ललित निबंध संचयन

हिंदी के महत्वपूर्ण ललितनिबंधकारों की रचनाएँ

Saturday, September 16, 2006

8. लिखने का मतलब


थाली परोसी रखी रहती है। भोग लगाने के लिए गोपाल जो बाट ताकते रहते हैं। मेरी ही भूखसे तिल मिलाती संगिनी भगवान को भोग अर्पण करने के लिए आग्रह-अनुरोध, रीझ-खीझ प्रकट करती रहती है। ‘अन्नपूर्णा का अनादर अच्छा नहीं होता न भगवान को को प्रतीक्षा करना’ संस्कार का यह अबोलबोल सुनकर भी मेरा लिखवाड़ लेखक इस कदर लीन रहता है कि कोई अपूर्व छूट न जाये, बाँह छुड़ा के चल न दे। बाँह की पीड़ा ‘हनुमान बाहुक’ पाठ के लिए प्रेरित करती रहती है। पेट की गैस, पीठ की पीड़ा व गर्दन की दुर्गति घड़ी-घड़ी अच्छी हलाकान करती है। बुढ़ापा सिर पर सवार होकर बार-बार तरह-तरह से चेताता रहता है। मिलने वाले मुझसे और में उनसे बतरस के लिए ललचता रहता हूँ – फिर बी तल्लीनता ऐसी कि गोपी रास रस हो कि वाल्मीकि रामायण रच रहे हों। तीर मार रहे हों। इतनी तन्मयता यदि तत्सत में होती तो सच मानिये जिन्दगी तर जाती, तीर्थ बन जाती है।

इस तन्मयता से परेशान होकर कभी-कभी परेशान होकर कभी-कभई एकान्त और शान्त क्षणों में श्रीकान्त वर्मा की इस पंक्ति को गुनता रहता हूँ कि सच में “लिखने का मतलब है नरक से गुजरना ?” क्या वाकई लेखन कर्म नरक का अगाऊ भोग है ? यदि है, तो लेखक जीते जी क्यों जान बूझकर जहन्नुम से रू-ब-रू होना चाहता है ? जैसे कुछ खाँटी लोग जीते जी अपना श्राद्ध कर लेते हैं, इस अंदेशे से कि जाने नालायक औलाद मरने के बाद क्रिया कर्म करे या नहीं, वैसे ही किस अंदेशे से यह लेखक नाम का प्राणी नरक का अगाऊ अनुभव करना चाहता है ? अपने कौन से पाप का प्रायश्चित करना चाहता है ? एक कवि ने अर्ज करते हुए निवेदन किया था कि “हे ब्रह्मदेव ! मेरे पापों के बदले में जो भी दुष्फल देंगे उसे मैं सह लूँगा, किन्तु खूसट आदमी को कविता सुनाने का दंड मत देना।” –

इतर पाप फलानि यथेच्छया
वितरतानि सहे चतुरानन।
अरसिकेषु कवित्व निवेदनं
शिररसि मा लिख मा लिख।।

न जाने केखक कौन से लिखकर अर्ज-फर्ज को पूरा करना चाहता है ? वह कौन सी मजबूरी की गुलामी करने के लिए लाचार है ? ज्यादातर मजबूर करने वाली व्यवस्था भी नहीं चाहती कि कोई लिखे-बोले और बैठे-ठाले मुझसे बैर मोल ले। कोई लिखना-बोलना ही चाहता है तो वह मेरे पक्ष में लिखे-बोले, अन्यथा सिर कलम करने का फतवा जारी कर दिया जायेगा।

इस तथ्य से वाकई इनकार नहीं किया जा सकताकि लेखन कर्म शिद्दत से उठाने का कर्म है। माथा-पच्ची का काम है। अपने आपको हलाकान करा है। उस शैतान से मुठभेड़ करना है, जो अव्यवस्था, अन्याय, असंगति, अत्याचार, अनास्था आदि की शक्ल में जहाँ-तहाँ मौजू होता है। लेखक की जिंदगी निजी होकर भी सार्वजनिक होती है – उन नेताओं की तरह नहीं, जिनका निजी जीवन ही प्रमुख होता है, सार्वजनिक दिखाउ होता है। तभी तो गैर क्रौंच वध की पीड़ा से उपजी करुणा ने मुनि को इतना उद्विग्न किया है कि उनका मौन मुखर हो उठा – इस आर्या छंद में –

माम निषाद प्रतिष्ठां त्वगमगमः शाश्वती समा।
यदक्रौ़ञ्च्य मिथुनादमेकवधीः काममोहितम्।।

एक क्रौंच की पीड़ा इतनी भारी थी कि रामायण जैसा महाकाव्य लिखना पड़ा, किन्तु लाखों क्रौंच की कराह से रोज-ब-रोज कातर होते कवि कैसे मौन रह सकता है ? हृदय हिला देने वाली घटनाओं का घर उसकी संवेदना कैसे चुप लगा सकती है ? गूँगेपन के अभिशाप से मुक्ति के लिए ही उसे वाणी का वरदान मिला है। तमस को ठेलठालकर निकाल बाहर करने के लिए उसे वाक का प्रकाश मिला है –

बाचो प्रसादेन लोक यात्रा प्रवर्तते।
इद्मन्धतमः कृत्स्नं जायेत भुवनत्रयम्।
यदि शब्दाहवयं ज्योतिरासंसारान्न दीप्यते।।
- काव्यादर्श दण्डी 1/3-4

इस प्रकाश को वह अपने भीतर कैसे कैद करके रख सकता है। उसे जूझना ही होता है – अंधकार से। उसे चोखिम उठाकर बोलना ही पड़ता है – सबकी ओर से। उसे सहना बी पड़ता है सबके दुख को – राम की तरह (रामं तु सर्व सहे)

लेखक ‘इदं न ममं’ के भाव में जीता है। सबका होकर रहता है। उसके समूचे ीवन का साधरणीकरण-सा हो जाता है। संभवतः इस अर्थ में भी ऋषियों के द्वारा साक्षात्कृत वेद मंत्रों को अपौरुषेय कहा गया हो। अपौरुषेय इस अर्थ में भी कि वह अपने अहं को सर्वम् में, पुरुषार्थ को परमार्थ में विलय कर देता है। अपने को फटक-बीतकर, कूट-पीसकर, राँधकर, सिझाकर तथा परोसकर सबके के लिए आस्वाद्य बनाता रहता है। वहसंसार में होते अनाप-शनाप व्यवहार तथा अमानवीय घटनाओं को खटित होते देख-सुनकर चुप नहीं रह सकता – भीष्ण पितामह की तरह, तटस्थ नहीं रह सकता। ऐसी तटस्थता भी किस काम की जो अन्याय के सामने चुप लगा जाये और व्यक्ति को नपुंसक तथा अपराधी करार दे। शरशय्या पर महीनों लिटाये रखे।
लिखने का अर्थ है अपराधी किस्म की तटस्थता के दोष से बचते हुए प्रतिपक्ष में खड़ा किसी भी किस्म के खतरे उठाकर लिखने का अभिप्राय तुलसी की तरह गाथा गाकर चुप नहीं रह जाना, अपितु उस पराधीनता के विरुद्ध आजादी का आव्हान करना, जो सपने के सुख से भी आदमी को वंचित करती है। रावण को रथ पर सवार देख और राम को विरथ देख तुलसी का विभीषण मन कैसे चुप रह सकता। वह लिखेगा ही। दरिद्रता के कारण रावण ने जहाँ संसार को दबोच रखा हो (दारिद दसानन दबाईदुनी दीनबन्धु दुरित दहन देखि तुलसी हहा करी) वहाँ तुलसी मौन कैसे रह सकते ? हाहाकर कर उठते हैं। गाल बजाऊ पंडित, ढोंग बढ़ाने वाले साधुओं, जाति, सम्प्रदाय, राजनीति-अर्थ-सबकी दुश्चिंता तुलसी को सताती है और सुबह शाम रघुनाथ गाथा गाने के बाद भी उसे लिखने के लिए बाध्य करती है।

लिखने का मतलब ही स्वान्त सुख के साथ वृहत्तर सुख की कामना। जगमंगलके भाव से आप्लावित होकर साधना-यातना की नदी में अपने को बहाने के िलए उतारना। सबकी पीड़ा को गाना –

भनिति भदेश वस्तु भलि बरनी।
राम कथा जगमंगल करनी।। - दोहा 10

कबीर तो घर फूँक कर हिन्दू-मुसलमान सबकी दुत्कार सहते हुए सबद, रमैनी, दोहे में रमें रहते हैं। गाथा या गीत नाद ब्रह्म की आराधना है तो रचना अक्षर ब्रह्म की। गाथा ध्ववि तो श्रुति पक्ष से चलकर नाद ब्रह्म में समा जाती है, किन्तु अमिट आखर में लिखी रचना प्रामाणिक दस्तावेज की तरह सनद रहतीहै। बार-बार व्यष्टि-समष्टि के सामने विपत्ति, विकृति, विडम्बना, विसंगति के छाये अंधकार के बीच रोशनी बिखरेती रहती है – रवि रेखा की तरह। वह जग जीवन में रह-रह उठने वाले रावण जय भय के विरुद्ध उठ खड़े होने के लिए उकसाती है –

स्थिर राघवेन्द्र को हिला रहा फिर फिर संशय।
रह-रह उठता जग जीवन में रावण जय भय।।
- राम की शक्ति पूजा

बात साफ है कि रह-रह उठने वाले संशयों और आकुल करने वाले बहुत सारे प्रश्नों से लेखक हमेशा घिरा रहता है। वे सब मिलकर उसे सताते रहते हैं. सती का संशय, निराला के राम का संशय,रावण जय-भय, द्रौपदी के दांव पर चढ़ाने और युधिष्ठिर के अर्ध सत्य, कृष्ण के दाँव-पेंच सभी से उठे प्रश्व व्यक्ति को अलग-अलग सालते हैं, परन्तु व्यास को सब मिलकर सालते हैं। अतः व्यास होना ही नरक जैसी यातना से गुजरना है। जब “आजमी के लिए सैकड़ों जिन्दा विचार भाष्य बनने के लिए व्याकुल हैं” – धूमिल, तो व्यास की जान साँसत में होगी ही। इसलिए व्यास महाभारत जैसे विशाल ग्रंथ लिख लेने के बाद भी प्रसन्न नहीं थे, अकृतार्थ थे। भीतर ही भीतर कुछ साल रहा था। भला हो नारद मुनि का जिन्होंने उन्हें भागवत रचना की सलाह दी और वे उसे रचकर कृतार्थ हुए। (देखें लेख – अकृतार्थता के बोध से उपजा भागवत)

रचने का मतलब अर्ज-फर्ज की माँग की पूर्ति भी है। भीतरी अर्ज रचनाकार को बेशुमार परेशान करती है। जागते-सोते बेचैन किये रहती है। वह नहीं जानता कि क्यों लिख रहा है, किस देव के लिए वह जीवनाहुति दे रहा है, वह हविष्य स्वीकार करेगा भी कि नहीं, वह यह भी जानते हुए लिख रहा है कि घर के लोग भी उसे नहीं पढ़ते, पाठक का अकाल है। वसंत को खारिज कर दिया पेशेवर गुलाहों की हँसी ने, फिर भी वह बहारों का गीत गाये जा रही संवेदन क्षुधा की तृप्ति के लिये। कभी-कभी कवि की यह प्रवृत्ति लोगों को सनक-सी लगती है। बेमतलब का काम। मित्र राधाकृष्ण झा वाइलिन की लकड़ियों को छील-छालकर जतने से शक्ल दे रहे थे, उसके तरबदार तारों को कस रहे थे ताकि वह मन कि तड़प को तरब-तराना दे सके। इसी समय नौकरी के पैरवी के लिए दो सज्जन उनके दर पर पहुँचे। पैरवी की बात सुन चलाने से पूर्व एक ने कहा – “झा साहब पहुँचे हुए संगीतकार हैं।” दूसरा बोला – “हाँ भाई ! उनके कार्यों से तो ऐसा हीलगता है। सुना है संगीतकार व साहित्यकार पागल होते हैं।” यद्यपि यह टिप्पणी नवनीत लेपन की दृष्टि से की गई थी, किन्तु वह सच से बहुत दूर भी नहीं थी। ठाकुर जगमोहन सिंह की रचना ‘श्यामा स्वप्न’ पर वक्यव्य देते हुए डॉ. नामवर सिंह (रायपुर प्रवास में) बोल रहे थे – “न जाने किस-किस तरह के स्वप्न और सच लेखक को पागलपन के स्तर तक उद्वेलित करते रहते हैं। इस तरह के उद्वेलन से उद्वेलित होकर अंग्रेजीकवि बायरन अपने ही देश-सरकार के विरुद्ध ग्रीक की ओर से युद्ध में शरीक हो गया था – शहीद होने के लिए।”

लेखक विक्रम की तरह बेताल को कंधे में लादे सवालों के जवाब तलाशते फिरता है। होरी की गोदान की अधूरी आकांक्षा से आकुल ही तो रहता है। अंधेरे में चल रही स्याह साजिश को देखकर वह अपनी दुर्निवार आत्मसंभव अभिव्यक्ति को रोक नहीं पाता। चाहे दुनिया उसेपागल समझे या प्रजापति (अपारे काव्य संसारे कविरेक प्रजापतिः) अंधेरा मिटे या न मिटे। वैसे अहंकार की तरह अंधेरा पूरी तरह मिटना नहीं जानता। रोज सुबह-शाम बरी खबरें बाँटेते अखबार, आदमी को माल में तब्दील करते विश्व बाजार, अधों से राजित राजदरबार भ्रष्टाचार से भूषित लोकतंत्री सिंहासन, स्वधीनता को बेमानी बनाती व्यवस्था, नीति पर बहस करती और दुर्निति पर चलती राजनीति, दोहरा लगता हर चेहरा – तमाम बातों की गिरफ्त से बेचारा लेखक तब तक मुक्त नहीं हो पाता जब तक वह लिखकर खारिज नहीं हो जाता – बरस चुके बादल की तरह। जब तक वह साँचे आखर बल के सहारे अपना पक्ष प्रस्तुत नहीं कर लेता, सहानुभूति जता नहीं लेता, फर्ज अदा नहीं कर लेता तब तक तमाम बातें उसके भीतर टीसती रहती है – बिन बरसे बादल के भीतर बिजली की तरह।

एक कवि का कहना है कि कवि के चुप हो जाने से समूचा मुल्क एक शव में तब्दील हो जाता है। इस कथन का आशय स्पष्ट है कि बोलना और लिखना समान व मुल्क को जीवित रखने के लिए अनिवार्य है, चाहे लेखक को नरक से होकर गुजरना पड़े या स्वर्ग के पास से। अकृतार्थता मिले या कृतार्थता व्यास को लिखना ही पड़ेगा। गुरु पुर्णिमा को वह पूजा जायेयह उसका अहोभाग्य है, नियति नहीं। किन्तु लिखने का अभिप्राय केवल यह नहीं है कि वेदना करुणा, नियति की क्रूरता के ही गीत गाते रहे।सूर होकर घिघियाते रहे। यह संसार सब रंगों और रसों का समाहार है। यहाँ शैतान हैं तो इन्सान भी रहते हैं। संत बी हैं, असंत भी। अनास्था है तो आस्था भी। पतझर हैं तो बहार भी। कर्म, अकर्म, विकर्म, पाप-पुण्य – सब कुछ तो है। यह लेखक पर निर्भर करता है कि वह क्या चुनना चाहता है। अंधकार से गुजर कर किस स्वर्णिम प्रभात को धरा पर उतारना चाहता है।

दिन प्रतिदिन छिनते जा रहे आपसी संवाद, बतरस का सुख, टूटती जा रही शब्द-अर्थ की अभिन्नता, गूँगी होती जा रही स्वाधीनता, बढ़ता जा रहा तकनीकि का हस्तक्षेप, छिनती जा रही भाषा, झीनती जा रही मनुष्यता, भय, आतंक, आशंका – सब मिलकर साहित्य को सब कुछ बर्दाश्त करते रहने और शब्द साधना में लीन रखते हैं –

साधो शब्द साधना कीजै।
जे ही शब्दते प्रगट भए सब, सोई शब्द गहि लीजै।।
शब्द गुरु शब्द, सुन सिख गये, शब्द सो बिरला बूजै।।
सोई शिष्य सोई कुहु महातम, जेहि अंतर गति सूझै।।
शब्दै वेद पुरान कहत है शब्दै सब ठहरावै।
शब्दै सुख-मुनि-संत कहत हैं, शब्द भेद नहि पावै।
शब्दै सुन-सुन भेष धरत हैं, शब्दै कहै अनुरागी।
षट दर्शन सब शब्द कहत है, शब्द कहे वैरागी।
शब्दै काया जग उतपानी, शब्दै केरि पसारा।
कहै कबीर जहँ शब्द होत है, भवन भेद न्यारा।

यह भी कहा जा सकता है कि जब वालमीकि जैसे मुनि ने रामायण की रचना कर डाली और महाभारत जैसे सब कुछ को समेटने वाला आकार ग्रंथ लिखा जा चुका है,फिर और कुछ लिखने का क्या प्रयोजन है ? क्यों नरक से गुजरने का प्रयास करना ? हकीकत तो यह है कि न आज के लोग रामायण-महाभारत काल जैसे मानसिकता वाले हैं और न त्रेता द्वापर युग जैसा युग है। आज के लोग औस समय आज के जैसे हैं, ठीक है कि इन आकार ग्रंथों में बहुत सारे मूल्य ऐसे हैं, जो आज भी आचरणीय हैं। चरित वंदनीय हैं। विचार चिंतनीय हैं, परन्तु आज जबकि सारे स्थापित खारिज किये जा रहे हैं, विचार मरते जा रहे हैं, ईश्वर की मृत्यु की घोषणा कर दी गई, ‘अन्य को नरक’ मानकर अपने अस्तित्व की रक्षा जैसे-वैसे करते रहना ध्येय बन गया हो, संतों को भी वर्गों में बाँटकर देखा जा रहा हो, अपने को बंदे और शेष को काफिर समझआ जा राह हो तब जरूरी हो जाता है लिखना। तब जरूरी हो जाती है ‘मानस’ की रचना। आवश्यक हो जाती है वेद की व्याख्या, पुराणों का पुरनाख्यान और व्यास का भास्य। रामायण की पहुत सारी घटनाओं और विचारों से तुलसी सहमत नहीं थे। उनका युग उनसे सहमत नहीं होता यदि वे उन्हीं बातों को संस्कृत में दुहरा देते, इसलिए उन्हें सोच-समझकर स्व मानस मथक अवधी में ‘मानस’ की रचना करनी पड़ी। व्यास भी कहते हैं कि इतिहस पुराण लिखकर वेद के रहस्यों को खोला जाना चाहिये, विस्तार किया जाना चाहिए। हर युग के व्यास को अपने युग की देखी और अतीत-अद्यतन की लेखी पर दिव्य दृष्टि डालकर लिखना ही होगा। लिखना होगा उनके पक्ष में जो तुलसी को एक वर्ग विशेष के कवि और कबीर को पंथ विशेष के कवि और संत मानकर उनके हाय से वंचित किये जा रहे हैं।

“महाकाय धर्मात्मा
देखता हूँ मैं तुम्हारे अनुयायी
तुम्हें दगा दे चुके हैं
बदला नहीं अगर कोई ते वे हैं तुम्हारे शत्रु”

एन्त्सेन्सबगर के द्वारा मार्क्स को संबोधित करते हुए लिखी गई इन पंक्तियों के द्वारा गांधी कोबीआज संबोधित नहीं किया जा सकता ?

स्पष्ट है कि बदलते समयऔर परिवेश, प्रासंगिकता, लोगों की गतानुगतिकता और लोग संग्रह निरंतर लेखन और पुनि-पुनि चिंतन की माँग करते रहते हैं, और माँग की मुराद पूरी करने के लिए लेखक लिखता रहता है। सबका मुजरा लेता रहता है। चाहे लिखने का मतलब कुछ भी हो।

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