ललित निबंध संचयन

हिंदी के महत्वपूर्ण ललितनिबंधकारों की रचनाएँ

Monday, September 11, 2006

4. आषाढ़स्य प्रथम दिवसे


आषाढ़ का स्नेहगाढ़ प्रधम दिवस हो अथवा एक दूसरे में समा जाने वाला प्रथम माधवी क्षण, प्रथम तो प्रथम ही होता है। औव्वल। लाजवाब। अछूता। अनाघात। अपरुब। चू लेने वाली। स्मृति में छप जाने वाली। बेजोड़ घड़ी। सबके जीवन में ऐसी घड़ी आती है, पर इसे तरबदार और तड़पदार लोग पकड़ पाते हैं। रामगिरी के यक्ष को ऐसी ही घड़ी ने पकड़ लिया था।

आषाढ़ का पहला दिन था। रामगिरी की चोटियों पर बादल उतर आये थे संतप्त को तृप्त करने, पोर-पोर भिगोने, तर करने। यक्ष की घनीभूत पीड़ा को जगाने, साथ-साथ बरसने के लिए याद दिलाने। शिखर-शिखर पर मंद-मंद पवन तार पर तैरते बादलों को देखकर विरह दग्ध यक्ष का मन विकल हो उथा था और चित्त चंचल। बदली को घिय आये देखकर आबाल वृद्ध अपने-अपने स्तर से खुशी का इज़हार करने लगते हैं। धरती बूँद पाते ही उच्छवसित हो उठती है। अपनी सोंधी उच्छवास को रोक नहीं पाती। दादुर डहकने लगते हैं और मेंढक चहकने। प्रीति का इज़हार करने लगते हैं। सुखी जीव और जड़ जीव का जब यह हाल होता है तो विरही जन का तो कहना ही क्या ? उसके लिए सदा वसन्त बना रहता है

मेघालोके भवति सुखिनोsप्यन्यथावृत्तिचेतः।

कण्ठाश्लेषप्रणयिनि जने किं पुनर्दूर संस्थे ।।

- मेघदूत, श्लोक 3

मेघ दर्शन से सुखी लोगों का भी चित्त चंचल हो जाता है तो प्रेमि को प्रिया की दूरी सतायेगी ही।

हो सकता है विरह-विरह की बात आधुनिक युग को बेमानी लगे। जो युग मनुष्य को माल और मशीन बनाने में लगा हो, हाँफते ही रहना जिसकी नियति बन चुकी हो, अनापसनाप तृष्णा ही जिसका मकसद हो, उसके लिए क्या आषाढ़ का पहला दिन और क्या सावन की रिमझिम ? क्या वर्षा, क्या वसन्त ? सब बेमतलब।मतलबी के लिए मतलब की चीज ही मतलब की होती है, बाकी सब बेमायने की।

दरअसल इन्द्रियों में श्रेष्ठ मन ही जिसका मर गया हो, महघट बन गया हो, संवेदनाशून्य हो चुका हो,उसे आषाढ़ का प्रथम दिवस तो दूर, जगत की कोई गति नहीं व्यापती। ब्दल बरस-बरस के रीत जाये, रीते लोग रीझ नहीं पाते, भी ंग नहीं पाते। कोयल बोल-बोल कर थक जाये, सिर पटक ले, पर सब बेमतलब। लोभी के सामने उदारता का बखान भैंस के आगे बीन बजाना है और औंधे घड़े पर रिमझिम की बौछार जैसी है। रीझ-बूझ रहित ठूँठ और बिरस लोगों के लिए आषाढ़ का प्रथम दिवस क्या और क्या फागुन की पूर्णिमा ! तीसों दिवस और बारहो महीने उनके लिए एक जैसे होते हैं। रोजमर्रा का अंग। न मन में तरंग न अंग में उमंग। परन्तु वियोगी यक्ष का पोर-पोर प्रेम की अंतर तरंग से तरंगित था, पगा था। विरह रस में डूबा था। रीझ रिस रही थी। तभी तो वह प्रिया के प्रथम प्रेम को पाकर इतना बेसुध हो गयाथा कि उसे अपने स्वामी कुबेर को पूजा पुष्प पहुँचाने की सुध नहीं रही और हृदयहीन स्वामी के आदेश का वह दंड भुगत रहा था रामगिरी पर्वत पर। चारों ओर पहाड़ और बीच में पछाड़ खाता विरही यक्ष। पर्वत की तरह तपता मन आषाढ़ के पहले बादल को देखकर उमड़ पड़ा। उसके भीतर मेघ उतर आया। उसकी घनीभूत पीड़ा बरसने के लिए आतुर हो उठी। आठ मास तक रुका अन्तर्वाष्प आत्मीय मेघ को देखते ही सहस्रधार हो उठा। मेघ बनकर दूत बन गया।

निश्चय ही पहला कवि वियोगी रहा होगा। तभी तो क्रौंच मिथुन के वियोग जनित करुणा सेविगलित होकर उसका पहला छंद फूटा था जो आदि काव्य का स्रोत बन गया।

वस्तुतः वियोग से संयोग पुष्ट होता है। राग गाढ़ होता है। श्रृंगार रस राज बनता है। प्रियका अभाव ही वियोग है।अभाव ही वस्तु या व्यक्ति के असली भाव की महत्ता का बोध कराता है तभी जानकी हरण के समय राम इतने विकल हो गये थे िक वाल्मीकि रामायणभींग गई।उत्तर चरित में ही राम ने अपने चरित से असली साक्षात्कार कियाथा। पत्थरो को रोते देखा था। करुणा द्रवित होते देखा था।जब राम का यह हाल था तो रामगिरी के यक्ष कातो बुरा हाल होना ही था। आषाढ़ का पहला बादल, वियोग पर पहला प्रहार। दुर्बल पर दो आषाढ़ है। तड़प उठा विरही मन। इस तड़ में शामिल हो गयाथा कालिदास का बेहद संवेदनशील समूह मन। यक्ष मेघ को संदेश देता रहा और कालिदास का की कमल तार में तार मिलाकर पाती मेघदूत रचती रही। यक्ष के बहाने अपने अन्तर से साक्षाात्कार करती-कराती रही। पात्र और घटनाएँ अपने को ही खोलने के वास्तविक बहाने होते हैं। जिस रावण को तुलसीदास खलनायक के रूप में चित्रित करते हैं उसे माइकेल मधुसूदन दत्त नायकके रूप में प्रस्तुत करते हैं। यह अपने भीतर को खोलने का खूबसूरत बहाना है।

वैसे तो सैकड़ों-हजारों दिन जीवन में दाखिल होते हैं और बिना कुछ खास दर्ज कराये गुज़र जाते हैं। छाप नहीं छोड़ पाते। गिनती में नहीं आते। अनामिका नहीं बन पाते। रोजनामचा बनकरबीत जातेहैं, परन्तु कुछ पल-धिन ऐसे आतेहैं जो देह प्राण से गुज़रकर गीत बन जाते हैं, मेघदूत बन जाते हैं और बन जाते हैं इतिहास। मेघदूत के छंद कुछ ऐसे ही हैं। प्रथम दिवस औस वयस के वाष्प भी भींगे क्षणों का छंद। मंद-मंद पवन संग तैरने वाले मेघों का मन्दाक्रान्ता छंद। मधुर मिलन का क्षण

मन्दं मन्दं नुदति पवनश्चानुकूलो यथा त्वां

वामश्चायं नदति मुर चातकस्ते सगन्धः।

गर्भाधानक्षण परियान्नूमाबद्धमालाः

सेविष्यन्ते नयन सुभगं खे भवन्तं बलाकाः।।

- मेघदूतम्

प्रधम दिवस की बाते, मुलाकातें और रातें सभी प्रधम होती हैं सर्वोत्तम।यह विष्णु-दिवस जो ठहरा। विष्णुके शयन उत्थान की एकादशी तिथि प्रथमो प्रख्यातो विष्णु दिवसः, प्रथमे एकादशी इत्यर्थः - मल्लीनाथ। उत्सवी दिवस। यक्ष का पक्ष जाने भी दें और पुरुषोत्तम राम को ही देखें। जब पहली बार वे जनक वाटिका में गये थे और जानकी उनके नयन की अतिथि बनी थी, चक्षु राग के सहारे एक दूसरे के भीतर समा गये थे, तो वह प्रथम दिवस अविस्मरणीय बन गया था। मर्यादा भू ल गये थे। बार-बार गर्दन घुमा-घुमा कर ताकने लगे थे। अकबका गये थे। नयन के मीठे मसागम से रघुवंशी मनडोल उठा था

अस कहि फिरि चितए तेहि ओरा।

सिय मुख ससि भय नयन चकोरा।।

देखि सीय सोभा सुख पावा।

हृदय सराहत बचनु न आवा।।

यह प्रथम वाटिका राग ऐसा महाराग बन गया, अविस्मरणीय क्षण बन गया कि निराला के राम का मन युद्ध भूमि में भी हताशा से बचने के लिए स्मरण करता है

ऐसे क्षण अंधकार घन में जैसे विद्युत

जाकी पृथ्वी तनया कुमारिका-छवि अच्युत

देखते हुए निष्पलक, याद आया उपवन

विदेह का-प्रथम स्नेह का लतान्तराल मिलन

ज्योति प्रपात स्वर्गीय-ज्ञात छवि प्रथम स्वीय

जानकी-नयन-कमनीयप्रथमकम्पन तुरीय

राम की शक्ति पूजा

यक्ष बेचारा तो युद्ध भूमि में नहीं था। वह वनवास में था। विरह भूमि में। वह आषाढ़ केप्रथम दिवसीय मेघमाला को देखते ही आकुल हो उछा था। प्रिया के प्रथम मिलन से उठे प्रथमतुरीय कम्पन की सम्ृति ने उसे हिला दिया था। चेतनाचेतनके विवेक को बुला दिया था और स्मृति धूम-ज्योति-सलिल सन्निपात मेघ को दूत बनाने के लिए विवश कर गई थी। यह क्षण ही विवशता का होता है, विवेक का नहीं। आइए उसकीविवशता से आत्मीयता जो़ड़ें और आषाढ़ की प्रथम दिवसीय साझा अनुभूति में हम सब अपने-अपने प्रथम दिवस का स्मरण करें।

प्रस्तुतिः जयप्रकाश मानस, सृजन-सम्मान,

0 Comments:

Post a Comment

<< Home