ललित निबंध संचयन

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Saturday, September 16, 2006

15. सर्वमंगल भाव और संस्कृत साहित्य




साहित्य सदैव सर्वमंगल भाव को जीता है। उसका आग्रह सबका हित है। हित बाव के बिना साहित्य नहीं रह सकता। जैसे हाथी के पैर के विस्तार में सारे जीवों के पाँ समा जाते हैं, वैसे इस मंगल भाव में सभी प्रकार के हित भाव समा जाते हैं। शिव सुंदर और सत्य होता ही। यह ‘साहित्य’ शब्द, जो शब्द अर्थ के परस्पर प्रतिस्पर्द्धी सौंदर्य से वाणी की उपासना करता है, संस्कृत भाषा का शब्द है। ‘संस्कृत’ शब्द भी अपने आप में संस्कार और सौंदर्य बोधक है। परिष्कृत या संस्कारित भाषा का नाम ‘संस्कृत’ है। संस्कार मंगल मूलक होते हैं। यह मंगल मूला देव भाषा देवताओं को तो भावित करती रही है, हजारों वर्षों से हमारी चोस-समझ को भी संस्कारित करती रही है। जितना दार्शनिक विचारधाराओं का, मानवीय मेघा का चतुर्दिक प्रसार और प्रस्रवण संस्कृत युग में हुआ उतना आधुनिक भारतीय भाषाओं की बात कौन कहे, विश्व भाषाओं में भी कदाचित नहीं हो सका। आधुनिक दर्शन-चिंतन के केन्द्र पाश्चात्य देश जरुर बन गए है, परन्तु प्राचीन काल मे भारत ही केन्द्र रहा है। इस केन्द्रत्व का साक्षी है नालंदा एंव तक्षशिला के विश्व विद्यालयों का इतिहास। सबका श्रेय-प्रेय संस्कृत का सनातन द्दयेय रहा है। दुर्योग या काल योग से सब के शुभाकांक्षी बुद्दद् जैसे दलितों के खासम खास हो गए है, पंथ या सम्प्रदाय के घोर विरोधी कबीर खास पंथ के पिंजरे में कैद हो गए, सूर-तुलसी पर वर्ग विशेष की मुहर लग गई है। ज्यादातर स्वतंत्रता के बाद सत्ता पर काबिज होने अथवा बने रहने के अपवित्र उद्देश्य से भाषावाद, जातिवाद, सम्प्रदायवाद की विष-वेलि बोने में हमारी धरु राजनीति ने महारत हासिल कर ली है। परिणति सामने है। संस्कृत की छोङिये, जिस हिन्दी को गैर हिन्दी भाषी लोगों ने राष्ट्रभाषा बनाने के लिए पहल की, एक जुटता दिखाई, राष्ट्रीय एकत्व के लिए सभी वर्गो के लोग को सिर पर कफन बाँध आगे आने हेतु प्रोत्साहित किया, उसी को पहले उर्दू से विलगाया गया। अब तो उसकी बोलियों से भी उसे अलग करने की प्रवृति पनप रही है। जिस अंगेजी के विकल्प के रुप मे और राष्ट्रीयता को पुष्ट करने के लिए हिन्दी को स्थापित किया गया था, स्वदेशी अवधारणा का अनुष्ठान किया गया था, उसी हिंदी को आजादी के बाद क्षुद्र स्वार्थवश किनारे करने का कुप्रयास किया जा रहा है, तो संस्कृत के भगवान ही मालिक है।

संस्कृत निर्विरोध रुप से उत्तर का सेतुबंध रही है। समस्त भारतीय भाषाओं की जननी-जैसी रही है। वृहत्तर भारत के वाङ्मय का माध्यम रही। ‘वसुधैव कुटुम्ब’ के भाव को सर्वातमना जीती हुई सबको आत्मसाक्षकर आत्मीयता देती रही। उसी को वर्ग विशेष की भाषा मानकर उसके पठन-पाठन पर ग्रहण विडंबना नही तो क्या है? यह वर्ग विशेष की भाषा नहीं, अशेष की है। कांची-काशी की नहीं, समस्त भारतवासी की है। संकीर्णता की नही, उदारता की है। इसी उदारता से प्रभावित होकर दाराशिकोह ने उपनिषदों का अनुवाद फारसी मे किया था। रसखान ब्रजभाषा के रस मे पगे और मलिक मुहम्मद जायसी की अवधी में समाधी लगी।वेद वाणी समस्त जगत के जीव और नर-नारी के शिवत्व की कामना करती हुई कहती है-

ऊँ स्वस्ति मात्र उत पित्रे नो अस्तु। स्वस्ति गोभ्यो जगते पुरुषेभ्यः
विश्वं सुभूतं सुविदत्रं नो अस्तु ज्योगेव द्दशेम सूर्यम् –ऋगवेद् 1-31-4
इसी भाव का भाष्य यह श्लोक है-
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वेसन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्ददुखभागभवेत्।।

पितृपक्ष में तर्पण करते हुए भारतीय जन न केवल अपने पितरो को जलांजलि देकर उनकी तृप्ति की कामना करते हैं अपितु विश्व के समस्त जङ-चेतन के लिए तृप्ति जलांजलि समर्पित करते है।

ऊँ देवास्तृप्यन्ताम्, ऋषयस्तृन्ताम् संवत्सरः सावयवः तृप्यताम् नागास्तृप्यताम् सागरा स्तृप्यन्ताम्, पर्वता-स्तृप्यन्ताम् सरितस्तृप्यन्ताम् मनुष्यास्तृप्यन्ताम् रक्षांसितृप्यन्ताम् पशवस्तृप्यन्ताम, वनस्पतयस्तृप्यन्ताम् औषधयस्तृप्यन्ताम् भूतग्रामचतुर्विधस्तृप्यन्ताम्।

वेद-वेदांग की भूमिका के बाद पुराणों की भूमिका सर्वमंगलत्व की दिशा में कम महत्वपूर्ण नहीं कही जा सकती। शक्तिस्वरुपा देवी की प्रार्थना करते हुए भक्त- सबके सारे हितों की सिद्दि हेतु याचना करता है

सर्वमंगल मंगल्ये शिवे सवार्थ साधिके।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरी नारायणी नमो स्तुते।। -दुर्गासप्तशती

श्रीमदभागवत पुराण की मंगलकामना और भी व्यापक है। विश्व की मंगलभावना से भावित है। दुष्यों तक की निर्मल बुद्धि की कामना की गई है। प्राणियों में परस्पर सदभावना हो। मन शुभ मार्ग में प्रवृत्त हो तथा निष्काम भाव से रमा रमण में हमारा मन रमता रहे

स्वस्त्यस्तु विश्वस्च खलः प्रसीदतां
ध्यायन्तु भूतानि शिवं मिथोधिया।
मनश्च भद्रं भजतादधोक्षजे
आवेश्वयतां नो मतिरप्यहैतुकी।।

यह सर्वशुभोदय की भावधारा गंगोत्री की तरह सहस्रधार होकर संस्कृत काव्य-भूमि में बहती रही है। लोगों को भ्रांति है कि संस्कृत पूजापाठ की भाषा है। पंडितों की भाषा है। जन साधारण की समस्या सोच, सुख-दुख, चरित्र से इसका दूर का भी संबंध नहीं। आभिजात्य वर्ग की अभिव्यक्ति का माध्यम रही है। आज के संदर्भ में इसकी प्रासंगिकता चुक गई है। अदी-अदि न जाने कितने भ्रम फैले हुए हैं, किन्तु गहरे उतर कर देखें तो ये सारे भ्रम, भ्रम ही हैं, सतही हैं। संस्कृत संदर्भहीन नहीं हुई है। कोई भी भाषा जब साधारण जन के बीच संवाद का माध्यम नहीं रह जाती तो उसमें ताजगी भले ही कम हो जाती है, किन्तु इससे वह संदर्भही नहीं हो जाती।सबके हित की उपेक्षा करके िकसी भाषा का साहित्य जी नहीं सकता।जबआदि कवि वाल्मीकि का अदना हृदय क्रौंचवध पर रो उठा था, तब उन्होंने राम जैसे आर्तत्राण महानायक की खोज अपने श्लोकों की सृष्टि रचने के लिए की थी। इस खोज में मुनि ने सतचरित्र एवं सभी के हितभाव को केन्द्र में रखा था। नारद जी से प्रश्न करते हुए आदि कवि ने जिज्ञासा प्रकट की कि अभी इस लोक में कौन ऐसा वीर पुरुष है, जो धर्मज्ञ, कृतज्ञ सत्यसंध, दृढ़वती गुणवान, विद्वान, चरित्रवान और प्राणिमात्र का हितैषी है ? नारद मुनि ने राम का ना लिया। सबका कल्याणकरना राम का काम था –

कोन्वस्मिन् साम्प्रतं लोके गुणवा कश्च वीर्यवान्।
धर्मज्ञश्च कृतज्ञश्च सत्वाक्यो दृढ़वतः।।
चारितत्रेण च को युक्तः सर्वभूतेषु को रतः।
विद्वान कः कः समर्थश्य कश्चैक प्रिय दर्शनः।। - वा.रा.वा. कां. 2-3

व्यास यदि मनुष्य को सृ-ष्टि का श्रेष्ठतम जीव मानते हैं, तो कालिदास प्रकृति अर्थात् प्रजा के हित को सर्वोपरि स्थान देते हैं। पग-पग पर राजा या प्रशासक को कालिदास की कविता प्रकृति रंजन का स्मरण दिलाती है। राजा प्रकृति रंजनात्, अर्थात् सब प्रकार से प्रजा को प्रसन्न रखने वाला ही राजा हो सकता है। अभिज्ञान शाकुन्तलम् के अंत में नाटककार का भरत वाक्य है कि राजा प्रजा के हित में रत रहे। विद्या में वृद्धि हो। शिव हम सबका शुभ करें –

प्रवर्तताँ प्रकृति पार्थिवः
सरस्वती श्रुतमहतां महीयसाम्।
ममापि च क्षपयतु नील लोहितः
पुनभवं परिगतशक्तिरात्मभूः।।

परम्परासे हटकर सोचने और रचने वाले करुणा के कवि भवभूति समस्त भावों के केन्द्र में करुणा को रखकर जग मंगल के लिए अपनी प्रतिबद्धता सम्प्रेषित करतेसे जा पड़ते हैं। अशेष मानवीयसहानुभूति का स्त्रोत करुणा ही तो है। उसमेंसंसार के शुभोदय का निवास है। परपीड़ा अधमताई है तो परोपकार पुण्यकापुंज। एक से बचने और दूसरे को करने के लिए करुणा चाहिए। इसी चाह की खोज भवभूति की करुणा है। पृथ्वी तनया प्रकृति स्वरूपा सीता की पीड़ा से द्रवित कवि चित्त करुणा का आश्रय लेता है। लोकाराधन के लिए सीता का निर्वासन प्रजाहित के लिए प्रकृति का पीड़न कहा जा सकता है। प्रजा मंगल के लिए और भी विकल्प खोजे जा सकते थे। इसकल्प की कसक-कचोट से पत्थर भी रो उठता है। प्रकृतिरोती है। राम रोते हैं। स्वयं राम को अपना उत्तरचरित अपराध बोध से भारी लगता है – ते ही नो दिवसाः गताः (उत्तरराम चरितम् ्ंक 1) इसी करुणा ने तो ुबद्ध को घरबार छुड़ाया था। विश्वमंगल की साधना के लिए उसकायाथा। भवभूति का कवि अपनी तथा सबकी विभूति का कारण प्रेम, करुणा और परोपकार को मानते हुए कामना करता है कि सारे संसार का शिव हो। सभी प्राणी परिहत निरत हों। दोष शांत हों। सभी स्थान के निवासी सुखी हों –

शिवमस्तु सर्वजगतां परहित निरताः भवन्तु भूतगणाः।
दोषाः प्रयान्तु शान्ति सर्वत्र सुखी भवतु लोकः।। - मालतीमाधवम् 10-25

कविता संसार का प्रतीक और पात्रों के माध्यम से मंगल का संदेश देता है। वह समस्त मानवता के प्रति स्वभावतः प्रतिबद्ध होता है। पक्षी, पर्वत, प्राणी-जड़ चेतन सभी उसकी सहानुभूति और प्रेम के पात्र होते हैं। संस्कृत इसी भाव की पूजा करती है। सर्वदया का पाठ पढ़ाती है। सबके श्रेय-पेय की स्तुति गाती रहती है। अपने कल्याण से पहले विश्व मंगल की कामना की जाती है – “शिवमस्तु सर्व जगताम्।”

संस्कृत की भारत सावित्री पूडा-पाठ प्रधान नहीं, धर्म और कर्म प्रधान है। धर्म की व्याख्या में समष्टि का मंगल विधान सर्वोपरि है, बाह्याडंबर नहीं। धर्म की अवधारणा प्रजा और समाज के धारण या रक्षण करने से अर्थवती है। वे कर्म और यम नियम, जो ध्वंस से बचाते हैं और निर्माण करते हैं, उन्हें धर्म कहते हैं। वे आचरण जो आतंक नहीं, आनन्द और अभय़ प्राणि मात्र के लिए सिरजते हैं, उन्हें धर्म की मर्यादा कहते हैं। तभी तो भारत सावित्री कहती है –

धारणादधर्म इत्याहुर्धर्मोधारयते प्रजाः।
यत् स्यात् धारणसंयुक्तं सधर्म इत्युदाहृतः।
- महाभारत

ऐसी सर्व मंगल धारणधर्मी आवधारणा वाले धर्म को अर्थ, काम एवं राज्यका मूल माना गया है – त्रिवर्गोsयं धर्ममूलं नरेन्द्र राज्यं चेदं धर्ममूलंवदन्ति (महाभारत वनपर्व 414) आशय यह कि जो अर्थ धर्मार्जित नहीं होता, अनीति अन्याय व दुष्ट साधनों से अर्जित होता है, वह अनर्थकारी होता है। गलाकाट प्रतियोगिता व लूट-खसोट को बढ़ावा देता है। आदमी को आदमी नहीं रहने देता। वह धर्म से अनुशासित न रहने पर हवस का रूप ले लेता है। अनुजा तनुजा, परजा में भेद भूल जाता है। आसुरी बन जाता है। धर्म रहित राज्यकी भी यही दशा होती है। हस्तिनापुर का राज्य उसे छोटा लगता है। जो प्राप्त भाग है उसका विकास भूलकर काश्मीर की रट लगाने लगता है। मानों काश्मीर मील जाने पर उसकी कोई इच्छा शेष नहीं रहेगी। यह देश हमेशा धर्म को कमोबेश केन्द्र में रखता चला आया है। लंका जीतकर लंकावासी को और बंगलादेश बंगलावीसी को सुशासन के लिए सौंप दिये गये। यह भारतीय धर्म का मंगल भाव है जिससे हमारा जीवन, हमारे आचार-व्यवहार और हमारी राजनीति अनुशासित है। यह धर्म आध्यात्मिकता की ऊँचाई पर पहुँचकर जीवन के बहुविध अच्छे कर्मों को ही शिव की आराधना मानता है। इस शिव स्तुति का यही विशद आशय है –

आत्मात्वं गिरिजामतिः सहचराः प्राणाः शरीरं गृहम्
पूडा ते विषयोपभोगरचना निंद्रा समाधिस्थितिः।
सञ्चारः पदयोः प्रदक्षिणविधिः स्तोत्राणि सर्वा गिरो
यतयतकर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भो तवाराधनम्।। - शंकराचार्य शिवमानसपूजा
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