ललित निबंध संचयन

हिंदी के महत्वपूर्ण ललितनिबंधकारों की रचनाएँ

Saturday, September 16, 2006

10. कृतार्थता की आकांक्षा और भागवत



बरुत नामी, ज्ञानी-ध्यानी, शोहरतशुदा तख्त-ताजधारी व्यक्ति सफलकहला सकता है, समृद्ध और प्रतिष्ठित हो सकता है, पर वह कृतार्थ ही हो सकता है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। सामान्य की बाद जाने दें, विशाल बुद्धि व्यास जैसे मुनि की भारत कौन कहे महाभारत जैसा अदभुत ग्रंथ रचकर – ज्ञान, दर्शन, धर्म का संदोह, वेदोपवृंहणन महान काव्य लिखाकर ही कृतार्थ नहीं हो सके। विश्वास इतना बढ़ गया कि उन्हें लगा कि जो कुछ महाभारत के घट बीत जाने के बाद उनका मन अकृतार्थता के बोध से उदास हो चला। घटनाओं के मलबे से चीत्कार की उठती प्रतिध्वनि उनकी संवेदना को सालने लगी। ध्वंसजन्य सन्नाटा अशांत करने लगा। धृतराष्ट्र, दुर्योधन, द्रौपती, अश्वत्थामा के अंधापन, घमंड, पुकार, कुंठाग्रस्त हिंसा और जीतकर हार गये युधिष्ठिर का बोध, सबसे उपजा सन्नाटा बहुत गहरे उतरकर व्यास की तटस्थता को कुरेद रहा था। धर्म-दर्शन के सारे ज्ञान, विदुर की नीति, कृष्ण-भीष्म जैसे लोगों का होना ही त्रासद यथार्थ को घटित होने से नहीं रोक पाया था। उसकी त्रासदी कदाचित व्यास के कवि हृदय को बेचैन किये बैठी थी। वे अपनी अकृतार्थता को कुछ-कुछ महसूस करते हुए कहते हैं – महाभारत के बहाने मैंने वेदों के अर्थों को खोल दिया ताकि सभी उसका लाभ ले सकें। अपने धर्म-कर्म का ज्ञान प्राप्त कर सकें। यद्यपि मैं ब्रह्मतेज से सम्पन्न एवं समर्थ हूँ तथापि मेरा हृदय अपूर्ण काम-सा जान पड़ता है –

भारत व्यापदेशेन ह्याम्नार्थश्च दर्शितः।
दृश्यते यत्र धर्मादि स्त्री शूद्रादिभिरप्युत।।
तथापि वत में दैह्यों ह्यात्मा चैवात्मना विभुः।
असम्पन्न इवाभांति ब्रह्मवर्चस्य सत्तमः।। - भागवत 1-4-29-3-

व्यास जी अकृतकाम खिन्न हो बैठे थे, तभी नारद जी वहाँ पधारे। कुशल-क्षेम और आतिथ्य ग्रहण करने के बाद कुशल वैद्य कीतरह नाड़ी टटोले बिना चेहरे को पढ़कर ही नारद ने व्यास की अकृतार्थता को पहचान ली। और मानों उनके समग्र ज्ञान की खान महाभारत पर व्यंग्य मुस्कान चस्पा करते हुए वे बोले – महाराज व्यास जी। धर्मादि सभी पुषार्थों से परिपूर्ण महाभारत रचकर आप अपने कर्म एवं चिंतन से संतुष्ट हैं न ? सनातन ब्रह्म तत्व को आपने जान ही लिया है, फिर भी आप अकृतार्थ नर के समान अपने विषय में शोक क्यों कर रहे हैं ? व्यास जी ने स्वीकृति के स्वर में कहा – नारद जी। सच में परब्रह्म और शब्दब्रह्म को जान लेने के बाद ही कहीं कोई कमी रह गई है, जिससे मेरा परितोष अधूरा है। कृपया आप ही इस अधूरेपन का कारण बतायें –

नारद उवाच

पराशर्य महाभाग श्वतः कच्चिदात्मना।
परितुष्यति शरीर आत्मा मानस एव वा।।
जिज्ञासितं सुसम्पन्नमपि ते महदभुतम्।
कृतवान भारतं यस्त्व सर्वार्थपरिबृहितम्।।
जिज्ञासितमधीतं च यत्तदब्रह्म सनातनम्।
अथापि शोचस्यात्मानमकृतार्थ इव प्रभो।।

व्यास उवाच

अस्त्येव में सर्वमिदं त्वयोक्तं
तथापि नात्मा परितुष्यते में।
तन्मूलमव्यक्तमगाथ बोधं
पृच्छामहे त्वssमश्वात्मभूतम्।। - भागवत 1-5-2,3,4,5.

वस्तुतः महाभारत में सब कुछ होते हुए भी वह नहीं है, जो कृतिकार औस उससे साक्षात्कार करने वाले पाठक-श्रोता को कृतार्थ कर सके। माना कि उसमें धर्म, दर्शन, इतिहास वेद की व्याख्या सब कुछ है, परन्तु वह जो प्रभाव छोड़ता है, उसमें सब कुछ दब सा जाता है और उभरकर आती है मृत्यु की त्रासदी, ध्वंस की पीड़ा, मानवी नियति की विडंबना, करुण गाथा। व्यास मुनि जिन मूल्यों को सम्प्रेषित करना चाहते थे, अपने जिन बोधों से संसार को संस्कारित करना चाहते थे, सब हो नहीं पाया, घात-प्रतिघात, दंभ-द्वेष और काल की निर्ममता की गाथा बनकर ही महाभारत रह गया। आज भी महाभारत को लोग न पढ़ना पसंद करते हैं न घर में रखना। यह अकृतार्थता का सबसे बड़ा सबूत है। जो कृति लोक स्वीकृति नहीं पा सकी वह भारत हो या महाभारत वेद हो या पुरण न खुद कृतकृत्य हो सकती है न लेखक को बना सकती है और न लोक को। लोग उसी युद्ध की गाथा सुनना पसंद करते हैं, जो गाथा श्रेय-प्रेय को बढ़ावा देती हो, भाई-भाई के द्वन्द्व और छल-छद्म की नहीं। रोजमर्रा रोज-ब-रोज उ्हें स्वाद्व स्वार्थ-संघर्ष में तो घसीटता ही रहता है। देशी संस्कृति और मानस जीवन के दुखद अंत का अभ्यासी नहीं। इन्हीं सब कारणों से महाभारत और व्यास दोनों उतने लोक स्वीकृत नहीं हो सके जितना वाल्मीकि और उनकीरामयण,तुलसी और उनके ‘मानस’ (व्यास ने यदि श्रीमद भागवत की रचना नहीं की होती तो संभवतः और अलोकप्रिय तथा अकृतार्थ रह जाते। नन्द दुलारे वाजपेयी का मनना है) “महाभारत के गीता प्रकरण में महाकवि ने आँसू पोंछने की चेष्टा न की होती तो उसका अध्ययन करने का साहस एक भी व्यक्ति न कर सकता। उसका अंतिम शांति पर्व तो विकट अशांतकारी है।” – हिन्दी साहित्य बीसवीं शताब्दी पृष्ठ 42

बहस की जा सकती है कि महाभारत में भी तो कृष्ण हैं ही। उनके बिना महाभारत कैसा? रामायण या मानस में राम हैं, तो महाभारत में कृष्ण, फिर व्यास को कृतार्थता क्यों नहीं मिली ? कृतार्थ होने के लिए क्या जरूरी है कि भगवान की चर्चा और अर्चा की जाए ? बहस तर्क आश्रित होती है और तर्क का कोई अन्त नहीं। नारद जी साफ-साफ व्यस जी से कहते हैं कि आपने भगवान के निर्मल यश का गान प्रायः नहीं किया है। मेरी ऐसी मान्यता है कि जिससे भगवान संतुष्ट नहीं होत, वह शास्त्र और ज्ञान अधूरा है। आपने वासुदेव की महिमा का वैसा वर्णन नहीं किया है जैसा धर्म आदि पुरुषार्थों का। जिस वाणी से श्रीकृष्ण का गुणगान नहीं होता वह कौओं के उच्छिष्ट अन्न फेंकने के स्थान जैसा अपावन होता है, वहाँ हंस नहीं जाते –

भवानुदितप्रायं यक्षो भगवतो मलम।
येनैवासौ न तुष्येत मन्ये तददर्शनंखिलम्।।
यथा धर्मादयाचार्था मुनिवर्यानुकीर्तिताः।
न तथा वासुदेवस्य महिमा ह्युनुवर्तितः।।
न यद्वचश्चित्र पदं इर्श्यशो जगत्पवित्रं प्रगृणीतकीर्जित।
तदवायसं तीर्थमुशन्ति मानसा न यत्र हंसा निरमुन्त्यशिक्क्ष्याः।।

- भाग 1-5, श्लोक 8-9-10

तुलसीदास बी प्रकारन्तर से इसी बात का समर्थन करते हैं –

किन्हें प्रकृतजन गुनगाना। सिर धरि गिरा लगी पछिताना।।

यहाँ फिर बहस को बढ़ाई जा सकती थी कि भगवान का गुणगान ही क्या वाणी की धन्यता केलिए जरूरी है ? फिर सदियों से इतने काव्य क्यों लिखे जा रहे हैं ? फिर तो कुरान, पुराण, बाइबिल लिखे जाने के बाद शेष की जरूरत ही नही थी। ऐसी बात नहीं है। दरअसल भगवान के गुणों के बखान और यश के कीर्तन से तात्पर्य मनुष्य के ही उन मूल्यों और कर्मों का कीर्तन करना है, जो लोक-परलोक को साधने के लिए जरूरी है। सत्य, शील, सौन्दर्य और शक्ति के पर्याय का नाम भगवान है। परोपकार, दया,दान आदि धर्म के समस्त मान मूल्यों का आचरण भगवान के गुणों का गान है। मनुष्य बेहतर दशा दिशा प्रदान करने एवं उसे नर से नारायण बनाने के लिए नारायण विविध रूपों में अवतरित होते रहते हैं, वरना, क्या जरूरत है उस अनादि अनन्त अजन्मा को यहाँ अवतरित होने की। वस्तुतः प्रत्येक के भीतर बसेवासुदेव जिस शास्त्र या रचना विधान से प्रसन्न नहीं होते, वह अधूरा है। जिस कला या ज्ञान के द्वारा लोकसंग्रह यालोक मंगल की श्रीवृद्धि नहीं होती, वह कृतार्थता नहीं दे सकती। महाभारत की नियति ऐसी ही रही। युधिष्ठिर जीतकर भी हारे हुए लगते हैं और भीष्म इच्छा मृत्यु का वर पाकर भी अभिशप्त। शर शय्या पर महीनों सोते रहने के लिए शापग्रस्त/ द्रोणाचार्य का गुरुत्व ग्लानि में डूबा हुआ है। व्यास इतना महान ग्रंथ रचकर भी अकृतार्थ हैं, क्योंकि यह रचना लोगों को रच नहीं सकी। युधिष्ठिर जैसे धर्मधुरीण स्वर्ग में भी पहुँचकर दुर्योधन को सुख मनाते और अपने भाइयों को दुःख से हाय-हाय करते देख अड़ गए कि उसे भाइयों के साथ नरक में रहना पसंद है, पर यहाँ नहीं। येसब अकृतार्थता के सबूत हैं। शून्यता के प्रमाण हैं।

तुलसी वाल्मीकि व्यास सबेस कृतार्थता के तत्व को लेकर मानस की रचना करते हैं। वे उन तत्वोंको छोड़ते चलते हैं जो जो वास्तव होकर भी लोक के मूल्वान नहीं होते/कृतार्थ करने के योग्य नहीं होते। सीता निर्वासन के प्रसंग को तुलसी पूरी तरह छाँट देते हैं, क्योंकि वह प्रसंग लोक को अब भी सालता है, करुणा को भी करुणा से भर देता है। महाभारत भाई-भाई के बीच मरणोपरान्त भी बैर को शमित नहीं करपाया। राज्य की खातिर बंधुता को नष्ट करता है, जबकि मानस यारामायण बंधुता की खातिर राज्य का त्याग करना सिखाता है। बड़ी से बड़ी कुर्बानी देना सिखाता है। भ्रातृ प्रेम को केन्द्रस्थ भाव मानता है, यही कारण है कि ’मानस’ की चौपाई मंत्र बन गई और महाभारत के श्लोक पुण्यश्लोक नहीं बन पाये। व्यास देव भी महाभारत के प्रसंगो को एकदम काट-छाँट करते हैं, अनुच्छेद परिवर्तन भागवत जैसे काव्य ग्रंथ रचनाकार को सच में कृतकृत्यता देते हैं। जहाँ प्रेम ही प्रेम हो वहाँ ईर्ष्या-द्वेष, संगर्ष, दंभ-अहंकार, लोभ-मोह जैसे अशांत करने वाले भाव कैसे टिक सकते हैं। यहाँ दया, उदारता, परोपकार, दान, धर्म, नियम-संयम जैसे दैवी गुणों का गान है – मानव को देव बनाने के लिए। प्रीति की रीति है – रमणीय में रम जाने के लिए। राधा भाव है – माधव बन जाने के लिए। भक्ति भाव है – सभी धर्मों से ऊपर, कुल कानि जाति-पांति की बड़ाई से बड़ा साझा भाव। रास है, जिसमें रास बिहारी का निवास है (रसौ वे सः) जहाँ रासेश्वर स्वयं बंशी बजाते, नाचते हैं और भक्त के साथ-साथ भक्ति भी नाच उठती है। वहाँ कृतकृत्यता दूर कैसे रह सकती। ये तो ऐसे भाव हैं जो दूर खड़े को भी पास खींच लेते हैं, रमा लेते हैं, समा लेते हैं।

भागवत में उन भावों का व्यास ने परित्याग कर दिया है, जो उन्हें महाभारत में थका चुके थे, आकुल कर चुके थे। कृष्ण जैसे को भी कपट और क्रूरता के लिए विवश होना पड़ा था। विदुर की उपेक्षा और भीष्म की अनसुनी कर दी गई थी। वे इसमें कौरवों के युद्धोन्माद और पांडवों की युद्धोन्माद में शामिल होने की विवशता के वर्णन से बचते हैं और त्रासद घटनाओं का उल्लेख भर करते हुए आगे बढ़ जाते हैं। वे महाभारत की तरह धर्म क्षेत्र कुरुक्षेत्र में लहुलुहान होती मानवता को नहीं देखना चाहते, धर्म की गुहा में मनुष्य को उलझाना नहीं चाहते हैं। वे भक्ति भाव में सबको सराबोर करना चाहते हैं। कृतकृत्य होना चाहते हैं। भागवत की शरुआत में ही वे भक्ति को परमधर्म मानते हैं और वासुदेव में सबका वास-समाहार –

स वै पुंसां परो धर्मो यतो भक्तिरधोक्षजे।
अहेतुक्यप्रतिहता यया त्माssसम्प्रसीदति।।
तस्मादेकेन मनसा भगवान सात्वतां पतिः।
श्रोतव्यः कीर्तितव्यरच ध्येयः पूज्यश्च नित्यदा।।
यदनुध्यसिना युक्ताः कर्मग्रन्थिनिबन्धनम्।
छिन्दन्ति कोविदास्तस्यकोनु कुर्यात् कथारतिम्।।
वासुदे परा वेदा वासुदेव परामखाः।
वासुदव परा योगा वासुदेव परा क्रियाः।
- भागवत 1-1-6,14,15,28

व्यथा कथा के भवजाल में फँसनेके बजाय व्यासजी की अकृतार्थता अपनी कृतार्थता के लिए वासुदेव-कथा-रति को ही अपनी गति बनाती है और भटकाव से बचने के लिए भागवत रचना के दस प्रस्थान बिन्दु निर्धारित करती है –

अत्र सर्गो विसर्गश्च स्थानं पोषणमूतयः।
मन्वन्तरेशानकथा निरोधो मुक्तिराश्रयः।।

ऐसा सोचना भूल है कि व्यासदेव महाभारत कथा से आकुल-व्याकुल होकर भागवत-कथा में पलायन कर गये। पलायन तो इस देश ने कभी सीखा ही नहीं। न प्रेम जीवन के संघर्ष से पलायन है, भक्ति। भक्ति तो वह शक्ति है जो व्यक्ति को टूटने से बचाती है, बैकुंठ बनाती है, जीवन जीने में रसप्रदान करती है। भगवान कृष्ण की रणछोर उपाधि पलायन नहीं, अपितु पैंतरा बदलकर दुष्ट दलन और सज्जन रक्षण के एक उपाय का पर्याय है। सब धर्मों-प्रपंचों का पूर्णविराम है भक्ति। अतः इसी भक्ति को भागवत के केन्द्र में प्रतिष्ठित कर व्यास स्व और पर को कृतकृत्यतो छकककर परोसते हैं। राधा-माधव गोपिकाओं में डूबते-डूबते हैं। माधव यदि रसमय विग्रह हैं तो सोलह हजार गोपिकाओं की राशिभूत पीड़ा की पर्याय राधा मिठासमय प्राण रासेश्वरी –

सोलह सहस पीर तर एकै
राधा कहिए सोई।

राधा रासेश्वरी की आह्लादिनी शक्ति है। महाभाव रूपा। आधा प्रकृति। नितय् लीला सहचरी। आह्लाद महाभाव से भावित प्रेम परिपूर्ण लीला का काव्य भागवत, जो विद्वानों और श्रोताओं को एक साथ आह्लादित करता है, राधा-माधव भाव से भावित करता है, सच में कृतार्थता का काव्य है। यहाँ कर्म है तो समर्पण लिये, वैराग्य है तो अनुराग लिये, वध है तो उद्धार के लिए – वध किया ही जाता है लोक उद्धार के लिए। आकुल करने वाली कथा का संदर्भ देकर लीन करने वाली कथा-लीला का गायन है। यहां कुरुक्षेत्र और द्वारका का उतना महत्व नहीं है, जितना ब्रज रेणु-धेनु गोपी-ग्वाल का है। रसराज श्रृंगार से सिक्त माधुर्य गुण से मधुमय सख्यभाव का यह काव्य किसे कृतकृत्य नहीं करता ? ज्ञान यहाँ गदगद हो जाता है। विश्वास न हो तो उद्धव जी से पूछ लीजिए, थोड़ी देर के लिए गोपी-ग्वाल बनकर देख लीजिए। बारह स्कन्धों में रचित भागवत का दशम स्कन्ध जो कृतार्थता का मूल स्रोत है, पूरे भागवत के एक तिहाई से भी ज्यादा भाग में फैला हुआ है। भागवत का सार है। जैसे तुलसी हृदयस्पर्शी प्रसंगों का, तल्लीन करने वाली लीलाओं का रम-जमकर वर्णन करते हैं वैसे ही व्यासदेव दशम स्कन्ध की लीलाओं में लीन से हो गये हैं। लीला वर्णन करते-करते लीलामय हो गये हैं।

इस दशम स्कन्ध को रचते-रचते व्यास देव स्वयं रच गये हैं। श्रद्धालु सुनते-सुनते गदगद हो जाते हैं। इस स्कन्ध की वाणी धन्य हो जाती है। प्रकृतजन अपने ही भावों का गुणगान कृष्ण लीला गान को मानकर तृप्त हो जाते हैं। यहाँ मैं ‘हम’ में समा जाता है, स्वार्थ परमार्थ के लिए समर्पित हो जाता है। महाभारत की तरह रिक्तता, खीझ, त्रास, करुणा और धर्म का उलझाव नहीं है। द्रौपदी धर्मवृंद सभासदों से सवाल करती है कि जब मेरे पति युधिष्ठिर मुझे दांव पर चढ़ाने से पूर्व अपने को ही हार चुके थे, फिर मुझे दांव पर कैसे चढ़ा सकते थे ? और यदि एक हारे हुए जुआरी के द्वारा मैं दांव पर चढ़ा भी दी गई, तो क्या मैं दुर्योधन की दासी बन गई ? धर्म धुरंधर भीष्म ‘धर्म की गति बड़ी सूक्ष्म है’ कहकर उलझा सा जवाब देकर चुप हो गये। ज्ञानवृंद द्रोण चुप्पी साध गये। धर्मावतार युधिष्ठिर का वाक बंद हो गया और भरी सभा में – अपने ही लोगों के सामने अपनों के ही द्वारा ऐसी अपमानित होती रही, जिसका घाव आज तक हरा है, भरा नहीं है। नारी जाति आज भी द्रौपदी के अपमान से चीख पड़ती है। अनेक घटनाएँ, जिनकी याद भूल से भी आ जाती है तो मानवता काँप और कचोट उठती है, महाभारत से कृतार्थता पाने का सवाल ही नहीं उठता। विदुर जी मैत्रेय ऋषि से कहते हैं – “हे ऋषि। व्यास जी के मुख से ऊँच-नीच वर्णों के धर्म कई बार सुन चुके हैं किन्तु अब कृष्ण कथा रूपी अमृत प्रवाह को छोड़कर अन्य स्वल्प सुखदायक धर्मों से मेरा मन ऊब गया है।” –

परावेषां भगवन् व्रतानि श्रुतानि मे व्यसमुखादभीक्षण्।
अतृप्नुमः क्षुल्लसुखावहानां तेषामृते कृष्णकथामृतौदात्।।
- भागवत 3/5/10

विनम्रता के अनुपात से अनुप्रेरित व्यास ने प्रभु से कहा था – “हे जगत के गुरुदेव। आप अरूप हैं, फिर भी ध्यान के द्वारा मैंने महाभारत आदि ग्रंथ में आपकी बहुशः रूपकी कल्पना की है, रूप में बाँधने की कोशिश की है, आप निर्वचनीय हैं, व्याख्याओं द्वारा आपके रूप को समझ सकना संभव नहीं, फिर भी वचन बाँधने का प्रयास किया है। आप सर्वत्र व्याप्त हैं, तथापि तीर्थयात्रा विधान से आपके उस व्यापकत्व को मैंने खंडित किया है, सीमित किया है। अतः हे जगदीश। मेरी बुद्धिगत विकलता के तीन अपराध – अरूप की रूप कल्पना, अनिर्वचनीय का स्तुतिनिर्वचन और व्यापी का स्थान विशेष में निर्देश – क्षमा करें।” –

रूपं रूपविवर्जितस्यभवतो ध्यानेन यत्कल्पितम्।
स्तुत्या निर्वचनीयता खिलगुरोदूरीकृतायन्मया।।
व्यापित्वं च निराकृतं भगवते यततीर्थयात्रादिना।
क्षन्तव्यं जगदीश, तदविकलता दोष त्रयं मत्कृतम्।।

वस्तुतः विनम्रतावश स्वीकारे गए ये दोष, दोष नहीं, गुण हैं। अरूप को रूप देकर जन-जन में रमाया गया है। जिनका ध्यान योगी भी नहीं साध पाते उन्हें ब्रज रेणु-धेनु के बीच रमाकर सर्वसुलभ बनाया गया है। तीर्थयात्रा को भगवत प्राप्ति यात्राबताकर जन-जन को जोड़ने तथा भूमा बनानेकी कोशिश की गई है। दरअसल भागवत कथा के द्वारा कृष्ण के गुण व लीलाओं का गान वाणी की धन्यता है। अक्रूरजी स्वीकारते हैं कि “जब अखिल पाप विनाशक कृष्ण मंगलमय गुण, कर्म और जन्म की लीलाओं से युक्त होकर वाणी उनका गान करती है, तब उस गान से संसार में जीवन में स्फूर्ति होने लगती है, शोभा का संचार होता है। जिस वाणी से प्रभु का कीर्तन नहीं होता वह मुर्दा वाणी है, व्यर्थ है।” –

यस्याखलामीवहभिः सुमङगलैर्वाचेवि मिश्रा कर्मजन्माभिःय़
प्रणन्ति शुम्भन्ति पुनन्ति पै जगद् यास्तद्विरक्ताः भव भोगना मताः।।
भागवत 10-38-12

1 Comments:

At 2:55 AM, Blogger COME BACK TO SANSKRIT said...

हे महाभाग!
आपके यह विचार "10. कृतार्थता की आकांक्षा और भागवत" को पढ़कर में अपने आंशुओं को रोक नहीं पाया .आपको मथानत प्रणाम है .

 

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