ललित निबंध संचयन

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Saturday, September 16, 2006

6. पश्य देवस्य काव्यम्



राम लीला का काव्य यदि रामायण है, रामचरित मानस है, महारास का वाग विकास यदि श्रीमद् भागवत, सूरसागर है तो देव लीला का छंद प्रकृति। जरा और जीर्णता से रहित, रमणीय, नवरस रूचि (विषद आजिर) क्षण-क्षण में नवता धारण करने-रमाने, ललचाने, रिझाने डुबोनेवाली प्रकृति का आंगन। पल-पल परिवर्तित प्रकृतिवेश, किसे नहीं आवेशित कर लेता है, खींच लेता है। अनपने मंगल आजिर में लाखों विहारी को विहार करने के लिए न्यौता देता है और आकर्षण ऐसा कि नवल किशोरी-किशोर तो विभोर होकर विहार करते ही हैं, अधरस वय भी पीछे पग नहीं देती –

नव वृंदावन नव नव तरुगन
नव नव विकसित फूल।
नवल बसत नवल मलयानिल
मातल नव अति कूल।।2।।
बिहरइ नवलकिशोर
कालिंदी –पुलिन कुंज वन सोभन
नव नव प्रेम विभोर।।4।।
नवल-रसाल-मुकुल-मधु मातल
नव कोकिन कुल गाय।
नव युवी गन चित उमताई
नव सर कानन धाय।।6।।
- विद्यापति

अब आप ही बताइये कि नव रस रूचिर कानन काव्य, क्या कभी जहा जीर्णता से ग्रस्त हो सकता है ? राम कथा-काव्य केलिए भी कहा गया है कि जब तक गंगा है, सागर का विस्तार है, तब तक संसार में रामायणी कथा कही-सुनी जाती रहेगी। इस कथा काव्य की अमरता का उपमान कानन का काव्य ही है। देवताओं की तरह काम रूप धारण करने वाली प्रकृति कभी न रीतने-बीतने वाली शोभा का आगार, विराट और बीहड़, भयंकर और अभयंकर-शुभंकर शिव की तरह, वामन विष्णु के समान। सृष्टि के प्रलय के समय भी प्रकृति प्रकृति की लय नहीं टूटती –

उषा सुनहली किरण उगलती
जय लक्ष्मी-सी उदित हुई ।
उधर पराजित काल रात्रि भी
जल में अन्तर्निहित हुई।।

ऐसी मोहिनी ममतामयी प्रकृति को मरणधर्मा मनुष्य अपने ही जैसा समझ बैठा है, जो जैसा होता है, दूसरे को भी वैसा समझता है। इसी नासमझई ने आदमी तो आदमी, ईश्वर तक को मृतमान लिया है। कविता मर गई, विचार मर गया, केवल वह जीवित है, प्रकृति पर विजय पाने के लिए। विजय की प्रक्रिया में हासिल हुआ कम और खो गया ज्यादा। विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जाना, इसी खो गये की भरपाई की दिशा में प्रयास है। पर्यावरणविद् की चिंता और चेतावनी बड़े-बड़े नगरों की आक्रांत करने वाली प्रदूषण की दिन-प्रति-दि विकराल होती समस्याएँ हाथ के कंगन जैसे आँखों के सामने हैं, परन्तु दृष्टिहीन आरसी के सामने होने पर भी कुछ नहीं देख पाता।

पृथ्वीपुत्र प्रकृति के कुछ रहस्यों का भेद पा लेने पर उच्छवसित है – उस बौने की तरह जो नीचे झुकी डालियों को छूकर सोचता है कि मैंने आकाश छू लिया है। अपने आपको वामन विष्णु समझने की भ्रांति में वह विराट की अभिव्यक्ति को आक्रांत करने की कोशिश करता है।आदमी की औकात बताने के बहाने, अनन्त का अहसास दिलाने प्रकृति बीच-बीच में तांडव लीला रचती रहता है, पर थेथर आदमी उससे भी सीख नहीं ले पाता – उस अपराधी की तरह, जो बार-बार जेल जाकर भी अपराध के कुकर्म से बाज नहीं आता है। परिणामतः रूद्र का तीसरा नेत्र खुलता है। प्रकृति का रौद्र सर का पन्ना पलटता है – अनावृष्टि, जल प्लावन, भूकम्प, प्रचंड ताप और जीवन को जमा देने वाले शैत्य के पन्ने। प्रदूषण और महामारी के पृष्ठ। विनाश के सिलसिलों का अध्याय। दुख तो यह है कि इन अध्यायों का सिलसिला आरंभ होने पर निर्दोष आम हीतबाहज्यादा होता है, वह खास नहीं, जो प्रकृति के अपमान का असली अपराधी है। कहाजाता है कि “कुत्ते कभी आग में नहीं जलते।”

प्रकृति देव काव्य हैं, इस बोध से विहीन विकासवादी दृष्टि विकास के नाम पर विकृति बढ़ा रही है – एलोपैथी दवा की तरह, जो एक रोग को शांत करती है तो दूसरेरोग को पैदा करती है। भारतीय मनीषा विकासवादकी पाश्चात्या सोच बिल्कुलअलग रही है। अर्थ को पुरुषार्थ का दर्जा दिया गया, परन्तु आर्थिक प्रगति के कारणप्रकृति पर विजय प्राप्त करने की बात कभी नहीं सोची गई। उसने पर्यावरण पर आक्रम्ण कभी नहीं किया। उसे रौंदने की बजाय उसने उसके साथ आत्मीयता स्थापित की। उसने उसे धार्मिक, मनोवैज्ञानिक रूप से अपने सुख-दुख में शामिल किया। भारतीय अवतार कच्छप, मत्स्य, वराह, नरसिंह उसके पीपल, वट, आम्र, सूर्य-चन्द्र, नाग नग, चूहे, गरूर सभी प्रकृति के विविध रूप हैं। इन सबके प्रति प्रदर्शित पूजा भाव और अभारतीय दर्शन की दृष्टि से पिछड़ापन का सबूत हो सकता है, पर सचाईतो यह है कि भारतीय दार्शनिक विचरधारा से ओतप्रोत अभिव्यक्ति है। यह अभिव्यक्ति हमारे मिथक और विश्वास का आत्मीय इजहार है। “सियाराममय सब जग जानी” का बोध है। प्रकृति पुरुष केसहभावु से यह सृष्टि विकसित होती है, इस दर्शन की स्वीकृति है, सम्मान है।

वह दर्शन ही क्या जो आचरण का हिस्सा न बन पाये। वह विचार ही का जो कमोबेश आयार में शामिल न हो पाये। सर्वेभवन्तु सुखिनः कह देने मात्र से सभी सुखी नहीं हो जाते, जब तक सभी लोग सबके सुख का ख्याल न रखें, वैसा आचरण न करें। तभीतो भारतीय जन ग्रह-नक्षत्र,गगन-पवन, अग्नि-आकाश, पृथ्वी-पानी सबको देव स्वरूप मानकर उन्हें अपने सुख-दुःख में शामिल करते हैं। जब सूर्य-चन्द्र ग्रहण के समय कष्ट में होते हैं तो लोग उनकी मुक्ति के लिए, कष्ट निवारण के लिए पूजा-पाठ करते हैं, घंटों नदी जल में खड़े होकर प्रार्थना करते हैं।

दरअसल यह अंधविश्वास नहीं, अपितु उपकृत की उपकर्ता के प्रति कृतज्ञता, श्रद्धा, आत्मीयता जैसे भवों की अनौपचारिक अभिव्यक्ति है। देव से दान पाते हैं, प्रकाश भी, इसलिए वे देव हैं। देने वाले के प्रति पाने वाले का फर्ज बनता है कि वह उसके प्रति अपना श्रद्धाभाव प्रकटकरे। अपनापन दिखाये। “धन्यवाद” जैसे औपचारिक शब्दों का प्रयोग करते हुए निपटा न दे। प्रकृति देवी के प्रति पूज्य आत्मीय दृष्टि पूजाय-पूजक का परस्पर भवन का भावन है। भावों को उत्साहित व आनन्दित करने की क्रियात्मिका भावना। इसी पारस्परिक सौमनस्य एवं व्यवहार्य भाव को बढ़ाने केलिए गीता कहती है कि मानव और देव एक दूसरे को भावित करें और श्रेय प्राप्त करें –

देवान् भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।
परस्परं भावयन्तः श्रेयमवाप्स्यथ।।

हमारी संस्कृति-जीवन शैली निर्गुनिया नहीं कि दूसरे के गुण को भुला दें, उपकार की उपासना न करे। सगुणोपासक यह संस्कृति दुर्वादल श्यामल श्याम और तरुण अरुण राजिवनयन राम का उपासक है। मूर्त के द्वारा अमूर्त की आराधना में निपुण स्थूल के द्वारा सूक्ष्म का अहसास कराने में कुशल,। प्रकृति की विभूतियों में देव दर्शन करने-कराने में सिद्ध। हिमालय को देवतात्मामानागया,गंगा देव नदी मानी गई है – जिसके दर्शन पर सन मज्जन से पुनीत हुआ जाता है। गोवर्धन यदि कृष्णरूप है तो समस्त नदी मातृदेवता। केवल कथनी में नहीं, करनी में भी। आज भी लाखों लोग गोवर्धन और नर्मदा की परिक्रमा करते हैं। हरिद्वार से गंगा जल लेकर रामेश्वर में शिवाशीश का अभिषेक करने जाते हैं। नदी तट पर जुड़ने वाला कुंभ पर्व, मेला नहीं, पर्व है। अमृत महोत्सव। लाखों लोगों को इस अम-त पर्व पर नहाते देखकर पर्व भी नहा उठता है, पावन हो जाता है, लाखों की श्रद्धा पाकर गदगद हो जाता है., स्वयं गंगा नहा उठती है – श्रद्धा जल से। इस तरह के मेले के आयोजन के लिए जहाँ पाश्चात्य जगत अरबों रुपया विज्ञापन में खर्च करता है। वहाँ इस देश में केवलश्रुति परम्परा और पंचांग के माध्यम से लोग ऐसे जुड़े आते हैं कि भीड़ सम्हाले नहीं सम्हलती। श्रद्धा का वह बेजोड़ उदाहरण विश्व में खोजे नहीं मिलता। अद्वितीय भक्तिभाव। अप्रतिम सनातन प्रकृति पूजन। वहगमन के प्रसंग में राम सीता को वन जाने से रोकते है, वन में होने वाले कष्टों का खौफ दिखाते हैं और घर में रहकर, सास-ससुर की सेवा करने के लिए सलाह देते हैं, परन्तु सीता की सहचरी प्रकृति से आत्मीयता वन देवी और वन देव को ही सास-ससुर सम देखती है –

वन देवी वन देव उदारा।
करिहिं सास-ससुर सम प्यारा।।

यह है मानव का प्रकृति के प्रति महाभाव। सगुण संस्कृति का व्यापक विस्तार, अप्रत्यक्ष देवों का प्रत्यक्ष रूप। मानो तो देव, नहीं तो पत्थर। मानने से ही हिमालय पत्थर नहीं, देवतात्मा है, पार्वती के पिता, मैना के पति। देश का वरदान। आप मानसरोवर तो दूर, केवल केदारनाथ या बद्रीनाथ चले जाइए। आप विदेह हो जायेंगे। इसी देह से स्वर्गलोक पहुँचने का सद्यः अहसास। युधिष्ठिर के स्वर्गारोहण की समृति-पुराण प्रत्य़क्ष होता-सा जान पड़ेगा। कालिदास का यहग छंद अहसास की अभिव्यक्ति है –

अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा।
हिमालयो नाम नगाधिराजः
पूर्वापरो तोयनिधिः वगाह्य।
स्थित पृथिव्यांमिह मानदण्डः।।
- कुमार संभवम्

जैसे रामायण और महाभारत भारतीय काव्य परंपरा के उपजीव्य रहे हैं वैसे ही देव काव्य प्रकृति भी। वेदों में ऊषा, अग्नि, गगन, पवन केन्द्रस्थ हैं तो “मेघदूत” मेघमाला की विश्व में बेजोड़ कृति है। विद्यापति, सूर, तुलसी के पद-प3बंधों में प्रकृति के अनुबंधों का गान है। छायावाद तो प्रकृति का गीला गान ही है, आत्मीय राग, निजता का नैवेद्य –

यमुने तेरी इन लहरों में
किन अधरों की आकुल तान
पथिक-प्रिया-सी जगा रही है
उस अतीत के नीरव गानि।
बता कहाँ अब वह बंशीव ?
कहाँ गये नटनागर श्याम ?
चलचरणों का व्याकुल पनघट
कहाँ आज वह वृंदाधाम ?
– निराला – यमुना के प्रति

हकीकत तो यह है कि प्रकृति हममें समाई हुई है और हम उसमें। मनुष्य भी प्रकृति काव्य कासुंदर पृष्ठ है। नैरंतर्य क्रम में अजर अमर पृष्ठ।क्या यह वैज्ञानिक सत्य नहीं है कि मनुष्य 26 प्रकार के परमाणुओं का संघात है ? क्या यह धार्मिक विश्वास मिथ्या है कि यह शरीर पंचभूतों का मधु मिश्रण है। कृष्ण जब कहते हैं भूमि, जल अनल, अग्नि वायु, मन, बुद्धि, अहंकार सब मेरी प्रकृति है, मुझसे कुछ भी अलग नहीं है –

भत्तःपरतरंनान्यत् किञ्चितदस्ति धन जय।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव।।
- गीता 616

जिस देश का ऐसा दर्शन हो,जो आत्म से अन्य को अलग नहीं मानता हो, अन्य को हेयया हेल न समझता हो, जहाँ ऐसे विश्वास और मिथक जीवन जीने की सहज प्रक्रिया में अभिव्यक्त होते हों कि सारा जगत “सियाराममय” है, प्रकृति-पुरुष का प्रतिरूप है, वहाँ प्रकृति प्रतिपक्ष कैसे हो सकती है ? उस पर विजचय की बात कैसे सोची जा सकती है ? रावण सोच सकता है, राम नहीं। राम ने सामर्थ्य होते हुए भी समुद्र से रास्ते के लिए अभ्यर्थना की थी, इस अभ्यर्थना को दूत से सुनकर रावण को हँसी आ गई थी –
सुनत वचन बिहसा दससीसा। जौ असि मति सहाय कृ कीसा।।
सहज भीरू कर बजन दृढ़ाई। सागन सन ठानी मचलाई।।
- सुंदर कांड, दोहा – 56

वास्तविकता तो यह है कि भारतीय वैदिक काल से प्रकृति को अपना प्रतिपक्ष न मानकर सहचरी मानते आए हैं। उसकी पूजा करते आये हैं। पूजक में शोषक की सोच आ ही नहीं सकती। वह प्रेम कर सकता है, वह गंगा में अस्थि विसर्जन कर एकमेव हो सकता है। वैदिक कवि जब जिज्ञासा भाव से ओतप्रोत होकर भूमा से प्रार्थना करते हैं कि उसके सूर्यचन्द्र, पवन-गगन समस्त पर्यावरण मधुमय हो. तो वह अनुकूल-सहचरी के लिए ही कामना करता है।

मधुवाता ऋतायते मधुक्षरन्तिवः।
मार्ध्विर्नः सन्तवौषधीः मधुनक्तमुतोषसि मधुमत्पार्थिवं ग्वं रजः।
मधु पौरस्तु नः पिता।
मधुमान्नो वनस्पतिर्मधु म्नस्तु सूर्यः माध्वीर्गावो भवन्तु नः
ऊँ मधु-मधु-मधु

कण्व ऋषि जब अपने आश्रम पादपों-लताओं से कहते है – “जो शकुन्तला तुम्हारी प्याशांत किये बिना जल नहीं पीती थी, पुष्पभूषण प्रिय होने भी स्नेहवश वह तुम्हारे फूलों को नहीं तोड़ती थी, तुम्हारा प्रथ-प्रथम खिलना उसके लिए उत्सव-जैसा होता था, वह तुम्हारी प्रियसखि पतिगृह जा रही है। उसे विदाई दे दो।विदाई देने का विधान कितना मर्म महोर है। मृगी मुँह की घास उगल दे रही है। मयूर ने नाचना बंद करि दिया है। पादप-लता पीले पत्ते गिरा-गिराकर मानों आँसू से अभिषेक कर रहे हैं।”

पांतु न प्रथमं व्यवस्यति जलं युसम्माव्सवपीतेषु या
नादत्ते प्रियमण्डनापि भवतां स्नेहेन या पल्लवम्
आद्ये वः कुसुमप्रस्तिसमये यस्चया भवत्युत्सवः
सेयं याति शकुन्तला पतिगृहं सवैरनुतायम्।।
उदगलितदर्भवकला मृण्यः परित्यक्तन नर्तना मयूराः।।
अपसृतापाण्डुपत्रा मुञ्चन्त्श्रूणीव लताः।।
- शाकुन्तलम 4/8-11

यह हे इस मधुमय देश की संस्कृति का प्रकृति के प्रति सलूक और सरोकार।
प्रसाद का कवि जब नाविक से निवेदन करता कि तुम मुझे वहाँ ले चलो भुलावा देकर जहाँ सागर लहरी आकाश से मनुहार की बातें कर रही हों, पृथ्वी के कोलाहल से दूर ले चल नाविक –

ले चल वहाँ भुलावा देकर
मेरे नाविक। धीरे-धीरे
जिस निर्जन में सागर लहरी
अम्बर के कानों में गहरी –
निश्छल प्रेम कथा कहती हो
तज कोलाहल की अवनि रे।
- लहर

तो यह मधुमय देश की कवि का जीवन से पलायन नहीं, उसके मधुमय क्षणों एवं संवेदनशील पक्ष का आत्मभावन है। सहचरी प्रकृति की आत्मीयता का सम्मोहन है। अपने आपको भुलावा देना नहीं, अपितु कोलाहल को भुलावे में डालना है। ईर्ष्या-द्वेष, मार-धाड़, तनाव-तिमिर से हटकर निश्छल प्रेम की दुनियाँ में खो जाना है, ताकि शक्ति संचय करके जिंदगी के जद्दोजहद का सामना किया जा सके। सप्ताहांत में सैकड़ों मील सफर करके वादियों की गोदी में पिकनिक के बहाने खो जाने वाले पश्चिम के प्रकृति प्रेमी लोग क्या पलायनवादी कहे जा सकते हैं ? नहीं, यह रोजमर्रा की ऊब-डूब से निजात पाने की प्यास है। मानसिक शारीरिक थकान खारिज कर फिर से संघर्ष केलिए तत्पर होने की अनजानी प्रतिक्रिया है। आदिम साहचर्य का भीतरी अर्ज है। सुकूँ पानेका सबब है। देव काव्य में रमने की ललक है। इसी भीतरी ललक और मांग के मद्देनजर प्रकृति से दूर-दूर जा रहे लोगों से रिलके अर्ज करते हैं –

“आपको प्रकृति की तरफ जाना होगा। दुनिया के आदि पुरुष के समाने वह सब कहने की कोशिश करनी होगी, जो आप देखते हैं, अनुभव करते हैं, प्रेम करते हैं, खो देते हैं।” – निर्मल वर्मा – पत्थर और पानी, पृष्ठ 86

रिलके आज कहते हैं, पर वैदिक कवि जाने कब से कहते आ रहे हैं – “प्रकृति देवों का काव्य है, जरा-जीर्णता जिसे छूती नहीं। उसे देखो हमेशा उसका सरोकारी बने रहो, तुमसे भी जरा-जीर्णता दूर रहेगी” – पश्य देवस्य काव्यं न ममार न जीर्यति।

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