ललित निबंध संचयन

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Saturday, September 16, 2006

13.सर्वमङगल माङगल्ये



सर्वमंगला काली कराल वंदना घोररूपा भयंकरी है, परन्तु विरोधाभास से देखिये कि वे सर्वमंगला कहलाती हैं। त्रिपुर सुंदरी व मंगल मूर्ति हैं। विचारकर देखें तो यह विरोधाभास ही है, वास्तविकता नहीं। ‘मगि’ धातु से अचल् प्रत्यय लगाकर ‘मङगल’ शब्द और ‘यत्’ तथा ‘ण्यञ्’ जोड़कर क्रमशः मङगल्य और माङगल्य शब्द निष्पन्न होता है। ‘सर्वमंगा’ विशेषण साभिप्राय है। उनके अनेक नाम-रूप हैं और सबके अभिप्राय हैं, किन्तु मांगल्य का भाव अन्तर्धारा की तरह सभी में समाहित है – तेज में प्रकाश की तरह, भगवान में भगवत्ता की तरह। ‘काली’ नाम के आशय पर ही विचार करें तो ज्ञात होगा कि शिवानी का यह नाम भी घोर रूप को प्रकट करता हुआ भी कल्याण से रहित नहीं है। प्रकृति अपने मूल स्वरूप से पृथक नहीं हो सकती। जल अपनी रसात्मकता नहीं छोड़ सकता न अग्नि अपनी उष्णता। उसी तरह काली रूप में भी शिवानी शुभ ही करती है। काली शब्द की व्युत्पत्ति है कि जो काल स्वरूप धारण कर समय के पाप-ताप-शाप दुर्वृत्त आदि को लीलती रहती है, उसे कालिका कहते हैं – कलयति लीलयति पापं दुर्वृत्तं वा सा कालिका। कलयति भक्षयति प्रलय काले सर्वम् इति काली अर्थात् काली काल बनकर दुराचार भ्रष्टाचार को लील जाती है। जग के कालकूट को महाकाल की तरह महाकाली पी जाती है और गौरी से काली बन जाती है – जैसे कपूर गौर शंकर नीलकंठ बन जाते हैं। है न मांगल्य भाव ?

मूढ़ हैं वे लोग, जो अपने को चतुर-चालाक समझकर गलत काम करते रहते हैं और सोचते हैं कि काली के कोप से वे बच जायेंगे। जग की आँखों में धूल झोंकी जा सकती है, जगदीश्वरी की आँखों में नहीं। वे भूल जाते हैं कि सर्वमंगला होकर भी दुर्वृत्त बरदाश्त नहीं कर पातीं। उसका शमन करना उनका शील है –

दुर्वृत्तशमनं तव देखि शीलम्।

भवानी का दूसरा नाम भद्रकाली भी है। काली शब्द के रूप में लगा भद्र विशेषण उनके सर्वमंगल शील का ही संकेत देता है। भद्र, अर्थात् जो भक्तों के लिए मंगल स्वीकार और प्रदान करे उसे भद्रकाली कहते हैं – भद्रं मङगलं सुखं वा कलयति स्वीकरोति भक्तेभ्यो दातुम इति भद्रकाली सुखप्रदा। भद्रकाली की असुर संहार लीला के रहस्य में भी सोचकर देखें, तो सर्वमांगल्य निहित है। संहार के पिछे सृजन का भाव भावित है। भला सोचिये की जगन्माता विश्वमूर्ति भवानी कुमाता कैसे हो सकती है ? अकारण अपने ही पुत्र असुरों का संहार क्यों करेगी ? किन्तु अपना ही पुत्र यदि कुपुत्र बन जाता है, राज-समाज का शत्रु बन जाता है तो क्या माता-पिता उसका शमन नहीं करते ? असुरों का शमन और सुरों का पोषण किसी प्रकार के पक्षपात का परिचायक नहीं है, अपितु आसुर व सुरभाव का शमन-पोषण है। जग-मंगल का विधान है। सृष्टि सुव्यवस्था है। लोकहित की रक्षा है। मूल्य-मर्यादाओं की अभिरक्षा है। शास्त्र का स्पष्ट मत है कि लोक कल्याण की दृष्टि से किया गया कार्य सुकर्म है। हत्या भी पाप नहीं धर्म है। हत्या पाप है, किन्तु वध नहीं। राम ने रावण का और कृष्ण ने कंस का वध किया था, हत्या नहीं। रावण वध के पीछे सीता मात्र निमित्त कारण थी। मुख्य कारण तो रावण का स्वयं का दुष्कृत्य था जो लोकहित को बाधित और लोक कोप को संवद्धित कर रहा था। राम का कोप उसी लोक-कोप की अभिव्यक्ति था, जिसका शिकार रावण को बनना पड़ा। भागवतकार की यह गोविन्द वंदना इसी वास्तविकता की समृति है –

लोक शोकापहाराय रावणं लोकराणः। रामो भूत्वावधीत् यस्तं गोविव्दं विन्दतां मनः।।

जन्म से ही रावण लोक को रुलाता रहा। भाइयों तक को नहीं छोड़ा। व्यासदेव का तो स्पष्ट मत है कि प्रभु मनुष्य देह धारण ही करते हैं मनुष्य को शिक्षा देने केलिए। राक्षस वध उनका एकमात्र लक्ष्य नहीं होता। आत्माराम राम के द्वारा किया गयारावण वध सीता निमित्त नहीं था, लोक हित और लोक शिक्षा से प्रेरित था –

मर्त्यावतारिस्त्विह मर्त्यशिक्षणं, रक्षोवधायैव न केवलं विभोः।
कुतोsन्यथास्यादरमतः स्व आत्मनः,सीता कृतानि व्यसनानीश्वरस्य।। - भाग. 5-19-5

तथ्यहै कि समस्त अवतार लोक उपासना की अभिव्यक्ति हैं। यह स्वार्थी मर्त्यलोग अपने अवतारों की उपासना या उनके प्रति निष्ठा का प्रकटीकरण सेंतमेंत में नहीं करता। न जाने अपने हित के लिए लोकेश को किस-किस जहालत में डालता रहता है। कृष्ण को ही लीजिए। क्या वे कबी भी सुख से दोरोटी का सके ? जिस गोपाल ने अपने बालपन में ही लोगों को त्राण दिलाने के लिए कष्ट उठाया उसी कृष्ण कोजरासंध की इस मांग पर कि मथुरा के लोग मुझे कृष्ण-बलराम को सौंप दें हत्या के लिए। मैं शेषलोगों को मुक्त कर दूँगा। युद्ध नहीं करूँगा। अन्यथा सबको जलाकर राख कर दूँगा। लोगों ने अपना स्वार्थ देखा और कृष्ण-बलराम को क्रूर जरासंध के हाथों सौंपने का निश्चय कर लिया। यह सोचकर कि इन दोनों के मरने से हम सब बच जाते हैं, तो बुरा क्या है ? ऐसा होता है लोक ?

भागवती की असुर संहार लीला के पीछे भी लोक उपासना का भाव है। वे राक्षसों को मारती नहीं, संहार करती हैं। उनके दुष्कर्मों के विस्तार समेटती हैं। रोकती हैं – अनवरुद्ध लोक यात्रा के लिए। सभी के उपकार के लिए सदा दयालु बनी रहने वाली (सर्वोबकार करणाय सदाssर्द्रचित्ता) शिवानी दानवों को मारकर जग.का कल्याण ही तो करती हैं। अपने में मिलाकर योगियों के लिए भी दुर्लभ सायुज्य मुक्त दुष्टतम राक्षसों को भी प्रदान करती है –

एबीर्हतैर्जगदुपैति सुखं तथैते, कुर्वन्तु नाम नरकाय चिराय पापम्।
संग्राममृत्युमधिगम्य दिवं प्रयान्तु, मत्वेति नूनमहितान विनिहंसि देवि।।
- दुर्गासप्तशती 4-18

शक्ति का दुर्गा, काली, गौरी आदि रूपों में प्रकटीकरण देव शक्तियों का सामूहिक अवतरण है – समूह मंगल के लिए देव, दानव व मानव सभी उनके उपकार से उपकृत होते हैं। सभी उनके स्मरण से कृकत्य होते हैं। असुरगण तो खासकर शिव और शक्ति की उपासना करते हैं। विश्व जननी सर्वे भवन्तु सुखिनः की प्रतिमूर्ति हैं। कोई सच्चे मन से उनका स्मरण करके तो देखे –

दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः
स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि।
दारिद्र दुख भयहारिणी का त्वदन्या
सर्वोपकारकरणाय सदाssर्द्रचित्ता।। - दुर्गा सप्तशती 4-17

जाहिर है किदेव शक्तियों के पूँजीभूत रूप मंगला भगवती शुभ शक्तियों का समवाय हैं। शुभंकरी हैं। उनके नाम और रूपों की जितनी व्याख्या की जाये कम है। उनके वाहन सिंह, अस्त्र-शस्त्र और उनकी लीलाओं – सब का आशय एक ही है – सर्व मंगल। शक्ति-साधना जरूरी है शुभ-सुख की स्तापना के लिए। दुर्बल को सभी सताते हैं। आसुरी शक्ति लाख मनाने-चेताने पर भी नहीं मानती। सीधी नहीं रह सकती – कुत्ते की दुम की तरह। सत्ता सिंह की तरह होती है जिस पर नियंत्रण रखने तथा उसेशुभ कार्य में लगाये रखने के लिए देवी उस पर सवार रहा करती हैं। साधना भी जब गलतउद्देश्य से प्रेरित होती है तो श्रेय-प्रेय के बजाय ध्वंस ही सिरजती है – दक्ष यज्ञ की तरह। मातृशक्ति ज्यादा ममतामयी धैर्यवती और उदार होती है। वह कुपुत्र को भी स्नेह देने में कोताही न हीं बरतती, किन्तु शरीर का ही कोई अंग जब सड़ जाता है, उसेक विष से सारे शरीर का खतरा बढ़ा जाता है तब उसे काटकर फेंक देने में ही क्षेम निहित होता है। ठीक इसी तरह जब कोई दानव या मानव समाज के लिए खतरा बन जाता है तब उसका अपसरण या नाश अपेक्षितहो जाता है। संहार लीला का यही रहस्य है। रहस्य यह भी है कि आदमी शिक्षा ले। आदमी आदमी बना रहे। ब्राह्मी सृष्टि का वह सर्वोत्तम जीव बन के रहे। आध्यात्म और भोतिकतामें तालमेल रहे। दुर्का दुर्गति दूर करने और योग-क्षेम वहन करने के लिए मानवताके आह्वान पर अवतरित होती हैं। सबका मंगल नारायणी का अभिप्रेत होता है।

सर्वमङगल माङगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये त्र्यंबकेगौरि नारायणी नमोsस्तुते।।
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