाहती है। सम्पर्क चाहती है, संवाद चाहती है। वह किसी को बीच में लाना पसंद नहीं करती। पुरोहित बिचौलिया होता है। क्रियाकांड में भरमाता है। राम में सीधे रमने के लिए अवसर नहीं देता। द्रावीड़ प्राणायाम कराता है। “हरितालिका में जो नारी व्रत नहीं करती वह अमुक दोष से ग्रस्त हो जाती है।जो लोग नरक निवारण चतुर्दशी नहीं करते वे कुंभीपाक नरक में जाते हैं।” परन्तु भक्ति तो सीधे-सीधे कहती है जो हरि को भजता है वह हरि का हो जाता है। वह कभी नहीं पछताता।

भक्ति मिथ्याचार और चमत्कार से भयभीत रहती है। चमत्कारी स्वामियों से कोसों दूर रहती है। चमत्कार के चक्कर में स्वामी पड़ सकते हैं परंतु गोस्वामी नहीं। गोपियाँ कभी कृष्ण के चमत्कारों से अभिभूत नहीं हुईं। वे तो उसके वंशी वादन से, नर्तन से विबोर होती थीं, रास से रसमय होती थीं, उसकी सहजता पर रीझती और कुटिलता पर खीझती थीं। भगवान का भी यही हाल था, तभी तो आज भी हंसुला की सदा कगरी को कंजन की छैंया को मटकी के माखन को नहीं भूल पाये। राम हनुमान के अदभुत करतब के ऋणी नहीं बनते अपितु उनके निरभिमान भक्ति व्यवहार के ऋणी हो जाते हैं। उनके सहज स्नेह पर वे बेमोल बिक जाते हैं। जब राम हनुमान से कहते हैं कि मैं तेरा प्रतिउपकार नहीं कर सकता, तेरे ऋण का चुकारा नहीं कर सकता, तब हनुमान जी प्रशंसा की इस बड़ी आँधी में भी आन्दोलित नहीं होते और कहते हैं “प्रभु यह सब आपकी कृपा का प्रताप है, वरना इस डाली से उस डाली कूद करने वाले बंदर की औकात ही क्या है ?” इतना नहीं वै प्रभु प्रशंसा से अकुला जाते हैं। बोझ सम्हाल नहीं पाते और श्रीराम के चरण पर प्रेमाकुल होकर गिर पड़ते हैं –

“सुनि प्रभु वचन बिलोकि मुख, गात हरषि हनुमत।
चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत।।” – सुंदर कांड 32
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11. अपवित्रो पवित्रो वा




बहुत छुटपन से इस मंत्र को सुनते और इससे जुड़े पूजन-विधान को सुनते-देखते आ रहे थे –

ऊँ अपवित्रो पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोsपिवा।
यः स्मरेतपुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः।।

पिताजी नित्य पूजन प्रारंभ करने से पूर्व इस मंत्र को पढ़कर ‘विष्णु र्विष्णुर्हरि हरिः’ कहते व जल छिड़कते हुए देह, पूजन द्रव्य एवं भू शुद्धिः करते थे। आज स्वयं नित्य-पूजन अनुष्ठान करने के पूर्व उक्त श्लोक का उच्चारण करता हूँ – टेप की तरह औरशुद्धता का कर्मकाण्ड पूर्ण कर लेता हूँ – सोचविहीन क्रिया की तरह। इस क्रिया के द्वारा बाहर भीतर से कितना पवित्र हो पाता हूँ, वह तो हरि जाने, परन्तु अब जबकि सोचने की उम्र को जी रहा हूँ तब कभी-कभार बाबा तुलसी से बतियाते और भागवत के आंगन में रमते हुए लगता है कि सच में हरि का स्मरण पूजन पूर्व विधान ही नीहं, विश्वास भी है। भाव-कुभाव से सोच-असोच से जैसे तैसे प्रभु का स्मरण आत्म अभिषेक है। मल धुले वा न धुले, मंगल का आमंत्रण है –

हरिर्हरति पापानी दुष्टचित्तैपरि स्मृतः। अनिच्छा्याsपि संस्पृष्टो दहत्येव हि पावकः।
अज्ञानादथवा ज्ञानादुक्तमश्लोकानाम् यत्। सङकीर्तनमघं पुंसो दहेदेधोयथानलः।।
यथागदं वीर्यतममुयुक्तं यहच्छ्या। आजानतोsप्यात्मगुणं कुर्यान्मन्त्रोsप्युदाहृतः।।
- भाग 6-2-18-19

तात्पर्य स्पष्ट है। हरि का गुणानुवाद इच्छा या अनिच्छा के साथ किया जाये, वह मन के मैल को जला डालता है – जैसे आग ईंधन को। जाने अनजाने अमृत पीने पर अमरत्व तो मिलता ही है। मंत्र चाहे जाने-अनजाने में उच्चरित हो, वह निष्फल नहीं होता। राम-कृष्ण नाम तो महामंत्र है।

अतिरिक्त श्रद्धावश विशाल बुद्धि व्यासदेव ने यह बात नहीं कही है। महाभारत जैसे महानग्रंथ लिखकर जब वे आत्माराम न हो सके, अकृतार्थता उन्हें सालती रही तब वे नारद के सदपरामर्श से हरि स्मरण के ग्रंथ भागवत-रचना में रमे और कृतार्थता की प्राप्ति हुई। महाभारत की मार-काट, कुटिलता, द्वेष-दंभ, छल-कपट ने तो उनकी शांति चौपट कर दी थी। गुहा निवासी धर्म की गुत्थी सुलझाते-सुलझाते वे स्वयं अशान्त से रहे। शांति, संतोष, आनन्द, कृतकृत्यता तो उन्हें भक्ति काव्य श्रीमदभागवत से मिले। अतः भागवत व्यासदेव के अनुभूत का आख्यान है, अतिरिक्त श्रद्धा या भक्ति का भावावेश नहीं। आप भी आजमा सकते हैं।

पवित्रता का एकमात्र स्नान है। मलापकर्षण का नाम स्नान है। मल चाहे देह का हो या मन का, वह स्नान से ही धुलता है। मंत्र स्नान, भौम स्नान, अग्नि स्नान, वायव्य स्नान, दिव्य स्नान, वारुण स्नान और मानस स्नान –

मान्त्रं भौमं तथाग्नेयं वायव्यं दिव्यमेव च।
वारुणं मानसं चैव सप्त स्नानान्यनुक्रमात्।।
आपो हि षष्ठादिभिर्मान्त्रं मृदालम्भस्तु पार्थिवम्।
आग्नेयं भस्मना स्नानं वायव्यं गोरजं स्मृतम्।।
यत्तु सातपवर्षेण स्नानं तद् द्व्यमुच्यते।
अवगाहो वारुणं स्यात मानसं ह्यात्मचिन्तनम्।।

‘ऊँ अपवित्रो पवित्रो वा’ यह मानस स्नान है। आभ्यन्तर का अभिषेक है। हरि स्मरण का आग्रह है। आत्म चिंतन है। यही वास्तविक स्नान है। देह शुद्धि जन्म से हो जाती है, परन्तु आत्म-शुद्धि के लिए मानस चिंतन अनिवार्य है। माया की नगरी में चाहे जैसे भी सयाने आयें, बेदाग नहीं बच सकते। कबीर जैसे सयाने संत ही दावा करसकते हैं कि उन्होंने चदरिया ज्यों की त्यों धरदीनी। फिर भई वे माया का लोहा मानकर कहते हैं कि ‘राम चरण’ में रति होने से ही गति मिल सकती है –

राम तेरा माया दुंद मचावे।
गति-मति वाकी समझि परे नहिं, सुरनर मुनिहि नचावे।
अपना चतुर और को सिप्ववै, कामिनि कनक सयानी।
कहै कबीर सुनो हो सन्तों, राम-चरण रति मानी।

पूजा बर बाठा रहता हूँ और मन में माया द्वन्द्व मचाती रही ती है। घरु, मिट्ठ, करु – दुनियाभर की बातें मन को नचाती रहती हैं और मन को तो नाच पसन्द ही है। पूजा के बीच में कुछ सोच बैठता हूँ। बोल पड़ता हूँ। संदीप टोक देता है – “बाबूजी ! पूजा कीजिए, बाकी बात बाद में।” झेंपता हूँ। चित्त को मोड़ता हूँ – हरि स्मरण की ओर। पुण्डरीकाक्ष का स्मरण मान स्नान जो है –

अतिनीलघनशामं नलिनायतलोचनम्।
स्मरामि पुण्डरीकाक्षं तेन स्नातो भवाम्यहम्।। - वामनपुराण

अर्थात् नीलमेघ के समान श्यामल कमल लोचन हो जाता है। हरि का स्मरण कर व्यक्ति नहा जाता है, पावन सोचू उम्र और पंडितम् मन्य प्रवृत्ति। छोटी सी बात विचार का विषय बना लेती है।पद-पदार्थ पर आगे-पीछे विचार करने लगती है। मामंसक की तरह बाल की खाल निगालने लगती है। जबकि दास कबीर ठौका बात कह गये हैं कि पंडित बनने के िलए प्रेम का ढाई आखर ही पर्याप्त है, परन्तु ‘संसकिरत भाषा पढ़ि लीन्हा, ज्ञानी लोक कहो री’ इस गुमान को गौरवान्वित करने सोचू मन उपर्युक्त मंत्र श्लोक की मीमांसा करने लगता है। मीमांसा कहती है कि शुद्ध पवित्र मन से भगवत भजन करने से फल मिलता है, फिर ‘अपवित्रो वा’ पद से ही जब काम चल सकता था, तो ‘सर्वावस्था गतोsपि वा’ पद बंध का विन्यास क्यों किया गया ? जबकि संस्कृत के वैयाकरण अर्ध मात्रा लाघव को पुत्र जन्मोत्सव जैसा आनन्द मानते हैं, तब इस बड़े पदबंधका प्रयोग आनन्द में अवरोध है कि नहीं ?

गहरे पैठकर देखियेतो इस छोटे श्लोक में सारे पद विन्यास सार्थक हैं, चौकस हैं, अर्थानुष्ठित हैं। हरि-स्मरण की सहज महिमा का अवबोधक ये पद साफ-साफ कहतेहैं श्याम संकिर्तन व्यक्ति चाहे बिना नहाये-धोये, मन को भिगोये बिना करें अथवा स्नान ध्यान करके वह बाहरःभीतर से पावन हो उठता है। स्मरण की महिमा ऐसी है कि वह अपवित्र को पवित्र और पापी को पावन बना देती है, स्मरणीय बना देती है। वाल्मीकि इतने डूबे हुए थे कि मुख से सही भगवान्नाम उच्चरित नहीं हो पा रहा था। ‘राम-राम’ के बदले ‘मरा-मरा’ जप रहे थे, परन्तु उल्टा नाम जप कर मभी ब्रह्म समान हो गये। द्रौपदी ने हरि का स्मरण किया। स्मरण करते ही उसका गुमान गल गया, श्याम दौड़ पड़े और वह पावन हो उठी। पवित्र होने के लिए तो स्मरण किया जाता है –

कृष्णेति मङगलनाम यस्य वाचि प्रवर्तते। भस्मीभवन्ति सद्यस्तु महापातककोटयः।।

यहाँ फिर मीमांसा की जा सकती है कि जो अपवित्र है वह हरि स्मरण करे – पवित्र होने के लिए। पवित्रों के लिए जरूरी तो नहीं लगती। दरअसल हरि स्मरण सबके लिए निरंतर जरूरी है। तिरगुन फाँस लिये डोलती माया निरंतर बाँधने के लिए चौकस रहती है। थोड़ा भी लोभ मोह जन्य असावधानी दिखी की वह बाँध लेती है। नारद मुनि से ज्यादा कौन पावन होगा, परन्तु वे भी माया के चक्कर में पड़ गये। नर से वानर हो गये। लोग पवित्र होकर भी पापी हो जाते हैं – पवित्र पापी। गंगा-यमुना नहाने के बाद भी मैं नहीं धुलता। कपड़ा रंगाकर भी मन नहीं रंगता राम में। माला फेरते युग बीत जाता, पर मन का फेर नहीं मिटता। नाम बेचकर साधुता की दुकान चलाते रहते हैं –

भगति विराग ज्ञान साधन कहि, बहुविधि डहकत लोग फिरौं।
सिव सरबस सुखधाम नाम तव, बेचि नरकप्रद उदर भरौं।। - विनय पत्रिका 141

इसीलिए मंत्र कहत है कि पवित्रो हो अथवा अपवित्र प्रभु का स्मरण करते रहो। बाहर-भीतर से पवित्र होते सहे। राम में रमते-रमाते रहे। किसी अवस्था, देश, काल में रहो नाम जपते रहो। पावन हो तो और पावन हो जाओगे। सुंदर हो तो और सुंदर हो जाओगे। भारद्वाज मुनि क्या कम पवित्र थे ? परन्तु आश्रम में राम के पग पड़ते ही और पवित्र हो उठे। पावनता में नहा उठे। कृतार्थ हो उठे।

आजु सुफल तपु तीरथ त्यागू। आज सुफल जप जोग बिराजू।
सफल सकल सुभ साधन साजू। राम तुम्हहि अवलोकत आजू।। अयोध्या कांड 107

भगवान ने अपने स्मरण की छूट तो यहाँ तक दी है कि व्यक्ति चलते-फिरते, उठते-बैठते, सोते-जागते देश –काल के नियम से परे होकर स्मरण कर सकता है। आश्चर्य, भय, शोक, क्षत, मरणासन्न – किसी भी दशा में ईश्वर स्मरण कल्याणकारी है –

न देश नियमो राजन्न काल नियमस्तथा। विद्यते नात्र संदेहो विष्णोर्नामानुकीर्तने।।
आश्चर्ये वा भये शोके क्षवेवा मम नाम यः। व्याजेन वा स्मरेत् यस्तु ययाति परमां गतिम्।।
अपवित्रो पवित्रो वा सर्वावस्था गतोsपि वा। यः स्मरेत्पुण्डरीकाक्षां स बाह्यान्तरः शुचिः।।

गोपियों ने प्रेम से, कंस न भय से, शिशुपालन जैसे राजाओं ने द्वेष से, वृष्णिवंशी यादवों ने संबंध से, पाण्डवों ने स्नेह से और नारद जैसे भक्तों ने भक्ति भाव में डूबकर भगवान का स्मरण किया और सभी प्रभु को पा गये। वैरानुबन्ध से स्मरण तो और भी तन्मय बनाकर पतित को पावन बना देता है, क्योंकि बैर तीव्रता सेदिन-रात बैरी का स्मरण दिलाता रहता है। हाँ, क्षुद्र से बैर ठानने में क्षुद्रता ही हाथ लगती है। अतः रावण-कंस जैसे महान पापियों ने महानाम परमात्मा से शत्रुता करके वे सबके शरण को पा गए। बाहर-भीतर से पवित्र हो गये –

तस्माद् वैरानुबन्धन निर्वैरेण भयेन वा।
स्नेहात्कामेन का युञ्जयात् कथञ्चिन्नेक्षते पृथक्।।
गोप्यः कामाद् भयादकंसो द्वेषाच्चैद्यादयो नृपाः।
सम्बन्धाद् वृष्णयः स्नेहात यूयं भक्तया वयं विभो।। - भागवत 7-1-25-30

10. कृतार्थता की आकांक्षा और भागवत



बरुत नामी, ज्ञानी-ध्यानी, शोहरतशुदा तख्त-ताजधारी व्यक्ति सफलकहला सकता है, समृद्ध और प्रतिष्ठित हो सकता है, पर वह कृतार्थ ही हो सकता है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। सामान्य की बाद जाने दें, विशाल बुद्धि व्यास जैसे मुनि की भारत कौन कहे महाभारत जैसा अदभुत ग्रंथ रचकर – ज्ञान, दर्शन, धर्म का संदोह, वेदोपवृंहणन महान काव्य लिखाकर ही कृतार्थ नहीं हो सके। विश्वास इतना बढ़ गया कि उन्हें लगा कि जो कुछ महाभारत के घट बीत जाने के बाद उनका मन अकृतार्थता के बोध से उदास हो चला। घटनाओं के मलबे से चीत्कार की उठती प्रतिध्वनि उनकी संवेदना को सालने लगी। ध्वंसजन्य सन्नाटा अशांत करने लगा। धृतराष्ट्र, दुर्योधन, द्रौपती, अश्वत्थामा के अंधापन, घमंड, पुकार, कुंठाग्रस्त हिंसा और जीतकर हार गये युधिष्ठिर का बोध, सबसे उपजा सन्नाटा बहुत गहरे उतरकर व्यास की तटस्थता को कुरेद रहा था। धर्म-दर्शन के सारे ज्ञान, विदुर की नीति, कृष्ण-भीष्म जैसे लोगों का होना ही त्रासद यथार्थ को घटित होने से नहीं रोक पाया था। उसकी त्रासदी कदाचित व्यास के कवि हृदय को बेचैन किये बैठी थी। वे अपनी अकृतार्थता को कुछ-कुछ महसूस करते हुए कहते हैं – महाभारत के बहाने मैंने वेदों के अर्थों को खोल दिया ताकि सभी उसका लाभ ले सकें। अपने धर्म-कर्म का ज्ञान प्राप्त कर सकें। यद्यपि मैं ब्रह्मतेज से सम्पन्न एवं समर्थ हूँ तथापि मेरा हृदय अपूर्ण काम-सा जान पड़ता है –

भारत व्यापदेशेन ह्याम्नार्थश्च दर्शितः।
दृश्यते यत्र धर्मादि स्त्री शूद्रादिभिरप्युत।।
तथापि वत में दैह्यों ह्यात्मा चैवात्मना विभुः।
असम्पन्न इवाभांति ब्रह्मवर्चस्य सत्तमः।। - भागवत 1-4-29-3-

व्यास जी अकृतकाम खिन्न हो बैठे थे, तभी नारद जी वहाँ पधारे। कुशल-क्षेम और आतिथ्य ग्रहण करने के बाद कुशल वैद्य कीतरह नाड़ी टटोले बिना चेहरे को पढ़कर ही नारद ने व्यास की अकृतार्थता को पहचान ली। और मानों उनके समग्र ज्ञान की खान महाभारत पर व्यंग्य मुस्कान चस्पा करते हुए वे बोले – महाराज व्यास जी। धर्मादि सभी पुषार्थों से परिपूर्ण महाभारत रचकर आप अपने कर्म एवं चिंतन से संतुष्ट हैं न ? सनातन ब्रह्म तत्व को आपने जान ही लिया है, फिर भी आप अकृतार्थ नर के समान अपने विषय में शोक क्यों कर रहे हैं ? व्यास जी ने स्वीकृति के स्वर में कहा – नारद जी। सच में परब्रह्म और शब्दब्रह्म को जान लेने के बाद ही कहीं कोई कमी रह गई है, जिससे मेरा परितोष अधूरा है। कृपया आप ही इस अधूरेपन का कारण बतायें –

नारद उवाच

पराशर्य महाभाग श्वतः कच्चिदात्मना।
परितुष्यति शरीर आत्मा मानस एव वा।।
जिज्ञासितं सुसम्पन्नमपि ते महदभुतम्।
कृतवान भारतं यस्त्व सर्वार्थपरिबृहितम्।।
जिज्ञासितमधीतं च यत्तदब्रह्म सनातनम्।
अथापि शोचस्यात्मानमकृतार्थ इव प्रभो।।

व्यास उवाच

अस्त्येव में सर्वमिदं त्वयोक्तं
तथापि नात्मा परितुष्यते में।
तन्मूलमव्यक्तमगाथ बोधं
पृच्छामहे त्वssमश्वात्मभूतम्।। - भागवत 1-5-2,3,4,5.

वस्तुतः महाभारत में सब कुछ होते हुए भी वह नहीं है, जो कृतिकार औस उससे साक्षात्कार करने वाले पाठक-श्रोता को कृतार्थ कर सके। माना कि उसमें धर्म, दर्शन, इतिहास वेद की व्याख्या सब कुछ है, परन्तु वह जो प्रभाव छोड़ता है, उसमें सब कुछ दब सा जाता है और उभरकर आती है मृत्यु की त्रासदी, ध्वंस की पीड़ा, मानवी नियति की विडंबना, करुण गाथा। व्यास मुनि जिन मूल्यों को सम्प्रेषित करना चाहते थे, अपने जिन बोधों से संसार को संस्कारित करना चाहते थे, सब हो नहीं पाया, घात-प्रतिघात, दंभ-द्वेष और काल की निर्ममता की गाथा बनकर ही महाभारत रह गया। आज भी महाभारत को लोग न पढ़ना पसंद करते हैं न घर में रखना। यह अकृतार्थता का सबसे बड़ा सबूत है। जो कृति लोक स्वीकृति नहीं पा सकी वह भारत हो या महाभारत वेद हो या पुरण न खुद कृतकृत्य हो सकती है न लेखक को बना सकती है और न लोक को। लोग उसी युद्ध की गाथा सुनना पसंद करते हैं, जो गाथा श्रेय-प्रेय को बढ़ावा देती हो, भाई-भाई के द्वन्द्व और छल-छद्म की नहीं। रोजमर्रा रोज-ब-रोज उ्हें स्वाद्व स्वार्थ-संघर्ष में तो घसीटता ही रहता है। देशी संस्कृति और मानस जीवन के दुखद अंत का अभ्यासी नहीं। इन्हीं सब कारणों से महाभारत और व्यास दोनों उतने लोक स्वीकृत नहीं हो सके जितना वाल्मीकि और उनकीरामयण,तुलसी और उनके ‘मानस’ (व्यास ने यदि श्रीमद भागवत की रचना नहीं की होती तो संभवतः और अलोकप्रिय तथा अकृतार्थ रह जाते। नन्द दुलारे वाजपेयी का मनना है) “महाभारत के गीता प्रकरण में महाकवि ने आँसू पोंछने की चेष्टा न की होती तो उसका अध्ययन करने का साहस एक भी व्यक्ति न कर सकता। उसका अंतिम शांति पर्व तो विकट अशांतकारी है।” – हिन्दी साहित्य बीसवीं शताब्दी पृष्ठ 42

बहस की जा सकती है कि महाभारत में भी तो कृष्ण हैं ही। उनके बिना महाभारत कैसा? रामायण या मानस में राम हैं, तो महाभारत में कृष्ण, फिर व्यास को कृतार्थता क्यों नहीं मिली ? कृतार्थ होने के लिए क्या जरूरी है कि भगवान की चर्चा और अर्चा की जाए ? बहस तर्क आश्रित होती है और तर्क का कोई अन्त नहीं। नारद जी साफ-साफ व्यस जी से कहते हैं कि आपने भगवान के निर्मल यश का गान प्रायः नहीं किया है। मेरी ऐसी मान्यता है कि जिससे भगवान संतुष्ट नहीं होत, वह शास्त्र और ज्ञान अधूरा है। आपने वासुदेव की महिमा का वैसा वर्णन नहीं किया है जैसा धर्म आदि पुरुषार्थों का। जिस वाणी से श्रीकृष्ण का गुणगान नहीं होता वह कौओं के उच्छिष्ट अन्न फेंकने के स्थान जैसा अपावन होता है, वहाँ हंस नहीं जाते –

भवानुदितप्रायं यक्षो भगवतो मलम।
येनैवासौ न तुष्येत मन्ये तददर्शनंखिलम्।।
यथा धर्मादयाचार्था मुनिवर्यानुकीर्तिताः।
न तथा वासुदेवस्य महिमा ह्युनुवर्तितः।।
न यद्वचश्चित्र पदं इर्श्यशो जगत्पवित्रं प्रगृणीतकीर्जित।
तदवायसं तीर्थमुशन्ति मानसा न यत्र हंसा निरमुन्त्यशिक्क्ष्याः।।

- भाग 1-5, श्लोक 8-9-10

तुलसीदास बी प्रकारन्तर से इसी बात का समर्थन करते हैं –

किन्हें प्रकृतजन गुनगाना। सिर धरि गिरा लगी पछिताना।।

यहाँ फिर बहस को बढ़ाई जा सकती थी कि भगवान का गुणगान ही क्या वाणी की धन्यता केलिए जरूरी है ? फिर सदियों से इतने काव्य क्यों लिखे जा रहे हैं ? फिर तो कुरान, पुराण, बाइबिल लिखे जाने के बाद शेष की जरूरत ही नही थी। ऐसी बात नहीं है। दरअसल भगवान के गुणों के बखान और यश के कीर्तन से तात्पर्य मनुष्य के ही उन मूल्यों और कर्मों का कीर्तन करना है, जो लोक-परलोक को साधने के लिए जरूरी है। सत्य, शील, सौन्दर्य और शक्ति के पर्याय का नाम भगवान है। परोपकार, दया,दान आदि धर्म के समस्त मान मूल्यों का आचरण भगवान के गुणों का गान है। मनुष्य बेहतर दशा दिशा प्रदान करने एवं उसे नर से नारायण बनाने के लिए नारायण विविध रूपों में अवतरित होते रहते हैं, वरना, क्या जरूरत है उस अनादि अनन्त अजन्मा को यहाँ अवतरित होने की। वस्तुतः प्रत्येक के भीतर बसेवासुदेव जिस शास्त्र या रचना विधान से प्रसन्न नहीं होते, वह अधूरा है। जिस कला या ज्ञान के द्वारा लोकसंग्रह यालोक मंगल की श्रीवृद्धि नहीं होती, वह कृतार्थता नहीं दे सकती। महाभारत की नियति ऐसी ही रही। युधिष्ठिर जीतकर भी हारे हुए लगते हैं और भीष्म इच्छा मृत्यु का वर पाकर भी अभिशप्त। शर शय्या पर महीनों सोते रहने के लिए शापग्रस्त/ द्रोणाचार्य का गुरुत्व ग्लानि में डूबा हुआ है। व्यास इतना महान ग्रंथ रचकर भी अकृतार्थ हैं, क्योंकि यह रचना लोगों को रच नहीं सकी। युधिष्ठिर जैसे धर्मधुरीण स्वर्ग में भी पहुँचकर दुर्योधन को सुख मनाते और अपने भाइयों को दुःख से हाय-हाय करते देख अड़ गए कि उसे भाइयों के साथ नरक में रहना पसंद है, पर यहाँ नहीं। येसब अकृतार्थता के सबूत हैं। शून्यता के प्रमाण हैं।

तुलसी वाल्मीकि व्यास सबेस कृतार्थता के तत्व को लेकर मानस की रचना करते हैं। वे उन तत्वोंको छोड़ते चलते हैं जो जो वास्तव होकर भी लोक के मूल्वान नहीं होते/कृतार्थ करने के योग्य नहीं होते। सीता निर्वासन के प्रसंग को तुलसी पूरी तरह छाँट देते हैं, क्योंकि वह प्रसंग लोक को अब भी सालता है, करुणा को भी करुणा से भर देता है। महाभारत भाई-भाई के बीच मरणोपरान्त भी बैर को शमित नहीं करपाया। राज्य की खातिर बंधुता को नष्ट करता है, जबकि मानस यारामायण बंधुता की खातिर राज्य का त्याग करना सिखाता है। बड़ी से बड़ी कुर्बानी देना सिखाता है। भ्रातृ प्रेम को केन्द्रस्थ भाव मानता है, यही कारण है कि ’मानस’ की चौपाई मंत्र बन गई और महाभारत के श्लोक पुण्यश्लोक नहीं बन पाये। व्यास देव भी महाभारत के प्रसंगो को एकदम काट-छाँट करते हैं, अनुच्छेद परिवर्तन भागवत जैसे काव्य ग्रंथ रचनाकार को सच में कृतकृत्यता देते हैं। जहाँ प्रेम ही प्रेम हो वहाँ ईर्ष्या-द्वेष, संगर्ष, दंभ-अहंकार, लोभ-मोह जैसे अशांत करने वाले भाव कैसे टिक सकते हैं। यहाँ दया, उदारता, परोपकार, दान, धर्म, नियम-संयम जैसे दैवी गुणों का गान है – मानव को देव बनाने के लिए। प्रीति की रीति है – रमणीय में रम जाने के लिए। राधा भाव है – माधव बन जाने के लिए। भक्ति भाव है – सभी धर्मों से ऊपर, कुल कानि जाति-पांति की बड़ाई से बड़ा साझा भाव। रास है, जिसमें रास बिहारी का निवास है (रसौ वे सः) जहाँ रासेश्वर स्वयं बंशी बजाते, नाचते हैं और भक्त के साथ-साथ भक्ति भी नाच उठती है। वहाँ कृतकृत्यता दूर कैसे रह सकती। ये तो ऐसे भाव हैं जो दूर खड़े को भी पास खींच लेते हैं, रमा लेते हैं, समा लेते हैं।

भागवत में उन भावों का व्यास ने परित्याग कर दिया है, जो उन्हें महाभारत में थका चुके थे, आकुल कर चुके थे। कृष्ण जैसे को भी कपट और क्रूरता के लिए विवश होना पड़ा था। विदुर की उपेक्षा और भीष्म की अनसुनी कर दी गई थी। वे इसमें कौरवों के युद्धोन्माद और पांडवों की युद्धोन्माद में शामिल होने की विवशता के वर्णन से बचते हैं और त्रासद घटनाओं का उल्लेख भर करते हुए आगे बढ़ जाते हैं। वे महाभारत की तरह धर्म क्षेत्र कुरुक्षेत्र में लहुलुहान होती मानवता को नहीं देखना चाहते, धर्म की गुहा में मनुष्य को उलझाना नहीं चाहते हैं। वे भक्ति भाव में सबको सराबोर करना चाहते हैं। कृतकृत्य होना चाहते हैं। भागवत की शरुआत में ही वे भक्ति को परमधर्म मानते हैं और वासुदेव में सबका वास-समाहार –

स वै पुंसां परो धर्मो यतो भक्तिरधोक्षजे।
अहेतुक्यप्रतिहता यया त्माssसम्प्रसीदति।।
तस्मादेकेन मनसा भगवान सात्वतां पतिः।
श्रोतव्यः कीर्तितव्यरच ध्येयः पूज्यश्च नित्यदा।।
यदनुध्यसिना युक्ताः कर्मग्रन्थिनिबन्धनम्।
छिन्दन्ति कोविदास्तस्यकोनु कुर्यात् कथारतिम्।।
वासुदे परा वेदा वासुदेव परामखाः।
वासुदव परा योगा वासुदेव परा क्रियाः।
- भागवत 1-1-6,14,15,28

व्यथा कथा के भवजाल में फँसनेके बजाय व्यासजी की अकृतार्थता अपनी कृतार्थता के लिए वासुदेव-कथा-रति को ही अपनी गति बनाती है और भटकाव से बचने के लिए भागवत रचना के दस प्रस्थान बिन्दु निर्धारित करती है –

अत्र सर्गो विसर्गश्च स्थानं पोषणमूतयः।
मन्वन्तरेशानकथा निरोधो मुक्तिराश्रयः।।

ऐसा सोचना भूल है कि व्यासदेव महाभारत कथा से आकुल-व्याकुल होकर भागवत-कथा में पलायन कर गये। पलायन तो इस देश ने कभी सीखा ही नहीं। न प्रेम जीवन के संघर्ष से पलायन है, भक्ति। भक्ति तो वह शक्ति है जो व्यक्ति को टूटने से बचाती है, बैकुंठ बनाती है, जीवन जीने में रसप्रदान करती है। भगवान कृष्ण की रणछोर उपाधि पलायन नहीं, अपितु पैंतरा बदलकर दुष्ट दलन और सज्जन रक्षण के एक उपाय का पर्याय है। सब धर्मों-प्रपंचों का पूर्णविराम है भक्ति। अतः इसी भक्ति को भागवत के केन्द्र में प्रतिष्ठित कर व्यास स्व और पर को कृतकृत्यतो छकककर परोसते हैं। राधा-माधव गोपिकाओं में डूबते-डूबते हैं। माधव यदि रसमय विग्रह हैं तो सोलह हजार गोपिकाओं की राशिभूत पीड़ा की पर्याय राधा मिठासमय प्राण रासेश्वरी –

सोलह सहस पीर तर एकै
राधा कहिए सोई।

राधा रासेश्वरी की आह्लादिनी शक्ति है। महाभाव रूपा। आधा प्रकृति। नितय् लीला सहचरी। आह्लाद महाभाव से भावित प्रेम परिपूर्ण लीला का काव्य भागवत, जो विद्वानों और श्रोताओं को एक साथ आह्लादित करता है, राधा-माधव भाव से भावित करता है, सच में कृतार्थता का काव्य है। यहाँ कर्म है तो समर्पण लिये, वैराग्य है तो अनुराग लिये, वध है तो उद्धार के लिए – वध किया ही जाता है लोक उद्धार के लिए। आकुल करने वाली कथा का संदर्भ देकर लीन करने वाली कथा-लीला का गायन है। यहां कुरुक्षेत्र और द्वारका का उतना महत्व नहीं है, जितना ब्रज रेणु-धेनु गोपी-ग्वाल का है। रसराज श्रृंगार से सिक्त माधुर्य गुण से मधुमय सख्यभाव का यह काव्य किसे कृतकृत्य नहीं करता ? ज्ञान यहाँ गदगद हो जाता है। विश्वास न हो तो उद्धव जी से पूछ लीजिए, थोड़ी देर के लिए गोपी-ग्वाल बनकर देख लीजिए। बारह स्कन्धों में रचित भागवत का दशम स्कन्ध जो कृतार्थता का मूल स्रोत है, पूरे भागवत के एक तिहाई से भी ज्यादा भाग में फैला हुआ है। भागवत का सार है। जैसे तुलसी हृदयस्पर्शी प्रसंगों का, तल्लीन करने वाली लीलाओं का रम-जमकर वर्णन करते हैं वैसे ही व्यासदेव दशम स्कन्ध की लीलाओं में लीन से हो गये हैं। लीला वर्णन करते-करते लीलामय हो गये हैं।

इस दशम स्कन्ध को रचते-रचते व्यास देव स्वयं रच गये हैं। श्रद्धालु सुनते-सुनते गदगद हो जाते हैं। इस स्कन्ध की वाणी धन्य हो जाती है। प्रकृतजन अपने ही भावों का गुणगान कृष्ण लीला गान को मानकर तृप्त हो जाते हैं। यहाँ मैं ‘हम’ में समा जाता है, स्वार्थ परमार्थ के लिए समर्पित हो जाता है। महाभारत की तरह रिक्तता, खीझ, त्रास, करुणा और धर्म का उलझाव नहीं है। द्रौपदी धर्मवृंद सभासदों से सवाल करती है कि जब मेरे पति युधिष्ठिर मुझे दांव पर चढ़ाने से पूर्व अपने को ही हार चुके थे, फिर मुझे दांव पर कैसे चढ़ा सकते थे ? और यदि एक हारे हुए जुआरी के द्वारा मैं दांव पर चढ़ा भी दी गई, तो क्या मैं दुर्योधन की दासी बन गई ? धर्म धुरंधर भीष्म ‘धर्म की गति बड़ी सूक्ष्म है’ कहकर उलझा सा जवाब देकर चुप हो गये। ज्ञानवृंद द्रोण चुप्पी साध गये। धर्मावतार युधिष्ठिर का वाक बंद हो गया और भरी सभा में – अपने ही लोगों के सामने अपनों के ही द्वारा ऐसी अपमानित होती रही, जिसका घाव आज तक हरा है, भरा नहीं है। नारी जाति आज भी द्रौपदी के अपमान से चीख पड़ती है। अनेक घटनाएँ, जिनकी याद भूल से भी आ जाती है तो मानवता काँप और कचोट उठती है, महाभारत से कृतार्थता पाने का सवाल ही नहीं उठता। विदुर जी मैत्रेय ऋषि से कहते हैं – “हे ऋषि। व्यास जी के मुख से ऊँच-नीच वर्णों के धर्म कई बार सुन चुके हैं किन्तु अब कृष्ण कथा रूपी अमृत प्रवाह को छोड़कर अन्य स्वल्प सुखदायक धर्मों से मेरा मन ऊब गया है।” –

परावेषां भगवन् व्रतानि श्रुतानि मे व्यसमुखादभीक्षण्।
अतृप्नुमः क्षुल्लसुखावहानां तेषामृते कृष्णकथामृतौदात्।।
- भागवत 3/5/10

विनम्रता के अनुपात से अनुप्रेरित व्यास ने प्रभु से कहा था – “हे जगत के गुरुदेव। आप अरूप हैं, फिर भी ध्यान के द्वारा मैंने महाभारत आदि ग्रंथ में आपकी बहुशः रूपकी कल्पना की है, रूप में बाँधने की कोशिश की है, आप निर्वचनीय हैं, व्याख्याओं द्वारा आपके रूप को समझ सकना संभव नहीं, फिर भी वचन बाँधने का प्रयास किया है। आप सर्वत्र व्याप्त हैं, तथापि तीर्थयात्रा विधान से आपके उस व्यापकत्व को मैंने खंडित किया है, सीमित किया है। अतः हे जगदीश। मेरी बुद्धिगत विकलता के तीन अपराध – अरूप की रूप कल्पना, अनिर्वचनीय का स्तुतिनिर्वचन और व्यापी का स्थान विशेष में निर्देश – क्षमा करें।” –

रूपं रूपविवर्जितस्यभवतो ध्यानेन यत्कल्पितम्।
स्तुत्या निर्वचनीयता खिलगुरोदूरीकृतायन्मया।।
व्यापित्वं च निराकृतं भगवते यततीर्थयात्रादिना।
क्षन्तव्यं जगदीश, तदविकलता दोष त्रयं मत्कृतम्।।

वस्तुतः विनम्रतावश स्वीकारे गए ये दोष, दोष नहीं, गुण हैं। अरूप को रूप देकर जन-जन में रमाया गया है। जिनका ध्यान योगी भी नहीं साध पाते उन्हें ब्रज रेणु-धेनु के बीच रमाकर सर्वसुलभ बनाया गया है। तीर्थयात्रा को भगवत प्राप्ति यात्राबताकर जन-जन को जोड़ने तथा भूमा बनानेकी कोशिश की गई है। दरअसल भागवत कथा के द्वारा कृष्ण के गुण व लीलाओं का गान वाणी की धन्यता है। अक्रूरजी स्वीकारते हैं कि “जब अखिल पाप विनाशक कृष्ण मंगलमय गुण, कर्म और जन्म की लीलाओं से युक्त होकर वाणी उनका गान करती है, तब उस गान से संसार में जीवन में स्फूर्ति होने लगती है, शोभा का संचार होता है। जिस वाणी से प्रभु का कीर्तन नहीं होता वह मुर्दा वाणी है, व्यर्थ है।” –

यस्याखलामीवहभिः सुमङगलैर्वाचेवि मिश्रा कर्मजन्माभिःय़
प्रणन्ति शुम्भन्ति पुनन्ति पै जगद् यास्तद्विरक्ताः भव भोगना मताः।।
भागवत 10-38-12

9. होने का अर्थ



‘होना’ क्रिया है। है, हूँ, हैं, था, थे, होंगे, हो सकता है, हो सकता था, हो सकेगा, हुआ होता, हो रहा है आदि-आदि होने के बहुत सारे रूपों में आदमी उदय से लेकर अस्त तक होता रहता है। अपने को अर्थवान बनाता रहता है।

शब्दों के अर्थ होते हैं। व्यक्ति व वस्तुके भी अर्थ होते हैं। अर्थ शब्द रहित शब्द शोर है तो होनेपन के अर्थ से रहित व्यक्ति हाड़-मांस का पिंड, गोबर-गणेश, मिट्टी के माधो। मनुष्य मनुष्येतर सृष्टि से इसलिए श्रेष्ठ है कि वह मनन धर्मा है। चेतना का विशिष्ट रूप है। सच्चिदानन्द का विशेष प्रतिरूप है। व्यक्त स्वरूप है। वह निरंतर अपनी सृजनशीलता के विविध रूपों के द्वारा मनुष्येतर सृष्टि से पृथक पहचान बनाता रहता है। अपने होने की सार्थकता की तलाश क्रियाओं के द्वारा करता रहता है। सर्वांगपूर्ण की बात जाने दें, विकल अंग सूरदास गीत से, गूँगा मूर्तिगढ़ के बछरा के चित्र उकेरकर लंगड़ा वाद्य बजाकर भाँति-भाँति से परम रचनकार को और अपने आसपास को अपने होने का प्रमाण देते रहते हैं।

‘होना’ क्रिया पद है। मतलब यह है कि व्यक्ति कर्म के द्वारा अवयक्त की महिमा को प्रकट कर सकता है. अपनी महिमा के प्रकटीकरण के सर्वोत्तम माध्यम के रूप में कदाचित अव्यक्त को ही चुना है। वह अवतरित होकर विविध लीलाओं के द्वारा अपने अवतारत्व का विशिष्ट बोध स्वयं कराता है। दसों अवतार एक जैसे नहीं होते। वह हर युग में अपनी संभवता की अलग-अलग पहचान कराते हैं और मनुष्य रूप धारण करने का अर्थ प्रतिपादित करते हैं। जितने संत और महापुरुण हुए हैं, कोई अहिंसा के, कोई करुणा के, कोई सेवा के तो कोई परोपकार के मिथ बन गए हैं। कवि कोकिल, खेलन कवि के रूप में यदि विद्यापति का काव्य व्यक्तित्व जाना जाता है तो सूर पुष्टिमार्ग के जहाज के साथ-साथ वात्सल्य एवं श्रृंगार के सूर के रूप में। कबीर अपनी पहचान कराते हुए हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में – “ऐसे थे कबीर, सिर से पैर तक मस्तमौला, स्वभाव से फक्कड़, आदत से अक्खड़ भक्त के सामने निरीह, भेषधारी के आगे प्रचंड, दिल के साफ, दिमाग के तुरुस्त, भीतर से कोमल, बाहर से कठोर, जन्म से अस्पृश्य, कर्म से वंदनीय” – कबीर पृ.167

जाहिर है कि अवतार सहित संत साहित्यकार, अन्य महापुरुष सभी, जो गाथा के रूप में गाये जाते हैं और मानवता की उत्कृष्ट पहचान हैं, गौरव हैं, मूल्य हैं, होने के अर्थ हैं, वे सब सीख-संकेत प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से देते रहते हैं कि मनुष्य कर्म से महान बनता है, ‘होने’ पहचान बनता है, जन्म से नहीं। रामचार भाई, थे किन्तु जो राम की पहचान बनी वह दूसरे भाईयों की नहीं बन पायी। जो कृष्ण की बनी वह बलराम की नहीं बनी।

‘होने’ की पहचान सद् और बद दोनों तरह की होती है। बहुतों के आत्मीय, अनुकूल और सहज आकर्षण का केन्द्र बन जाना, मानवता को कृतार्थ करना सद् पहचान के लक्षण हैं। इसके विपरीत बद पहचान के लक्षण हैं। दोनों तरह के लोग मिलते हैं, अपितु दूसरी तरह के लोग गिनती में ज़्यादा हैं। कलियुग और कलयुग के दुष्प्रभाव से बदनाम लोग ज़्यादा मिलते हैं, परन्तु याद रहे गुमनाम से बदनाम अच्छा है। कम से कम बुरे के रूप में ही सही, राम के साथ रावण और कृष्ण के साथ कंस तो याद किये ही जाते हैं। सुबह-शाम यों ही खुद को तमाम करना, रोजमर्रे में अकारथ करना हीरा जनम को मिट्टी पलीद करना है। “उदर भरन कारने जनम गँवायो सारा”। बड़े भाग्य से चौरासी चक्कर लगाने के बाद यह सुर दुर्लभ मानुष जनम मिलता है। इस अमोल को माटी के मोल गँवा देना, लोक-परलोक सुधारे बिना गुर गोबर कर देना निहायत निखट्टूपन है।

अवसर बीत जाने पर पछताते रहना बची खुची संभावनाओं को भी गारत करना है। भला इसी में है कि व्यतीत से सबक लेकर शेष को विशेष बनाएँ। न सही महापुरुण, पौरुषवान तो बने। जब तक सामान्य से हटकर अपने किये को दर्ज नहीं कराया जाता, अपनी अस्मिता से लोगों को वाकिफ नहीं कराया जाता तब तक व्यक्ति का होना न होना एक बराबर है। इसका मतलब यह कतई नहीं है कि डॉक्टर नहीं बन सके तो डाकू बन जायें, समाज सुधारक नहीं रो सके तो बिगाड़क बन जाएँ। बनने या होनेका सही मतलब है कि अपनी सृजनशीलता औरस्वतंत्र चेतना का अधिकाधिक बेहतर इस्तेमाल करना। “मनुष्य की स्वतंत्र चेतना और सृजनशीलता ऐसे तत्व हैं जो उसे अन्य प्राणियों से अलग करते हैं। स्वतंत्रचेता होने का तात्पर्य ही उत्तरदायी होना – किसी बाह्य सत्ता के प्रति नहीं, बल्कि अपनी चेतना के प्रति उत्तरदायी।” – नन्दकिशोर आचार्य – संस्कृति का व्यारण, पृ.- 11

अपनी चेतना के प्रति उत्तरदायी होना ही नैतिक होना है, मनुष्य होना है, सृजनात्मकता को संभावनाओं की हद तक ले जाना है। उत्तरदायित्व का यह बोध अपने साथ अन्यु गुणों को भी समेटता है, जो गुण आदमी को आदमी होने में सहायक होते हैं। होने के मार्ग में अवरोध खड़ा करने वालों के विरुद्ध संघर्ण और असहमति जताने के लिये तैयार करते हैं।

सभा सभ्यों की होती है और ससंद सद् मनुष्यों की। सभा और ससद सभ्य इसलिए कहलाती है कि वह सब के प्रति उत्तरदायी होती है, परन्तु जब वह असद् वृत्तियों से लैस लोगों का जमावड़ा बन जाती है, धृतराष्ट्र जैसे राजा और दुर्योधन जैसे सेनापति नियुक्त करती है तो नियति से ही क्रूर सत्ता द्रौपदी के चीर हरण तथा अहिल्या के शील हरण में संकोच नहीं करती। उत्तरद्यित्व के भाव से उपजी नैतिकता उसके लिए बेमतलब होती है। मतलब की होती है सत्ता। सत्ता का इस्तेमाल। कभी न तृप्त होने वाली तृष्णा का भोग। किन्तु यह भी वास्तविकता है कि कोई न कोई विकर्ण सभा में होता है जो अपने होने के साथ ही सभा के होने को भी अर्थ देने की हिम्मत करता है। भले धर्मवृंद भीष्म अपनी थोथी निष्ठावश विवश हों, पर ज्ञानवृंद द्रोण समझौतावादी बन जाएं, कर्ण बदले के कुभाव में आँख मूँद कर समर्थन कर रहे हों, नीतिवृंद विदुर धकिया दिये जाएं, किन्तु विकर्ण जैसे लोक उत्तरदायी चेतना का इज़हार किये बिना नहीं रहते। द्रौपदी के दाँव पर चढ़ाये जाने और चीरहरण मे विरोध में आवाज उठाये बिना नहीं रुकते। (महाभारतः सभापर्व, 61/21,22) भले ही नक्कारखाने में तूती की आवाज दब जाये, पर कवि की संवेदना उसे सुनती है। व्यास उसे इतिहास में दर्ज करता है। विकर्ण का होना हर सभा-समाज के लिए महत्वपूर्ण होता है। लात खाकर भी रावण की सभा में विभीषण का बने रहना, उसकी अमानवीय नीतियों का चाहे-अनचाहे समर्थन करते रहना या तो भाई-भतीजावाद का उत्कृष्ट उदाहरण हो सकता है या असभ्य सभासद होने का प्रमाण, क्योंकि सभासद होकर सभासदों के दोषों को जानते हुए भी चुप रहना, अनभिज्ञता प्रकट करना एक प्रकार का अपराध है, दोष है –

न सभां प्रविशेत् प्राज्ञः सभ्यदोषानिनुस्मरन्।
अब्रूवन् विब्रूवनज्ञोनरः किल्वषमश्नुते।।
- भागवत 10-44-10

स्प्ष्ट है ‘चीर हरण’ के साक्षी महारथियों के बी विकर्ण का विनम्र विरोध भी बड़ा महत्वपूर्ण था और वहाँ उपस्थित होने को सार्थक सिद्ध कर रहा था। उसकी उत्तरदायी स्वतंत्र चेतना का इज़हार कर रहा था। उसे उन महारथियों से ज्यादा महत्वपूर्ण सिद्ध कर रहा था, जो उससे वय, बल, ज्ञान, धर्म, नीति में अधिक प्रतिष्ठित कहलाते रहे। विवेक को मारने या ओछा बनाने के बजाय विरोध जताना ज्यादा बेहतर है. विवेकहीन श्रद्धा जताने से श्रेयस्कर है असहमति जताना – नचिकेता की तरह। धृतराष्ट्र की संसद में रहकर उसकी अंधी नीतियों का समर्थन करते रहने से कहीं अच्छा है वहाँ से हट जाना विदुर की तरह। नीति या अनीति केपक्ष में लड़ना अनिवार्य हो तो नीति के पक्ष में लड़ना उत्तम है – युयुत्सु की तरह। भयाक्रान्त और दास बनकर जीने से सुन्दर है स्वाधीन होते तक लड़ते रहना – महात्मा गांधी की तरह। रिरियाते, घिसटते जिंदगानी और दूसरे की मेहरबानी पर जीते रहने से बेहतर है कुरुक्षेत्र में लड़ते-लड़ते वीर गति प्राप्त करना।

जो मुझसे हुआ नहीं
वह मेरा संसार नहीं
कोई लाचार नहीं
जो वह नहीं है
वह होने को
– श्रीकान्त वर्मा, समाधि लेख

ठीक है कि वह मेरा संसार नहीं है जो मुझसे हुआ नहीं, किन्तु आदमी लाचार भी तो है अन्यों के संसार के समान होने को। जीने के लिए उसे वह भी करना पड़ता है जो वह नहीं चाहता है। वह जो नहीं होना चाहता, वह भी उसे होना पड़ता है, करना पड़ता है, बनना पड़ताहै। क्या उग्र विरोधी या उग्रवादी होने का मतलब यह नहीं है कि वे कहीं न कहीं सामाजिक, राजनीतिक व सत्ता के शोषण से उपजे हुए लोग हैं ? मंथरा की मति मारी जाने से क्या राम-सीता को वनवास की पीड़ा से नहीं गुज़रना पड़ा ? क्यातापस की तरह रहना चाहकर भीवनवास के दिन भी काटे जा सके ? रावण जय भय से आशंकित राम की मर्यादा क्या अपनी ही सीमा सेखा को नहीं लांघ जाती है ? पलायन में मुक्ति नहीं। भागने से उबारा नहीं –

तुम लोभ मोह अहंकारा। मद क्रोध बोध रिपु मारा।।
मैं एक, अमित बटपारा। कोउ सुनै न मोर पुकारा।।
भागेहु नहि नाथ उबारा। रघुनायक करेहुँ सँवारा।। - विनय पत्रिका, पद – 125

ठीक है कि विनयवश तुलसी संभार के लिए रघुनाथ क पुकारते हैं, किन्तु असली बात जो वे यह कहना चाहते हैं वह यह कि व्यक्ति भागकर भी मुक्ति नहीं पा सकता। उबार के लिए दुर्निवार विषम परिस्थितियों से जूझना उसकी मजबूरी और जरूरी दोनों है। होने की यात्रा में यात्री अकेली होता है और बटमार अनेक। बटमारों के भय से यात्रा करना ही छोड़ देना नकारा बटोही साबित होना है। अतः लाचारीवश अमानुष हो सकता है, और कुछ हो सकता है तो व ‘स्व’ की तलाश तो करे। यदि सच में मनुज ब्रह्म का आंश है, तो वह अपने इस ‘है’ को कई तरह से अर्थवान बना सकता है। ‘होने’ का हमारा अर्थ विवादी नहीं, संवादी है, घटाव नहीं, जोड़ है। पाश्चात्य अस्तित्ववाद की अवधारणा की तरह नहीं, कि जहाँ अन्य को नरक समझा जाता है। नरक समझकर अन्य को रौंदा जाता है। दुसरे कि स्वतंत्रता को नकारा जाता है। उपनिवेशवाद को प्रोत्साहित किया जाता है। शोषण को उकसाया जाता है। दूसरे धर्म के मानने वाले को काफ़िर समझकर कत्ल किया जाता है। व्यक्ति को बाज़ार नहीं कुटुम्ब में तब्दील करो। जो व्यवहार अपने को प्रतिकूल लगे वैसा दूसरे के साथ आचरण मत करो (आत्मनः प्रतिकूलानिन समाचरेत) वह धर्म धर्म नहीं है जो दूसरे र्म का बाधक है – न धर्मः तत् यो बाधते धर्मम्।

वैश्वीकरण का असली तात्पर्य ‘स्व’ को विश्व बनाना है न कि विश्व को ‘स्व’ के लिए इस्तेमाल करना है। ‘स्व’ की सीमा का इतना विस्तार करना है कि ‘अन्य’ अपना बन जाये। अन्य के ‘होने’ में अपना ‘होना’ शामिल हो जाये। प्रत्येक के होने में अपना सहकार यदि दर्ज न हो, तो विरोध तो कतई न हो। सह-अस्तित्व बना रहे। वह युग या व्यक्ति विश्व क्या बन सकता है, जो खुद का नहीं हो सकता।जो आत्मनिर्वासित होकर जी रहा हो, जो मेले में रहकर भी निपट अकेला हो, जो घर में रहकर बेघर बना रहे, जो अपने परिवार को तोड़ चुका हो, अपने वृद्ध माता-पिता को वृद्धाश्रम में भेजकर छुट्टी पा रहा हो, वह ससुरा ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’, अर्थात विश्व ही परिवार है, का अर्थ क्या जानेगा ? अपनी खोल में सिमटा आदमी दूसरे को क्या समा सकता है ? कुत्ते को गोदी में खिलाने वाले तथा माता-पिता को फटकारने वाले लोग क्या जानें स्वजन स्नेह का स्वाद ? किसी अन्य या अपनों के होने का आस्वाद। मिशनरी हिन्दुओं की आस्था को बदल नहीं सके तो उसका कारण यह नहीं था कि हिन्दुओं में ईसा मसीह के संदेश के प्रति कोई प्रतिरोध था, बल्कि उन्होंने उस संदेश को अपनी बहुलतावादी आस्था की कोटियों में ही समा लिया। - निर्मल वर्मा (पत्थर और बहता पानी, पृ. 139) भारत की समोने-पिरोने वाली संस्कृति ने इस्लाम को भी समोना चाहा है। हिन्दुओं के द्वारा ताजिए पर चढ़ाये जाते चढ़ौना, मानी जाती मनौतियों और मजारों पर चढ़ाई अन्य को अपने से अलग न समझने के ही प्रमाण हैं। इस देश ने ब्रह्म को अन्य पुरुष माना है। उसे तत् से संबोधित किया है।थ वह प्रथम पुरुष है। चराचर जगत चल-अचल उसकी प्रतिमा है। ऐसा प्रमाण देने के लिए आग्रह भी है।

“जैविक स्तर पर मनुष्यत्व स्वयं प्राप्य है, लेकिन उसके बाद का मनुष्यत्व अर्जित करना होता है – इस अर्जन की सारी संभावनाएं मनुष्य में ही हैं। जिस सीमा तक कोई यह अर्जन कर पाता है वास्तविक अर्थों में उसी सीमा तक मनुष्य हो पाता है। ...अमानवीयता के खिलाफ़ संघर्ष भी मनुष्य होने की बुनियादी शर्त है। इस तरह सहमति, असहमति, विरोध संघर्ष तथा स्वतंत्र चेतना से उपजी सृजनशीलता के माध्यम से व्यक्ति अपनी संभावनाओं को उपलब्धि के रूप में अर्जित करता रहता है। यह अर्जन किसी अन्य को क्षति पहुँचाकर नहीं किया जाता। मनुष्येतर सृष्टि से अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करने के फिराक में मनुष्येतर को हेय, हीन, जेतव्य मानकर नहीं। व्यष्टि और समष्टि के सामंजस्य में, सहवीर्य, सहकार में भी होने का अर्थ अर्जित किया जाता है। गैर-मानवीय संसार से अलगाव यूरोपीय सभ्यता का सबसे त्रासद आयाम रहा है, जिसने गोएटे को यह यह कहने के लिए विवश किया कि ‘हर अलगाव में विक्षिप्तता के बीज होते हैं : हमें ध्यान रखना चाहिए कि हम उसे पनपने न दें।” – निर्मल वर्मा (पत्थर और बहता पानी पृ. 172)

स्पष्ट है कि अलगाव में यदि विक्षिप्तता के बीज होते हैं तो अन्य को अन्य समझने में संघर्ष के। ऐसे संघर्ष के महाभारत को जो व्यक्ति के होने के अर्थ को कुत्सित करार देता है, कौन अच्छा कहेगा। लोग उसे घर में पुस्तक के रूप में भी रखने से कतराते हैं। भारत ने महाभारत को अच्छा नहीं समझा। वह होना था, हो गया यह और बात है, किन्तु उसकि आत्मीयता सदा अन्यको आत्मसात करने में अपनी समृद्धि मानती रही है. यह देश बाहर से आए जातियों अपना बना कर याय उनके होकर वृहत्तर भारतवर्ष के गौरव से अपने को मंडित करता रहा है। बिना किसी के भूभाग को राजनैतिक उपनिवेश बनाते हुए, अपने भूमा स्वरूप का परिचय देता रहा है। जिन बाहरी जातियों ने अपनी सीमित सोच एवं धर्मान्धता के कारण अन्य को काफ़िर या नरक समझकर रौंदना चाहा उसके साथ अब तक भारत की अस्मिता अपना तालमेल बिठा नहीं पाई है। बिठाये भी कैसे ? अपने ‘स्व’ को विसर्जित करके परधर्म को अपनाने से मर जाना बेहतर जो माना गया है – स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।
- गीता।
‘होने का अर्थ’ बहुअर्थी है – छंद की तरह। बहुरूपी है – सृष्टि की तरह। अव्याख्येय है – भूमा की तरह। व्यक्ति भूत, भवन और भविष्य में होता रहता है, क्योंकि वह धरती से आकाश तक व्याप्त विष्णु का सगुण स्वरूप है। हमारे तीनों कालों में वही तो होता रहता है। इसी से भाव हमें होते रहना चाहिए – उस पुराण पुरुष सहस्र शीर्ष प्रभु को प्रणाम करते हुए –

भुत भव्यभवन्नाथः पवनः पावनोsनलः।
कामहा कामकृत् कान्तः कामः कामप्रदः प्रभुः।। - विष्णुसहस्रनाम