7. तीरथराज प्रयाग में कुंभ

तीर्थ तारण धर्मा होते हैं। जो तार दे वही तीर्थ, अथवा जहाँ पहुँचकर मनुष्य तर जाये उसे तीर्थ कहते हैं – ‘तारयति यत् तत्तीर्थम् वा तरति अनेन यत् तत्तीर्थम्’। उसमें भी तीरथराज प्रयाग का तो कहना ही क्या है ! तीन-तीन पावनतम नदियों का संगम। देव नदी गंगा-स्वर्ग से पृथ्वी तक व्यास सब ताप नसावन सुरसरिता,कृष्णप्रिया लीला सहचरी यमुना और पृथ्वी-उर अन्तर वाहिनी सरस्वती की राशिभूत पावनता में अवगाहन कर कौन अपावन रह सकता है ? भगवान श्रीराम के चरणरज सेपुनीत प्रयागराज किसको पुनीत नहीं बना देता ? जंगतीर्थरूप ऋषि-मुनियों व संतों का यह तीर्थ किसे तीर्थ नहीं बना देता ? ऋषि-मुनिसंत समागम से तीर्थ भी तीर्थ बन जाते हैं ‘तीर्थो कुर्वन्ति तीर्थानि’।
बारह-बरह साल के अन्तराल से आने वाला कुंभ पर्व फिर आ रहा है – आस्था, विश्वास, उत्साह, पवित्रता और अमृत कुंभ लेकर। विश्व में बेजोड़ अमृत महोस्तव। श्रद्धा-विश्वास का महाभाव। पौराणिक गाथा का सामगान। पुण्य लूट का आह्वान। बिना किसी विज्ञापन के लाखों लोग मकर संक्रांति 14 जनवरी 2001 को प्रथम सुधा स्नान के लिए जुड़ रहे हैं। पृथ्वी के कोने-कोने से पावन होने पहुँच रहे हैं। आकाश मार्ग से देवगण ईभ आ रहे हैं अपनी उस स्मृति में स्नान करने, जो लाखों वर्ष पहले घटित अमृत मंधन की घटना की साक्षी रही है। वैसे भी मकर संक्रांति विशेष संक्रांति है। उत्तरायण होते भास्कर काल। पुण्योदय की घड़ी। हन वर्ष इसी घड़ी में मानव, देव-दानव सभी प्रयागराज के त्रिवेणी में डुपबकी लगाने व त्रिविध ताप नशाने आते हैं –
माघ मकरगतरवि जब होई। तीरथपतिहिं आब सब कोई।।
देव दनुज किन्नर नर श्रेणी। सादर मज्जहिं सकल त्रिवेणी।।
परन्तु अमृत महोत्सव में आना अलग मायने रखता है। आधुनिकता को अंधविश्वास लग सकता है, पर प्रगतिशीलता को पोंगापंथी का इजहार लग सकता है, और को और कुच लग सकता है, परन्तु यहाँ आने वाले लोग निष्प्रयोजन नहीं आते। वे आते हैं अपने छीजते विश्वास को बढ़ाने, दुनियावी एकरसता से निजात पाने, आस्था के रिक्त होते घर को भर लेने, जुड़ने-जोड़ने और बहुत कुछ पा लेने के लिए आते हैं –
अकथ अलौकिक तीरथ राऊ।
देई सवा फल प्रगट प्रभाऊ।।
सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग।
ललहिं चारिफल अछततनु साधु समाज प्रयाग।।
वस्तुतः साधु समाज-जंगमतीर्थों से तीर्थीभूत प्रयाग चारों फलप्रदान करने वाला है। ऐसा कहते हुए लोगों को लग सकता है कि यह तो अन्धश्रद्धा है। यह कुंभ का मेला आस्था का नहीं, अंधश्रद्धा का जमावड़ा है। पौराणिकता का प्रपंच है। रुढ़िवादिता का भेड़ियाधसान आयोजन है। समय और श्रम का तथा निजी और देश के धन का अपव्यय है। और भी बहुत कुछ लग सकता है। आस्थाविहीन मशीन बने इस युग को कुछ भी लग सकता है, क्योंकि सृष्टि को देखने की दृष्टि अपनी-अपनी होती है।दृष्टि भेद से एक ही मूरत अलग-अलग सूरत में दिखाई पड़ती है। कुब्जा के लिए कृष्ण मोहन हैं तो कंस के लिए काल। विभीषण के लिए राम छविधाम हैं तो रावण के लिए आँख की किरकिरी।
जाकी रही भावना जैसी। प्रभु मूरति देखी तिन तैसी।।
तथ्यतः आस्था के व्यापक स्वरूप को समझे बिना और श्रद्धा में भींगे बिना अनात्म होकर कुंभ-पर्व के सुधा स्नान को नहीं समझा जा सकता। भाव के बिना हर मूर्ति पत्थर होती है। जनक जन्म के हेतु मात्र होता हैं। देश इतिहास-भूगोल से ज्यादा कुछ नहीं होता। यह पृथ्वी मेरी माँ है और मैं उसका पुत्र, यह भाव उठता ही नहीं और राष्ट्रीयता दम तोड़ देती है। आप भाव धारे संगम के किनारे पहुँचकरक देखिये तो, आपकी अनास्था आस्था में, नास्तिकता आस्तिकता में औरआधुनिकता आध्यात्मिकता में बदल जायेंगी। विशावस बढ़ जायेगा। श्रद्धा में नहा उठेंगे। यहाँ पहुँचकर यह मेला अंधश्रद्धा का इजहार नहीं लगेगा। जड़ सृष्टि के साथ चेतन सृष्टि का जड़ाव लगेगा। उस महाभाव की अभिव्यक्ति लगेगा जिसमें डूबकर जड़-चेतन एक दूसरे के आत्मीय और मीत बन जाते हैं। भारतीय आस्था प्रकृति पर विजय की अभिलाषी नहीं, उसकी अनुरागी तथा आत्मीया रही है। कालिदास की शकुन्तला पौधों को पानी दिये बिना अन्न ग्रहण नहीं करती है। अकारण उसके फूलों-पत्तियों तक को नहीं तोड़ती। तभी तो जब वह पतिगृह जाने के लिए विदा लेती है तो ऋषि कण्व तो रोते ही हैं पादप भी रो उठते हैं। मृगी के मुख में तृण धरे के धरे रह जाते हैं। मोर नाचना बंद कर देता है।
उद् मलित दर्ग कवला मृग्यः परित्क्तनर्तना मयूराः।
अपसृत्पाण्डुपत्रा मुञ्चयन्त्यश्रूणीव लताः।।
- शकुन्तला – 4 अंक
यह है आस्था जुड़ी आत्मीयता की अभिव्यक्ति। मनुष्येतर सृष्टि के साथ मनुष्यता की अनुभूति। आधुनिक मनुष्य यह तो सतत याद रखता है कि वह सृष्टि का श्रेष्ठतम जीव है,परन्तु यह भूल जाता है कि उसकी श्रेष्ठता के लिए सृष्टि के अन्य जड़ चेतन कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। वह श्रेष्ठतर है तो प्रकृति के अन्य रूप कमतर नहीं। उन पर विजय, उनकी उपेक्षा, उनके साथ गलत सलूक अन्ततः आत्मघात है। जब, वायु, आकाश, भूमिगत सारे प्रदूषण इसी आत्मघाती कुकृत्य के परिणाम हैं। आस्थाहीन सोच के दुष्फल हैं। इन्हीं सब दुष्फलों-दुष्कर्मों से मानव जाति को बचाते रहने के लिए ये कुंभ जैसे पर्व आते हैं। तीर्थ स्नान के पीछे जुड़ी धार्मिकता का आशय प्रकृति के साथ मनुष्य के सहभाव-स्नेह का आशय है। नदी हमारी संस्कृति में मातृस्वरूपा है। वह सच में माता है। नदी घाटी सभ्यता को जन्म देने वाली, दूध जैसा जल पिलाने वाली, अमृत पिलाकर अमर कर देने वाली गंगे त्वद्दर्शनान्मुक्तिः, जिस गंगा नदी के दरस, परस, मज्जन और जलपान से आदमी तीर्थ हो जाता है, तर जाता है, तर हो जाता है, उसमें नहाना अंधश्रद्धा का प्रतीक है, ऐसी सोच मूढ़ता है। कुसोच है। जड़ता है। रामकृष्ण परमहंस कहते हैं – नदियाँ बहती हैं, क्योंकि उनके जनक पहाड़ अटल रहते हैं, शायद इसीलिए इस संस्कृति ने अपने तीर्थ स्थान पहाड़ों और नदियों में खोज निकाले थे – शाश्वत अटल और शाश्वत प्रवहमान।
निश्चय ही यह आस्था का कुंभ स्नान शाश्वत मूल्यों व धर्मबावों का स्नामन है।शाश्वत प्रवहमान जीवन मूल्यों के साथ बहना भी। यह स्नान परंपरा उस सनातन धारा के साथ हो लेना है, जिसमें अटल और चल नैतिक, सामाजिक, धार्मिक मूल्यों के जल प्रवहमान रहते हैं. परंपरा स्थिर और गतिशीलमान मूल्यों का नैरंतर्य है। परम और परा का सातत्य है। इसी नैरंतर्य का स्नान कुंभ स्नान है। पूर्वजों के मंथन प्रयास में अवगाहन है। उन संस्कारों से अभिसिक्त होना है, जो मनुष्य को आपद काल में अविचलित रह कर नदी के समान बहते रहने के लिए संस्कारित करते हैं। मंथन के लिए उत्प्रेरित करते हैं, जड़ता मृत्यु का संदेश देते हैं। यह भी कहते हैं कि मोह से मृत्यु और सत्यसे अमृत की प्राप्ति होती है –
अमृतं चैव मृत्यु द्वयं देहे प्रतिष्ठितम्।
मृत्युमापद्यते मोहात्सत्येनापयतेsमृगम्।।
- मोक्षपर्व, महाभारत
भीतर में निहित इसी अमृत को पा लेने के लिए लोग दूर-दूर से, गाँव-गाँव से शहर-शहर से, चारों ओर से ठिठुरते-उमगते धार बन जाने के लिए गंगा तट पर पहुँचते हैं। मोह की मृत्यु से निजात पाने के लिए पहुँचते हैं। अपने ठहरे-ठिठुरे ठूँठ से दुनियावी जीवन को पोटली की तरह लादे चले आ रहे हैं – चारों ओर से गंगा में मिलने के लिए अकुलाती सैकड़ों झरने की तरह। पिछले कुंभ स्नान के बारह बरस बीत चुके हैं। भीतर बहुत कुछ रीत चले हैं। बारह बरस तक बाट जोहते रहने के बाद फिर से नया बहाव देने, सिक्त तथा मुक्त करने कुंभ आया है। तम्बू ताने आया है। संतों की मंडलियों को लेकर आया है।
सुनते हैं यह तब से चला आ रहा है, जब से समुद्र मंथन से निकले अमृत घट की छीना झपटी में घट से अमृत बूँदें छलक पड़ी थीं। जहाँ-जहाँ ये बूँदें छलकीं, वे स्थान अमृत रूप हो गये। सौभाग्यशाली प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, नासिक, कुंभकोणम ऐसे ही धाम हैं। जब सूर्य एवं चन्द्र मकर राशि में होते हैं, बृहस्पति वृषभ राशि में अमावस्या होती है, तब कुंभोयग होता है। इसलिए मकर संक्रांति, अमावस्या और वसंत पंचमी का स्नान ज्यादा महत्वपूर्ण माना जाता है। पौराणिक संदर्भ के अनुसार सिंह राशि में गुरु, मेष, तुला राशि में चन्द्र, स्वाति नक्षत्र और सौर चन्द्र सापेक्ष्य सिद्धि योग – ये पाँच पवित्र योग अमृत बिंदु निपात के समय थे।
स्नान तो लोग रोज करते हैं, परन्तु पर्व-स्नान की पवित्रता, आनन्द कुछ और ही है। नल और कुएँ पर नहाना और नहाना है और नदी में नहाना स्नान है, डूब के स्नान करना है अमृत स्नान। बाहर-भीतर से लीन हो जाना है। भस्म स्नान आग्ने-मंत्र स्नान, ब्रह्म-गोधूलि स्नान (वायक) तथा जल स्नान (वारुण) इन चारों में जल स्नान का भौतिक व आध्यात्मिक महत्व ज्यादा है। नदी में नहाता हुआ अद्धालु सूर्य को अर्घ्य देता है और तर्पण के द्वारा वह ऋषि-पितरों को भी तृप्त कर पाता है।
मिथिला में कहावत प्रचलित है – ‘सुकठिक बनिज और पशुपतिनाथ के दर्शन, अर्थात जब लोग नेपाल स्थित ज्योतिर्लिंग पशुपति नाथ का दर्शन करने जाते थे तो वापस आते समय वहाँ से इमारती लकड़ियों का व्यवसाय भी कर लिया करते थे। यहाँ प्रयाग में भीस्नान के साथ-साथ गाँव वाले अपने लिए उपयोगी सामान खरीदते हैं और आवश्यकता की पूर्ति करते हैं। सबसे बड़ा लाभ उन्हें तब मिलता है जब बरसों भूले बिसरे रिश्ते के लोग उन्हें मिल जाते हैं। मिल जाते हैं। मित्र मिलते हैं। मीलाने के लिए ही तो जुड़ता है मेला। इस मेल-मिलाप के अतिरिक्त जो सादुओं का दर्शन और कथा पुराणों का प्रवचनों श्रवण संयोग होता है, वह अपने आप में अपूर्व होता है। कल्पवासियों के बीच विभिन्न अखाड़ों के सन्तों-महन्तों के मध्य कीर्तन, भजन, प्रवचन, यज्ञ-हवन अनुष्ठान प्रयाग राज का वचनामृत स्नान है। सत्संग की महिमा अघोर है। भगवान ने संतों को अपना ही स्वुरूप बताया है और कहा है कि जिस तरह सूर्य जगत एवं खुद को देखने के लिए प्रकाश देता है, वैसे ही संत स्वयं को तथा भगवान को देखने के लिए अन्तर्दृष्टि देते हैं। वे देवता, बंधु और मरे रूप होते हैं।’ –
सन्तो दिशन्ति चक्षूंषि बहिरर्कः समुत्थितः।
देवता बान्धवा सन्तः सन्त आत्माहमेवच।।
- भागवत 11-16/34
गोस्वामी तुलसीदास स्वर्ग, अपवर्ग व सुख से बढ़कर सत्संग सुख को मानते हैं। इस तरह इस सुख का आनन्द लेते हुए इस तीर्थराज में लघु भारत का दर्शन करके भई लोग धन्य होते हैं। अनेक प्रदेश के लोग, बाँति-भाँति की बोली, वेष, रूप-रंग, अखंड भारत का दर्शन। सामाजिक सभ्यता-सेस्कृति की झाँकी पाकर और मन की क्षुद्रता, क्षेत्रीयता, जातीयता को बहाकर निकालकर लोग लौटते हैं अपने घर। यही अमृत स्नान है। यही पर्व स्नान का आशय है। निर्मल वर्मा जी के शब्दों में – “कुंभ मेला अपने में एक बहता, अलिखा महाकाव्य है – गरीबी, गौरव, सुख, यातना को एक कड़ी में पिरोता हुआ, बालू पर मनुष्य की भाग्य रेखा को अंकित करता मिटाता हुआ।”
धर्मयुग – 29.1.89 पृष्ठ 14
प्रस्तुतिः जयप्रकाश मानस, सृजन-सम्मान
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