ललित निबंध संचयन

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Saturday, September 16, 2006

9. होने का अर्थ



‘होना’ क्रिया है। है, हूँ, हैं, था, थे, होंगे, हो सकता है, हो सकता था, हो सकेगा, हुआ होता, हो रहा है आदि-आदि होने के बहुत सारे रूपों में आदमी उदय से लेकर अस्त तक होता रहता है। अपने को अर्थवान बनाता रहता है।

शब्दों के अर्थ होते हैं। व्यक्ति व वस्तुके भी अर्थ होते हैं। अर्थ शब्द रहित शब्द शोर है तो होनेपन के अर्थ से रहित व्यक्ति हाड़-मांस का पिंड, गोबर-गणेश, मिट्टी के माधो। मनुष्य मनुष्येतर सृष्टि से इसलिए श्रेष्ठ है कि वह मनन धर्मा है। चेतना का विशिष्ट रूप है। सच्चिदानन्द का विशेष प्रतिरूप है। व्यक्त स्वरूप है। वह निरंतर अपनी सृजनशीलता के विविध रूपों के द्वारा मनुष्येतर सृष्टि से पृथक पहचान बनाता रहता है। अपने होने की सार्थकता की तलाश क्रियाओं के द्वारा करता रहता है। सर्वांगपूर्ण की बात जाने दें, विकल अंग सूरदास गीत से, गूँगा मूर्तिगढ़ के बछरा के चित्र उकेरकर लंगड़ा वाद्य बजाकर भाँति-भाँति से परम रचनकार को और अपने आसपास को अपने होने का प्रमाण देते रहते हैं।

‘होना’ क्रिया पद है। मतलब यह है कि व्यक्ति कर्म के द्वारा अवयक्त की महिमा को प्रकट कर सकता है. अपनी महिमा के प्रकटीकरण के सर्वोत्तम माध्यम के रूप में कदाचित अव्यक्त को ही चुना है। वह अवतरित होकर विविध लीलाओं के द्वारा अपने अवतारत्व का विशिष्ट बोध स्वयं कराता है। दसों अवतार एक जैसे नहीं होते। वह हर युग में अपनी संभवता की अलग-अलग पहचान कराते हैं और मनुष्य रूप धारण करने का अर्थ प्रतिपादित करते हैं। जितने संत और महापुरुण हुए हैं, कोई अहिंसा के, कोई करुणा के, कोई सेवा के तो कोई परोपकार के मिथ बन गए हैं। कवि कोकिल, खेलन कवि के रूप में यदि विद्यापति का काव्य व्यक्तित्व जाना जाता है तो सूर पुष्टिमार्ग के जहाज के साथ-साथ वात्सल्य एवं श्रृंगार के सूर के रूप में। कबीर अपनी पहचान कराते हुए हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में – “ऐसे थे कबीर, सिर से पैर तक मस्तमौला, स्वभाव से फक्कड़, आदत से अक्खड़ भक्त के सामने निरीह, भेषधारी के आगे प्रचंड, दिल के साफ, दिमाग के तुरुस्त, भीतर से कोमल, बाहर से कठोर, जन्म से अस्पृश्य, कर्म से वंदनीय” – कबीर पृ.167

जाहिर है कि अवतार सहित संत साहित्यकार, अन्य महापुरुष सभी, जो गाथा के रूप में गाये जाते हैं और मानवता की उत्कृष्ट पहचान हैं, गौरव हैं, मूल्य हैं, होने के अर्थ हैं, वे सब सीख-संकेत प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से देते रहते हैं कि मनुष्य कर्म से महान बनता है, ‘होने’ पहचान बनता है, जन्म से नहीं। रामचार भाई, थे किन्तु जो राम की पहचान बनी वह दूसरे भाईयों की नहीं बन पायी। जो कृष्ण की बनी वह बलराम की नहीं बनी।

‘होने’ की पहचान सद् और बद दोनों तरह की होती है। बहुतों के आत्मीय, अनुकूल और सहज आकर्षण का केन्द्र बन जाना, मानवता को कृतार्थ करना सद् पहचान के लक्षण हैं। इसके विपरीत बद पहचान के लक्षण हैं। दोनों तरह के लोग मिलते हैं, अपितु दूसरी तरह के लोग गिनती में ज़्यादा हैं। कलियुग और कलयुग के दुष्प्रभाव से बदनाम लोग ज़्यादा मिलते हैं, परन्तु याद रहे गुमनाम से बदनाम अच्छा है। कम से कम बुरे के रूप में ही सही, राम के साथ रावण और कृष्ण के साथ कंस तो याद किये ही जाते हैं। सुबह-शाम यों ही खुद को तमाम करना, रोजमर्रे में अकारथ करना हीरा जनम को मिट्टी पलीद करना है। “उदर भरन कारने जनम गँवायो सारा”। बड़े भाग्य से चौरासी चक्कर लगाने के बाद यह सुर दुर्लभ मानुष जनम मिलता है। इस अमोल को माटी के मोल गँवा देना, लोक-परलोक सुधारे बिना गुर गोबर कर देना निहायत निखट्टूपन है।

अवसर बीत जाने पर पछताते रहना बची खुची संभावनाओं को भी गारत करना है। भला इसी में है कि व्यतीत से सबक लेकर शेष को विशेष बनाएँ। न सही महापुरुण, पौरुषवान तो बने। जब तक सामान्य से हटकर अपने किये को दर्ज नहीं कराया जाता, अपनी अस्मिता से लोगों को वाकिफ नहीं कराया जाता तब तक व्यक्ति का होना न होना एक बराबर है। इसका मतलब यह कतई नहीं है कि डॉक्टर नहीं बन सके तो डाकू बन जायें, समाज सुधारक नहीं रो सके तो बिगाड़क बन जाएँ। बनने या होनेका सही मतलब है कि अपनी सृजनशीलता औरस्वतंत्र चेतना का अधिकाधिक बेहतर इस्तेमाल करना। “मनुष्य की स्वतंत्र चेतना और सृजनशीलता ऐसे तत्व हैं जो उसे अन्य प्राणियों से अलग करते हैं। स्वतंत्रचेता होने का तात्पर्य ही उत्तरदायी होना – किसी बाह्य सत्ता के प्रति नहीं, बल्कि अपनी चेतना के प्रति उत्तरदायी।” – नन्दकिशोर आचार्य – संस्कृति का व्यारण, पृ.- 11

अपनी चेतना के प्रति उत्तरदायी होना ही नैतिक होना है, मनुष्य होना है, सृजनात्मकता को संभावनाओं की हद तक ले जाना है। उत्तरदायित्व का यह बोध अपने साथ अन्यु गुणों को भी समेटता है, जो गुण आदमी को आदमी होने में सहायक होते हैं। होने के मार्ग में अवरोध खड़ा करने वालों के विरुद्ध संघर्ण और असहमति जताने के लिये तैयार करते हैं।

सभा सभ्यों की होती है और ससंद सद् मनुष्यों की। सभा और ससद सभ्य इसलिए कहलाती है कि वह सब के प्रति उत्तरदायी होती है, परन्तु जब वह असद् वृत्तियों से लैस लोगों का जमावड़ा बन जाती है, धृतराष्ट्र जैसे राजा और दुर्योधन जैसे सेनापति नियुक्त करती है तो नियति से ही क्रूर सत्ता द्रौपदी के चीर हरण तथा अहिल्या के शील हरण में संकोच नहीं करती। उत्तरद्यित्व के भाव से उपजी नैतिकता उसके लिए बेमतलब होती है। मतलब की होती है सत्ता। सत्ता का इस्तेमाल। कभी न तृप्त होने वाली तृष्णा का भोग। किन्तु यह भी वास्तविकता है कि कोई न कोई विकर्ण सभा में होता है जो अपने होने के साथ ही सभा के होने को भी अर्थ देने की हिम्मत करता है। भले धर्मवृंद भीष्म अपनी थोथी निष्ठावश विवश हों, पर ज्ञानवृंद द्रोण समझौतावादी बन जाएं, कर्ण बदले के कुभाव में आँख मूँद कर समर्थन कर रहे हों, नीतिवृंद विदुर धकिया दिये जाएं, किन्तु विकर्ण जैसे लोक उत्तरदायी चेतना का इज़हार किये बिना नहीं रहते। द्रौपदी के दाँव पर चढ़ाये जाने और चीरहरण मे विरोध में आवाज उठाये बिना नहीं रुकते। (महाभारतः सभापर्व, 61/21,22) भले ही नक्कारखाने में तूती की आवाज दब जाये, पर कवि की संवेदना उसे सुनती है। व्यास उसे इतिहास में दर्ज करता है। विकर्ण का होना हर सभा-समाज के लिए महत्वपूर्ण होता है। लात खाकर भी रावण की सभा में विभीषण का बने रहना, उसकी अमानवीय नीतियों का चाहे-अनचाहे समर्थन करते रहना या तो भाई-भतीजावाद का उत्कृष्ट उदाहरण हो सकता है या असभ्य सभासद होने का प्रमाण, क्योंकि सभासद होकर सभासदों के दोषों को जानते हुए भी चुप रहना, अनभिज्ञता प्रकट करना एक प्रकार का अपराध है, दोष है –

न सभां प्रविशेत् प्राज्ञः सभ्यदोषानिनुस्मरन्।
अब्रूवन् विब्रूवनज्ञोनरः किल्वषमश्नुते।।
- भागवत 10-44-10

स्प्ष्ट है ‘चीर हरण’ के साक्षी महारथियों के बी विकर्ण का विनम्र विरोध भी बड़ा महत्वपूर्ण था और वहाँ उपस्थित होने को सार्थक सिद्ध कर रहा था। उसकी उत्तरदायी स्वतंत्र चेतना का इज़हार कर रहा था। उसे उन महारथियों से ज्यादा महत्वपूर्ण सिद्ध कर रहा था, जो उससे वय, बल, ज्ञान, धर्म, नीति में अधिक प्रतिष्ठित कहलाते रहे। विवेक को मारने या ओछा बनाने के बजाय विरोध जताना ज्यादा बेहतर है. विवेकहीन श्रद्धा जताने से श्रेयस्कर है असहमति जताना – नचिकेता की तरह। धृतराष्ट्र की संसद में रहकर उसकी अंधी नीतियों का समर्थन करते रहने से कहीं अच्छा है वहाँ से हट जाना विदुर की तरह। नीति या अनीति केपक्ष में लड़ना अनिवार्य हो तो नीति के पक्ष में लड़ना उत्तम है – युयुत्सु की तरह। भयाक्रान्त और दास बनकर जीने से सुन्दर है स्वाधीन होते तक लड़ते रहना – महात्मा गांधी की तरह। रिरियाते, घिसटते जिंदगानी और दूसरे की मेहरबानी पर जीते रहने से बेहतर है कुरुक्षेत्र में लड़ते-लड़ते वीर गति प्राप्त करना।

जो मुझसे हुआ नहीं
वह मेरा संसार नहीं
कोई लाचार नहीं
जो वह नहीं है
वह होने को
– श्रीकान्त वर्मा, समाधि लेख

ठीक है कि वह मेरा संसार नहीं है जो मुझसे हुआ नहीं, किन्तु आदमी लाचार भी तो है अन्यों के संसार के समान होने को। जीने के लिए उसे वह भी करना पड़ता है जो वह नहीं चाहता है। वह जो नहीं होना चाहता, वह भी उसे होना पड़ता है, करना पड़ता है, बनना पड़ताहै। क्या उग्र विरोधी या उग्रवादी होने का मतलब यह नहीं है कि वे कहीं न कहीं सामाजिक, राजनीतिक व सत्ता के शोषण से उपजे हुए लोग हैं ? मंथरा की मति मारी जाने से क्या राम-सीता को वनवास की पीड़ा से नहीं गुज़रना पड़ा ? क्यातापस की तरह रहना चाहकर भीवनवास के दिन भी काटे जा सके ? रावण जय भय से आशंकित राम की मर्यादा क्या अपनी ही सीमा सेखा को नहीं लांघ जाती है ? पलायन में मुक्ति नहीं। भागने से उबारा नहीं –

तुम लोभ मोह अहंकारा। मद क्रोध बोध रिपु मारा।।
मैं एक, अमित बटपारा। कोउ सुनै न मोर पुकारा।।
भागेहु नहि नाथ उबारा। रघुनायक करेहुँ सँवारा।। - विनय पत्रिका, पद – 125

ठीक है कि विनयवश तुलसी संभार के लिए रघुनाथ क पुकारते हैं, किन्तु असली बात जो वे यह कहना चाहते हैं वह यह कि व्यक्ति भागकर भी मुक्ति नहीं पा सकता। उबार के लिए दुर्निवार विषम परिस्थितियों से जूझना उसकी मजबूरी और जरूरी दोनों है। होने की यात्रा में यात्री अकेली होता है और बटमार अनेक। बटमारों के भय से यात्रा करना ही छोड़ देना नकारा बटोही साबित होना है। अतः लाचारीवश अमानुष हो सकता है, और कुछ हो सकता है तो व ‘स्व’ की तलाश तो करे। यदि सच में मनुज ब्रह्म का आंश है, तो वह अपने इस ‘है’ को कई तरह से अर्थवान बना सकता है। ‘होने’ का हमारा अर्थ विवादी नहीं, संवादी है, घटाव नहीं, जोड़ है। पाश्चात्य अस्तित्ववाद की अवधारणा की तरह नहीं, कि जहाँ अन्य को नरक समझा जाता है। नरक समझकर अन्य को रौंदा जाता है। दुसरे कि स्वतंत्रता को नकारा जाता है। उपनिवेशवाद को प्रोत्साहित किया जाता है। शोषण को उकसाया जाता है। दूसरे धर्म के मानने वाले को काफ़िर समझकर कत्ल किया जाता है। व्यक्ति को बाज़ार नहीं कुटुम्ब में तब्दील करो। जो व्यवहार अपने को प्रतिकूल लगे वैसा दूसरे के साथ आचरण मत करो (आत्मनः प्रतिकूलानिन समाचरेत) वह धर्म धर्म नहीं है जो दूसरे र्म का बाधक है – न धर्मः तत् यो बाधते धर्मम्।

वैश्वीकरण का असली तात्पर्य ‘स्व’ को विश्व बनाना है न कि विश्व को ‘स्व’ के लिए इस्तेमाल करना है। ‘स्व’ की सीमा का इतना विस्तार करना है कि ‘अन्य’ अपना बन जाये। अन्य के ‘होने’ में अपना ‘होना’ शामिल हो जाये। प्रत्येक के होने में अपना सहकार यदि दर्ज न हो, तो विरोध तो कतई न हो। सह-अस्तित्व बना रहे। वह युग या व्यक्ति विश्व क्या बन सकता है, जो खुद का नहीं हो सकता।जो आत्मनिर्वासित होकर जी रहा हो, जो मेले में रहकर भी निपट अकेला हो, जो घर में रहकर बेघर बना रहे, जो अपने परिवार को तोड़ चुका हो, अपने वृद्ध माता-पिता को वृद्धाश्रम में भेजकर छुट्टी पा रहा हो, वह ससुरा ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’, अर्थात विश्व ही परिवार है, का अर्थ क्या जानेगा ? अपनी खोल में सिमटा आदमी दूसरे को क्या समा सकता है ? कुत्ते को गोदी में खिलाने वाले तथा माता-पिता को फटकारने वाले लोग क्या जानें स्वजन स्नेह का स्वाद ? किसी अन्य या अपनों के होने का आस्वाद। मिशनरी हिन्दुओं की आस्था को बदल नहीं सके तो उसका कारण यह नहीं था कि हिन्दुओं में ईसा मसीह के संदेश के प्रति कोई प्रतिरोध था, बल्कि उन्होंने उस संदेश को अपनी बहुलतावादी आस्था की कोटियों में ही समा लिया। - निर्मल वर्मा (पत्थर और बहता पानी, पृ. 139) भारत की समोने-पिरोने वाली संस्कृति ने इस्लाम को भी समोना चाहा है। हिन्दुओं के द्वारा ताजिए पर चढ़ाये जाते चढ़ौना, मानी जाती मनौतियों और मजारों पर चढ़ाई अन्य को अपने से अलग न समझने के ही प्रमाण हैं। इस देश ने ब्रह्म को अन्य पुरुष माना है। उसे तत् से संबोधित किया है।थ वह प्रथम पुरुष है। चराचर जगत चल-अचल उसकी प्रतिमा है। ऐसा प्रमाण देने के लिए आग्रह भी है।

“जैविक स्तर पर मनुष्यत्व स्वयं प्राप्य है, लेकिन उसके बाद का मनुष्यत्व अर्जित करना होता है – इस अर्जन की सारी संभावनाएं मनुष्य में ही हैं। जिस सीमा तक कोई यह अर्जन कर पाता है वास्तविक अर्थों में उसी सीमा तक मनुष्य हो पाता है। ...अमानवीयता के खिलाफ़ संघर्ष भी मनुष्य होने की बुनियादी शर्त है। इस तरह सहमति, असहमति, विरोध संघर्ष तथा स्वतंत्र चेतना से उपजी सृजनशीलता के माध्यम से व्यक्ति अपनी संभावनाओं को उपलब्धि के रूप में अर्जित करता रहता है। यह अर्जन किसी अन्य को क्षति पहुँचाकर नहीं किया जाता। मनुष्येतर सृष्टि से अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करने के फिराक में मनुष्येतर को हेय, हीन, जेतव्य मानकर नहीं। व्यष्टि और समष्टि के सामंजस्य में, सहवीर्य, सहकार में भी होने का अर्थ अर्जित किया जाता है। गैर-मानवीय संसार से अलगाव यूरोपीय सभ्यता का सबसे त्रासद आयाम रहा है, जिसने गोएटे को यह यह कहने के लिए विवश किया कि ‘हर अलगाव में विक्षिप्तता के बीज होते हैं : हमें ध्यान रखना चाहिए कि हम उसे पनपने न दें।” – निर्मल वर्मा (पत्थर और बहता पानी पृ. 172)

स्पष्ट है कि अलगाव में यदि विक्षिप्तता के बीज होते हैं तो अन्य को अन्य समझने में संघर्ष के। ऐसे संघर्ष के महाभारत को जो व्यक्ति के होने के अर्थ को कुत्सित करार देता है, कौन अच्छा कहेगा। लोग उसे घर में पुस्तक के रूप में भी रखने से कतराते हैं। भारत ने महाभारत को अच्छा नहीं समझा। वह होना था, हो गया यह और बात है, किन्तु उसकि आत्मीयता सदा अन्यको आत्मसात करने में अपनी समृद्धि मानती रही है. यह देश बाहर से आए जातियों अपना बना कर याय उनके होकर वृहत्तर भारतवर्ष के गौरव से अपने को मंडित करता रहा है। बिना किसी के भूभाग को राजनैतिक उपनिवेश बनाते हुए, अपने भूमा स्वरूप का परिचय देता रहा है। जिन बाहरी जातियों ने अपनी सीमित सोच एवं धर्मान्धता के कारण अन्य को काफ़िर या नरक समझकर रौंदना चाहा उसके साथ अब तक भारत की अस्मिता अपना तालमेल बिठा नहीं पाई है। बिठाये भी कैसे ? अपने ‘स्व’ को विसर्जित करके परधर्म को अपनाने से मर जाना बेहतर जो माना गया है – स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।
- गीता।
‘होने का अर्थ’ बहुअर्थी है – छंद की तरह। बहुरूपी है – सृष्टि की तरह। अव्याख्येय है – भूमा की तरह। व्यक्ति भूत, भवन और भविष्य में होता रहता है, क्योंकि वह धरती से आकाश तक व्याप्त विष्णु का सगुण स्वरूप है। हमारे तीनों कालों में वही तो होता रहता है। इसी से भाव हमें होते रहना चाहिए – उस पुराण पुरुष सहस्र शीर्ष प्रभु को प्रणाम करते हुए –

भुत भव्यभवन्नाथः पवनः पावनोsनलः।
कामहा कामकृत् कान्तः कामः कामप्रदः प्रभुः।। - विष्णुसहस्रनाम

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