ललित निबंध संचयन

हिंदी के महत्वपूर्ण ललितनिबंधकारों की रचनाएँ

Monday, September 11, 2006

5. ‘भयउ बिदेहु बिदेहु बिसेषी’


रूप प्रेम की प्रस्तवना है। मधुमती भूमिका है। नैन को बाँधता है। बैन को मौन और मन को चपल। राजा जनक राम की मधुर मूरत को देखकर और विदेह हो गए। सुध-बुध भूल गए। एकटक निहारते रह गए चकोर की तरह, विभोर की तरह, सामान्य नर की तरह। क्यों न हों विश्व विलोचन चोर कोसल किशोर को निहारकर कौ ज्ञान योग की बात फटकार सकता है ? उपास्य का दर्शन पा लेने के पश्चात उपासना कैसी ? ज्ञान-धान के परम विश्राम राम के साक्षात्कार के बाद ज्ञान-धान कैसा ? तभी तो विदेह ज्ञान-ध्यान को बिसराकरश्रई राम में रम गए और विशेष ऊँचाई पर पहुँच गए।

जरा विदेहत्व पर विचार करें। जनक जी ज्ञान की सीम थे। मुनिगण भी ज्ञान की प्यास बुझाने विदेर के पास आतेथे। अष्टावक्र जब जनक जी के पास पहुँचे, तो वे वहाँ का एक दृश्य देखकर भौंचक रह गये। अचंभित, ठगे से। उन्हें लगा कि शायद वे गलत द्वार पर पहुँच गए हैं। वापस जानेलगे,तो सुंदरियों के बीच घिरे जनक जी हँसते हुए अष्टावक्र जी को प्रणाम किया और रोका। मुनि को बैठाया। वे शान्त चित्त हुए, तब जनकजी बोले यह ज्ञान का ही पाठ था। व्यक्ति का चित्त जब किसी खास वस्तु या भाव में केंद्रित हो जाता है, तो वह अन्य सारी स्थितियों व भावों से ऊपर ऊठकर तदगत हो जाता है।

ज्ञान का पहुँच मार्ग यही है। ब्रह्म की प्रप्ति का पथ यही है।योग ासधना का उद्देश्य चित्तवृत्ति का निरोध है – ‘योगश्चित्तवृत्ति निरोधः’ छप्पन प्रकार के भोजन परोस दिये जायें, सिर के ऊपर तलवार लटका दी जाये और भोजन करने के लिए कहा जाये तो भोजन तो अंदर जायेगा पर बेस्वाद होकर। सारा ध्यान भोक्ता का लटकती तलवार पर रहेगा। यही स्थिति मन की होती है।

भगवान राम फुलबाड़ी देखकर लखन के संग गुरू विश्वामित्र के पासआते हैं। वहीं मुनिकी अगवानी के लिए जनकजी पहुँचते हैं। वहीं पर विश्व चित्त चोर राम की मधुर मूरत देखते ही देह-गेह की चिंता से ऊपर और सभी प्रकार की आसक्तियों से मुक्त विदेह सदेह हो गए, ज्ञान की गरिमा गल गई औ वे ठगे से राम रूप को निहारते रह गए –

मूरति मधुर मनोहर देखी। भयउ बिदेहु बिदेहु बिसेषी।।

अनेक दिव्य गुणों के आश्रय निधान राम में रम गए –

रमन्तेयोगि यस्मिन् दिन्यानेक गुणाश्रये।
स्वयं यद् रमते तेषु रामस्तेन प्रयुज्यते।।

यह विशेष विदेहत्व क्या था ? वह था ब्रह्मानंद को भी फी का कर देने वाला रामानन्द। नये किस्म का लोकानन्द, गृहस्थ धर्म का रस, जिसका पर्याय बनकर रूप धरकर राम जनकपुर में पधारे थे। यही कारण था कि विरागी जनक राम रूप को निहारते ही हागी हो गए। ब्रह्म सुख को भूल गए। बार-बार देखते रहे हैं। पुलकित हो रहे हैं –

इन्हहिं बिलोकत अति अनुरागा।
बरबस ब्रह्म सुखहिं मन त्यागा।।

पुनि-पुनी प्रभुहि चत नर-नाहू।
पुलक गात उर अधिक उछाहू।।

दर असल जब से जानकी जी प्रकट हुई, तभी से जनक को विशेष विदेहत्व प्राप्त होने लगा। उनका ज्ञान नेह-छोह से नहाने लगा। योग प्रेम से सिक्त होकर पुलकित होने लगा, तर होने लगा। ज्ञान जन्य सूखापन-जड़ता नष्ट होने लगे। ज्ञान साधना सूखेपन को विराग को विरसता को निमंत्रित करना है। वेद ज्ञान का पर्याय है। मजाक में ही सही, संस्कृत पंडित वैदिक को जड़ और वैयाकरण को ‘खसूची’ कहकर मजाक करते हैं। (वैदिको जड़ः) मानों महाज्ञान की सीमा जनक को राग की, प्रेम की धन्यता से भरने के लिए ही सीता जी बेटी बनकर अवतरित हुई थी। तभी तो ज्ञानी जनक को एक साधारण बाप की तरह बेटी-ब्याह कि चिंता सताने लगी थी। धनुष न टूटते देखर उनका धैर्य छूटने लगा था।
मन टूटने लगा, निराशा भरने लगी –

तजहु आस निज-निज गृह जाहू।
लिखा न बिधि वैदेही बिबाहू।।

इतना ही नहीं इस उदासी ने उनके विवेक और वाणी पर भी संयम नहीं रहने दिया –

अब जनि कोउ माखै भट मानी।
बीर बिहीन मही मैं जानी।।

यह आक्रोश समूचे समाज और देशकाल के लिए भी चुनौतीथी। वीरता का अपमान था। पौरुष के लिए ललकार थी।यही कारण था कि लखन लाल उबल पड़े। क्षुब्ध हो उठे। उन्हें अपना अपमान नहीं लगा।देश-काल की चुनौतियों को मुँहतोड़ जवाब देनेआयेराम के पौरुष का अपमान लगा। समस्त भारतवासी की वीरता का अनादर लगा और शालीनता के साथ उन्हें कहना पड़ा कि श्री राम की आज्ञा हो, तो मैं गें की तरह ब्रह्माण्ड को उछाल दूँ।

जनक सीताराम के नेह से ऐसे विदेह हो गए, ऐसे बेसुध हो गए कि ज्ञानी से जड़ कहला गए, ज्ञान की जड़ता की चादर में ढँक जाने दिया। सीता स्वयंवर में शिव-धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने की शर्त रखकर परशुराम जी से तो जड़ता का विशेषण मिला ही (कहु जड़ जनक धनुष केहि तोरा) पुरवासियों ने भी जड़ता के दोष से मुक्त नहीं किया। राम जानकी की छवि को एकटक निहारते हुए पुरवासी नर-नारी विदेह से हो गए। वे भूल गए उनके राजा जनक ज्ञानी हैं। वे विधि को गोहराने लगे कि वह जनक जी जड़ता हर लें। हमारी जैसी मति उनमें संचार करतें, ताकि वे प्रतिज्ञा भूल कर सीता का राम केसाथ विवाह कर दें और जनकपुरवासियों की लालसा पूरी होने दें –

हरुबिधि बेगि जनक जड़ताई।
मति हमारि असि देहि सुराई।।

बिनु बिचार पनु तजि।
सीय राम कर करै बिबाहू।।

सीता विवाह के लिए धनुष भंजन जैसा प्रण रखा जाना उचित विवेक का काम कम लगताहै। मंगल-मोद की घड़ी में तोड़-फोड़ जैसा कार्य उचित नहीं लगता। विवाह का मुहूर्त मिलन-महोत्सव का होता है। व्यक्ति,परिवार और समाज के बीच गँठजोड़ और ने-चोह जोड़ का अवसर होता है, फिर वह शिव धनुष था, पूज्य था। उसे धरोहर के रूप में रखने् के लिए शिव की सलाह से परशुराम जी ने जनकराज देवरातको दिया था, तोड़वाने के लिए नहीं। धनुष-बाण वैसे बी वीरताके प्रतीक हैं। राम की पहचान हैं। उसे ही तोड़ना – अपनी पहचान को खंडित करना, विवेक के औचित्य को प्रमाणित नहीं करता। परशुराम जी का प्रकटीकरण शायद अनौचित्य के विरोध के लिए ही हुआ था।
वस्तुतः ज्ञान प्रेम के बिना अधूरा होता है – भक्ति के बिना अनुष्ठान की तरह,

सोह न राम प्रेम बिनु ज्ञानू।
करनधार बिनु जिमि जलजानू।।
जोग कुजोग ग्यान अज्ञानू।
जँह नहिं राम प्रेम परधानू।।

भगवत प्रीतिके बिना ज्ञान तथा निष्काम भाव भी विभूषित नहीं होते हैं न गन्तव्य तक पहुँचा पाते हैं। जिस भोग में भाव न हो वह भोग भगवान को रुचता नहीं,दुर्योधनके छप्पन पकवान की तरह। जिस स्मरण में राग न हो, वह स्मरणीय को बाँध नहीं पाता – तोता रटन्तराम-राम की भाँति। नारद जी ने विशाल बुद्धि व्यासको अपने महाभारत जैसे महान रचना से, इस विश्वास के बाद भी कि जो महाभारत ेमं वह अन्यत्र है और जो यहाँ नहीं वह कहीं नहीं – कृत्कृत्यता बोध से वंचित देखकर साफ-साफ कहा कि व्यास जी निर्मल ज्ञान हो या यज्ञादि पावन कर्म, यदि वे अच्युत को अर्पित नहीं पाते, भक्ति भाव से वर्जित होते हैं, तो वह व्यक्ति को कृत्कृत्य नहीं कर पाते –

नैष्कर्म्यमप्यच्युत भाववर्जितं न शोभते ज्ञानमलं निरञ्जनम्।
कुतः पुनः शश्वदभद्रमीश्वरे न चार्पतं कर्मयदप्यकारणम्।।

व्यास जी को नारद मुनि की सार बात समझ में आ गयी और उन्होंने भक्ति भाव में भींग भागवत की रचना की। चिरंजीवी होने के नाते आज भी जहाँ-तहाँ हो रही भागवत कथा को देखकर वे अघा रहे होंगे। इसीतरह की तृप्ति तीर्थता की अनुभूति राम की मधुर मूर्ति प्रेम भाव को देखकर जनक के ज्ञान ध्यान की हुई होगी। खास किस्म के विदेहत्व से वह पगा होगा। राग विराग साधना और सिद्धि की भूमि मिथिला का राग पक्ष उनके भीतर जागा होगा। वह अभागा ही तो होगा, जो समस्त ज्ञान और योग, अनुष्ठान के निधान तथा फलश्रुति राम को स्वयं द्वार आये देखकर भी मुग्ध नहीं होगा।ललक पुलक तथा प्रेम से भर न उठेगा।

दरअसल विदेह की विदेहता का अधूरापन सीता अवतरण से आरंभ होकर बेटी-विवाह और विदाई तक जाकर दूर हुआ। वैसे पुत्र-पुत्री के माता-पिता होने के बाद गृहस्थी की पूर्ण अनुभूति हो पाती है।

श्रीराम भी भाव भूमि विदेह नगरी में विदेह होने ही तो आये थे। वे लीला संगिनी सीता को लेने आये थे अवश्य, परन्तु न वे दहेज में ज्ञान लेने आये थे न मर्यादा का पाठ पढ़ाने। वेतो मिथइलावासियों के सील सनेह से तर होने आये थे। और आये थे विदेह के ज्ञान में सनेह घोलने और अपनी मर्यादा को मधुमय बनाने।साक्षी है जनक की वाटिका जहाँ राम का रघवंशी मन मर्यादा को किनारे रखकर सीता के सनेह सने सौन्दर्य पर मुग्ध हो गया था। उसे वैदेही की सुन्दरता के लिए उपमा नहीं मिल रही थी। उमड़े भाव को उनकी मर्यादा नहीं रोक पाई और लखन लाल से बोल पड़ी –

सिय सोभा हियँ बरनि प्रभु आपनि दसा बिचारि।
बोले सुचि मन अनुज सन बचन समय अनुहारि।।

मिथिला की माटी की महक से, उसके सनेह शील से लालित-पालित होने के नाते कहा जा सकता है कि यह भूमि राग विराग को एक साथ जीती है। इसकी दार्शनिकता ऐसी है कि देह-गेह की चिंता से वह दूर ले चजाती ैह और संस्कृति-शील, नाते-नेह ऐसे कि घर आये पहुना को महीना भर बिलमाने वाले। आज भी नव विवाहित दूल्हे दस बीस दिन ससुराल में रहकर स्वर्गीय आनन्द में मगन हो जाते हैं – ‘श्वसुर गृह निवासी स्वर्ग तुल्यो नराणाम्।’ यह कहावत मिथिला के लिए खास रूप से प्रचलित है। श्री राम भी वहाँ मन भर रहे और प्रेम से सराबोर होते रहे। विवाह की गालियाँ खा-खाकर गदगद होते।

यहीं से प्रेम की पूँजी, जो राम ले गए उसी के बल पर जीवन भर संघर्ष करते रहे। जब भी रावण से संघर्ष करते-करते राम मन हताशा घेर लेती तो वह पृथ्वी तनयासीता की वाटिका छवि का स्मरण करता, प्रीति भरी चितवन कासुमिरन करता और निराशाके अंधकार को पार कर जाता था। नई प्रेरणा पा जाता था। गवाह है निरालाकृत राम की शक्ति पूजा –

ऐसे क्षण अंधकार घन में जैसे विद्युत
जागी पृथ्वी तनया कुमारीका छवि अच्युत।

देते हुए निष्पलक, याद आया उपवन
विदेह काप्रथमस्नेह का लतान्तराल मिलन।।

बेटी सीता और जमाता राम के सनेह में विदेह ऐसे सराबोर होते चले गए कि कन्यादान करने के बाद उनके नयनों से आँसू छलक उठे। उन्हें लगा कि आज सेमेथिली मेरी नहीं रही। परगोत्रा हो गई, वंश से बाहर की हो गई। मिथिला में कन्यादान के समय यह लोकगीत प्रायः गाया जाता है जो स्मृति को जगा जाता है, कन्याके पिता के अश्रु को आज भी ढलका जाता है। ऐसे अश्रु को छलकतेमैंने देखा है –

कन्यादान कय उठला जनक ऋषि
मोती जकाँ झहरनि नोर (अश्रु)

एतेक दिन छली सीता कुल के बेटी
आजु तेजल कुल मोर।।

जनक जी को इसलोक गीत में ऋषि कहा गया है। यह साभिप्राय कथन है।इसका आशय है कि ऋषि की तरह ज्ञानी होकर भी बेटी के बाप होने के नाते जनक आँसू को रोक नहीं पाये। बेटी विदा के समय तो विरागी बाप के ऊपर राग का रंग ऐसा चढ़ा कि धीरता भाग खड़ी हुई। ज्ञान की मर्यादा मिट गई। कण्व ऋषि भी तो शकुन्तला की विदा की बेला में रोये थे –

सीय बिलोकि धीरता भागी। रहे कहावत परम बिरागी।।
लीन्ही रायँ उर लाई जानकी। मिटी महामरजाद ग्यान की।।

चित्रकूट में पहुँचकर तो चित्त की विचित्र दशा हो गई। ज्ञान, धैर्य और लाज सभी पल्ला झाड़कर किनारे हो गये। विदेह की दशा देखकर सुर सिद्द योगी मुनि सभी विदेह प्रेम में डूबने उतराने लगे। वसिष्ठजी को धैर्य बँधानापड़ा। राम-जानकी के प्रेम में डूब रहे जनक जी को उपदेश से किनारे लगाना पड़ा। उस समय उन्हें अपना ज्ञानी होना भारी लगे लगा, जब उनसे कहा गया कि राम वन में रहें या अयोध्या लौटें, आप ही इस दुविधा से सबको उबारने की कृपा करें, क्योंकि आब ज्ञानी और धर्मधीर हैं। तब उन्हें लगा कि बहुत ज्ञानी होना भई ठीक नहीं। यहाँ आकर उन्होंने अच्छा नहीं किया। दशरथ जी ने तो राम को वन भेजकर प्राण त्याग दिये, परन्तु हम हैं कि इन्हें इस वन से उस वन में भेजकर विवेक की पड़ाई लेकर लौट जायेंगे।

सिथिल सनेह गुनत मन माहीं। आये यहाँ कीन्ह भल नाहीं।।

वस्तुतः श्रीराम को जिन-जिन ने देखा, उनके प्रेम रस का पान किया, वे सब के सब विदेह से होते यले गये। कौसल्या दशरथ ने दर्शन किया विदेह हुए –

दशरथ पुत्रजन्म सुनि काना। मानहूँ ब्रह्मानंद समाना।।
प्रेम मगन कौसल्या निसि दिन जात न जान।।

विश्वामित्र ने दर्शन पाया विभोर हुए, अहिल्या धन्य हुईं। केंवट, निषाद, शबरी जिन-जिनने देखा वे गदगद होए, नहीं हुए तो रावण जैसे राक्षस धर्मी लोग। निर्गुण निराकार ईश्वर जीव मात्रको रमाने, लीला सुख बाँटने, प्रेम में भिगोने के लिए प्रकट हुआ करते हं, सीख और आचरण देने के लिए देह धारण करते हैं, परन्तु चित्त-वृत्ति की कलुषता के कारण अभागे लोग राम मे रम नहीं पाते, उनकी लीलाओं से सबक नहीं लेपाते, इसलिए कंस जैसे लोग कृष्ण को काल रूप में देखते हैं। विदेह होने के बदले विद्वेष करत हैं। वे ईर्ष्या द्वेष, शंका, लोभ-मोह से संकुचित कलुषित दृष्टि के कारण सुंदर शुभ वस्तुओं में भी अशुभ को देखते हैं। आशंकित होते हैं। गोपी विषयक कृष्ण प्रेम सगुण ब्रह्म का ब्रजबनिताओँ के बहाने जीन के प्रतिअतिशय कृपा का उपहार है। सहस्रों गोपियों का पतित्व स्वीकार करके कृष्ण ने लोक समस्या के निदान और समाज सेवा के आयामों के महनीय संदेश दिये हैं।

लोगों को संदेश देने के लिए भगवान लीला रचते हैं, वरना अनीह ईश को अभाव कैसा ? राग-रोष कैसा ?

यद्यपि सम नहिं राग न रोषू। गहहिं न पाप न पुनु गुन दोषू।।

परन्तु प्रभु प्रेम प्रकट करने से प्रकट होते हैं।लोकको सदभाव, सदाचार को तर करने के लिए लौकिक लीला का वरण करते हैं। दुष्टों का वध और सज्ज्नों की रक्षा मात्र अवतार का उद्देश्य नहीं। उनका मर्त्यलोक में प्रकट होना मर्त्यलोकवासियों के शिक्षण-आचरण के लिए होता है –

मर्त्यावतारः खलु मर्त्यशिक्षणे।

रक्षोवधायैव न केवलं विभोः।।
- पुराण विमर्श पृष्ठ 165

जनक जी के विशेष विदेहत्व का कदाचित यहाँ संदेश है कि व्यक्ति चाहे कितना ज्ञानी-ध्यानी और मानी हो प्रेम के बिना सब बेमानी है। लौकिक जीवन को कृत्कृत्य करने के लिए देह-गेह प्रेम के साथ ही राम का सनेह आवश्यक है। समाज में समरसता और परिवार में प्रेम जरूरी है। तीव्र गति से बढ़ती बुद्धि और समृद्धि नेह-नातों के अभाव में आज किस कदर समाज और परिवार को विखण्डित कर रही है, दाम्पत्य जीवन को अशांत कर रही हैं वह किसी से छिपा नहीं है। ज्यादा ज्ञानी लोगों के दाम्पत्य जीवन ज्यादातर तलाक के हवाले हो रहे हैं। तनावग्रस्त हैं। विवाह का पावन बंधन पाबंदी या समझौता समझआ जा रहा है। और इन सबके भयावह परिणामों के भोक्ता हमारे परिवार और राज-समाज बनते जा रहे हैं। बिगड़ती सिथितियों से बचने-बचाने के लिए अवतार अवतरित होते हैं। रामावतार और उनके पात्रों-विपात्रों के चरितों का यही सब संदेश है।

प्रस्तुतिः जयप्रकाश मानस, सृजन-सम्मान

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