ललित निबंध संचयन

हिंदी के महत्वपूर्ण ललितनिबंधकारों की रचनाएँ

Saturday, September 16, 2006

11. अपवित्रो पवित्रो वा




बहुत छुटपन से इस मंत्र को सुनते और इससे जुड़े पूजन-विधान को सुनते-देखते आ रहे थे –

ऊँ अपवित्रो पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोsपिवा।
यः स्मरेतपुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः।।

पिताजी नित्य पूजन प्रारंभ करने से पूर्व इस मंत्र को पढ़कर ‘विष्णु र्विष्णुर्हरि हरिः’ कहते व जल छिड़कते हुए देह, पूजन द्रव्य एवं भू शुद्धिः करते थे। आज स्वयं नित्य-पूजन अनुष्ठान करने के पूर्व उक्त श्लोक का उच्चारण करता हूँ – टेप की तरह औरशुद्धता का कर्मकाण्ड पूर्ण कर लेता हूँ – सोचविहीन क्रिया की तरह। इस क्रिया के द्वारा बाहर भीतर से कितना पवित्र हो पाता हूँ, वह तो हरि जाने, परन्तु अब जबकि सोचने की उम्र को जी रहा हूँ तब कभी-कभार बाबा तुलसी से बतियाते और भागवत के आंगन में रमते हुए लगता है कि सच में हरि का स्मरण पूजन पूर्व विधान ही नीहं, विश्वास भी है। भाव-कुभाव से सोच-असोच से जैसे तैसे प्रभु का स्मरण आत्म अभिषेक है। मल धुले वा न धुले, मंगल का आमंत्रण है –

हरिर्हरति पापानी दुष्टचित्तैपरि स्मृतः। अनिच्छा्याsपि संस्पृष्टो दहत्येव हि पावकः।
अज्ञानादथवा ज्ञानादुक्तमश्लोकानाम् यत्। सङकीर्तनमघं पुंसो दहेदेधोयथानलः।।
यथागदं वीर्यतममुयुक्तं यहच्छ्या। आजानतोsप्यात्मगुणं कुर्यान्मन्त्रोsप्युदाहृतः।।
- भाग 6-2-18-19

तात्पर्य स्पष्ट है। हरि का गुणानुवाद इच्छा या अनिच्छा के साथ किया जाये, वह मन के मैल को जला डालता है – जैसे आग ईंधन को। जाने अनजाने अमृत पीने पर अमरत्व तो मिलता ही है। मंत्र चाहे जाने-अनजाने में उच्चरित हो, वह निष्फल नहीं होता। राम-कृष्ण नाम तो महामंत्र है।

अतिरिक्त श्रद्धावश विशाल बुद्धि व्यासदेव ने यह बात नहीं कही है। महाभारत जैसे महानग्रंथ लिखकर जब वे आत्माराम न हो सके, अकृतार्थता उन्हें सालती रही तब वे नारद के सदपरामर्श से हरि स्मरण के ग्रंथ भागवत-रचना में रमे और कृतार्थता की प्राप्ति हुई। महाभारत की मार-काट, कुटिलता, द्वेष-दंभ, छल-कपट ने तो उनकी शांति चौपट कर दी थी। गुहा निवासी धर्म की गुत्थी सुलझाते-सुलझाते वे स्वयं अशान्त से रहे। शांति, संतोष, आनन्द, कृतकृत्यता तो उन्हें भक्ति काव्य श्रीमदभागवत से मिले। अतः भागवत व्यासदेव के अनुभूत का आख्यान है, अतिरिक्त श्रद्धा या भक्ति का भावावेश नहीं। आप भी आजमा सकते हैं।

पवित्रता का एकमात्र स्नान है। मलापकर्षण का नाम स्नान है। मल चाहे देह का हो या मन का, वह स्नान से ही धुलता है। मंत्र स्नान, भौम स्नान, अग्नि स्नान, वायव्य स्नान, दिव्य स्नान, वारुण स्नान और मानस स्नान –

मान्त्रं भौमं तथाग्नेयं वायव्यं दिव्यमेव च।
वारुणं मानसं चैव सप्त स्नानान्यनुक्रमात्।।
आपो हि षष्ठादिभिर्मान्त्रं मृदालम्भस्तु पार्थिवम्।
आग्नेयं भस्मना स्नानं वायव्यं गोरजं स्मृतम्।।
यत्तु सातपवर्षेण स्नानं तद् द्व्यमुच्यते।
अवगाहो वारुणं स्यात मानसं ह्यात्मचिन्तनम्।।

‘ऊँ अपवित्रो पवित्रो वा’ यह मानस स्नान है। आभ्यन्तर का अभिषेक है। हरि स्मरण का आग्रह है। आत्म चिंतन है। यही वास्तविक स्नान है। देह शुद्धि जन्म से हो जाती है, परन्तु आत्म-शुद्धि के लिए मानस चिंतन अनिवार्य है। माया की नगरी में चाहे जैसे भी सयाने आयें, बेदाग नहीं बच सकते। कबीर जैसे सयाने संत ही दावा करसकते हैं कि उन्होंने चदरिया ज्यों की त्यों धरदीनी। फिर भई वे माया का लोहा मानकर कहते हैं कि ‘राम चरण’ में रति होने से ही गति मिल सकती है –

राम तेरा माया दुंद मचावे।
गति-मति वाकी समझि परे नहिं, सुरनर मुनिहि नचावे।
अपना चतुर और को सिप्ववै, कामिनि कनक सयानी।
कहै कबीर सुनो हो सन्तों, राम-चरण रति मानी।

पूजा बर बाठा रहता हूँ और मन में माया द्वन्द्व मचाती रही ती है। घरु, मिट्ठ, करु – दुनियाभर की बातें मन को नचाती रहती हैं और मन को तो नाच पसन्द ही है। पूजा के बीच में कुछ सोच बैठता हूँ। बोल पड़ता हूँ। संदीप टोक देता है – “बाबूजी ! पूजा कीजिए, बाकी बात बाद में।” झेंपता हूँ। चित्त को मोड़ता हूँ – हरि स्मरण की ओर। पुण्डरीकाक्ष का स्मरण मान स्नान जो है –

अतिनीलघनशामं नलिनायतलोचनम्।
स्मरामि पुण्डरीकाक्षं तेन स्नातो भवाम्यहम्।। - वामनपुराण

अर्थात् नीलमेघ के समान श्यामल कमल लोचन हो जाता है। हरि का स्मरण कर व्यक्ति नहा जाता है, पावन सोचू उम्र और पंडितम् मन्य प्रवृत्ति। छोटी सी बात विचार का विषय बना लेती है।पद-पदार्थ पर आगे-पीछे विचार करने लगती है। मामंसक की तरह बाल की खाल निगालने लगती है। जबकि दास कबीर ठौका बात कह गये हैं कि पंडित बनने के िलए प्रेम का ढाई आखर ही पर्याप्त है, परन्तु ‘संसकिरत भाषा पढ़ि लीन्हा, ज्ञानी लोक कहो री’ इस गुमान को गौरवान्वित करने सोचू मन उपर्युक्त मंत्र श्लोक की मीमांसा करने लगता है। मीमांसा कहती है कि शुद्ध पवित्र मन से भगवत भजन करने से फल मिलता है, फिर ‘अपवित्रो वा’ पद से ही जब काम चल सकता था, तो ‘सर्वावस्था गतोsपि वा’ पद बंध का विन्यास क्यों किया गया ? जबकि संस्कृत के वैयाकरण अर्ध मात्रा लाघव को पुत्र जन्मोत्सव जैसा आनन्द मानते हैं, तब इस बड़े पदबंधका प्रयोग आनन्द में अवरोध है कि नहीं ?

गहरे पैठकर देखियेतो इस छोटे श्लोक में सारे पद विन्यास सार्थक हैं, चौकस हैं, अर्थानुष्ठित हैं। हरि-स्मरण की सहज महिमा का अवबोधक ये पद साफ-साफ कहतेहैं श्याम संकिर्तन व्यक्ति चाहे बिना नहाये-धोये, मन को भिगोये बिना करें अथवा स्नान ध्यान करके वह बाहरःभीतर से पावन हो उठता है। स्मरण की महिमा ऐसी है कि वह अपवित्र को पवित्र और पापी को पावन बना देती है, स्मरणीय बना देती है। वाल्मीकि इतने डूबे हुए थे कि मुख से सही भगवान्नाम उच्चरित नहीं हो पा रहा था। ‘राम-राम’ के बदले ‘मरा-मरा’ जप रहे थे, परन्तु उल्टा नाम जप कर मभी ब्रह्म समान हो गये। द्रौपदी ने हरि का स्मरण किया। स्मरण करते ही उसका गुमान गल गया, श्याम दौड़ पड़े और वह पावन हो उठी। पवित्र होने के लिए तो स्मरण किया जाता है –

कृष्णेति मङगलनाम यस्य वाचि प्रवर्तते। भस्मीभवन्ति सद्यस्तु महापातककोटयः।।

यहाँ फिर मीमांसा की जा सकती है कि जो अपवित्र है वह हरि स्मरण करे – पवित्र होने के लिए। पवित्रों के लिए जरूरी तो नहीं लगती। दरअसल हरि स्मरण सबके लिए निरंतर जरूरी है। तिरगुन फाँस लिये डोलती माया निरंतर बाँधने के लिए चौकस रहती है। थोड़ा भी लोभ मोह जन्य असावधानी दिखी की वह बाँध लेती है। नारद मुनि से ज्यादा कौन पावन होगा, परन्तु वे भी माया के चक्कर में पड़ गये। नर से वानर हो गये। लोग पवित्र होकर भी पापी हो जाते हैं – पवित्र पापी। गंगा-यमुना नहाने के बाद भी मैं नहीं धुलता। कपड़ा रंगाकर भी मन नहीं रंगता राम में। माला फेरते युग बीत जाता, पर मन का फेर नहीं मिटता। नाम बेचकर साधुता की दुकान चलाते रहते हैं –

भगति विराग ज्ञान साधन कहि, बहुविधि डहकत लोग फिरौं।
सिव सरबस सुखधाम नाम तव, बेचि नरकप्रद उदर भरौं।। - विनय पत्रिका 141

इसीलिए मंत्र कहत है कि पवित्रो हो अथवा अपवित्र प्रभु का स्मरण करते रहो। बाहर-भीतर से पवित्र होते सहे। राम में रमते-रमाते रहे। किसी अवस्था, देश, काल में रहो नाम जपते रहो। पावन हो तो और पावन हो जाओगे। सुंदर हो तो और सुंदर हो जाओगे। भारद्वाज मुनि क्या कम पवित्र थे ? परन्तु आश्रम में राम के पग पड़ते ही और पवित्र हो उठे। पावनता में नहा उठे। कृतार्थ हो उठे।

आजु सुफल तपु तीरथ त्यागू। आज सुफल जप जोग बिराजू।
सफल सकल सुभ साधन साजू। राम तुम्हहि अवलोकत आजू।। अयोध्या कांड 107

भगवान ने अपने स्मरण की छूट तो यहाँ तक दी है कि व्यक्ति चलते-फिरते, उठते-बैठते, सोते-जागते देश –काल के नियम से परे होकर स्मरण कर सकता है। आश्चर्य, भय, शोक, क्षत, मरणासन्न – किसी भी दशा में ईश्वर स्मरण कल्याणकारी है –

न देश नियमो राजन्न काल नियमस्तथा। विद्यते नात्र संदेहो विष्णोर्नामानुकीर्तने।।
आश्चर्ये वा भये शोके क्षवेवा मम नाम यः। व्याजेन वा स्मरेत् यस्तु ययाति परमां गतिम्।।
अपवित्रो पवित्रो वा सर्वावस्था गतोsपि वा। यः स्मरेत्पुण्डरीकाक्षां स बाह्यान्तरः शुचिः।।

गोपियों ने प्रेम से, कंस न भय से, शिशुपालन जैसे राजाओं ने द्वेष से, वृष्णिवंशी यादवों ने संबंध से, पाण्डवों ने स्नेह से और नारद जैसे भक्तों ने भक्ति भाव में डूबकर भगवान का स्मरण किया और सभी प्रभु को पा गये। वैरानुबन्ध से स्मरण तो और भी तन्मय बनाकर पतित को पावन बना देता है, क्योंकि बैर तीव्रता सेदिन-रात बैरी का स्मरण दिलाता रहता है। हाँ, क्षुद्र से बैर ठानने में क्षुद्रता ही हाथ लगती है। अतः रावण-कंस जैसे महान पापियों ने महानाम परमात्मा से शत्रुता करके वे सबके शरण को पा गए। बाहर-भीतर से पवित्र हो गये –

तस्माद् वैरानुबन्धन निर्वैरेण भयेन वा।
स्नेहात्कामेन का युञ्जयात् कथञ्चिन्नेक्षते पृथक्।।
गोप्यः कामाद् भयादकंसो द्वेषाच्चैद्यादयो नृपाः।
सम्बन्धाद् वृष्णयः स्नेहात यूयं भक्तया वयं विभो।। - भागवत 7-1-25-30

1 Comments:

At 8:44 PM, Blogger RUPESH TIWARI said...

महान कार्य है बन्धु, इतना भक्ति से भरा लेख मैने नहीं देखा... खुब लिखा है...लगे रहियेगा.. ईश्वर हम सबके साथ है....

 

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