ललित निबंध संचयन

हिंदी के महत्वपूर्ण ललितनिबंधकारों की रचनाएँ

Saturday, September 16, 2006

12. भोग और शक्ति



साधारण तौर पर पानी और जल में, भोग और भोजन में, भोज और भोजन में कोई अंतर नहीं दिखाई देता। केवल शब्दों का हेर-फेर लगता है। मूड़ का नाम कपार जैसा लगताहै,पर बारीक विचार करने पर इनमें बहुत फर्क है। नाली का पानी जल नहीं कहला सकता, गंगा का जल पानी नहीं कहला सकता। कहना हो तो कह लीजिए पर तर्कसंगत नहीं लगता। भोज और भोजन में वही दूरी है जो राजा भोज और भोजबा तेली में है। भोज भोग के ज्यादा समीप है। जो रस, जो आस्वाद, जो सौजन्य और जो आह्लाद भोज में है वह भोजन में कहाँ ? खाना ता भूख की खानापूर्ति है और लंच पेट के प्रपंच की पूर्ति। भोज के नाम से भोज्य पदार्थ का जायका कुछ और ही हो जाता है। उसका नाम सुनते ही कई मीठे प्रसंग और संदर्भ ढेर सारे अनुषंगों के साथ मन में तैरने लगते हैं। साथ में मिल-बैठकर बाँटकर भोगने के भाव भी भोजन में शामिल हैं। एक ही प्रकार के भोजन आप होटल में कीजिए। गृहिणी की प्रीति की छौंक से सिक्त वही घर में कीजिए और वहीं सबके साथ एक प्रांत में बैठकर बोज में कीजिए, तृप्ति में भारी अंतर मालूम पड़ेगा। यही हाल भोग का है। भोज में कई प्रसंगों की साझेदारी होती है, तो भोग में भाव की। यह भाव भगवदीय भी हो सकता है और मानवीय भई। भाव के योगायोग से साधारण भोज्य पदार्थ भी भोग बन जाता है – नैवेद्य बन जाता है – भगवान का प्रसाद बन जाता है। बहुत दिन पहले की बात याद आ रही है – मेरे घर पिताजी के मामाश्री आये हुए थे। मेरे दादाजी ने बड़े प्रेम से शकरकंद को कंडे में पकाकर उसमें दूध-चीनी मिलाकर मामाश्री को देना चाहा। उन्होंने बिना चखे कहा की रहने दीजिए, ऐसा तो मैं रोज खाता हूँ। किन्तु दादाजी ने कहा इसे जरा चखकर तो देखिए। यह खाना नहीं भोग है, प्रसाद है, इसका स्वाद ही और है। प्रसन्न हो जायेंगे। चखने के बाद वे और मांगने लगे।

दरअसल भाव का भोग लगता है। सूखी रोटी भी मेहमान को या भगवान को आदर भाव से निवेदित कीजिए वह नैवेद्य बन जायेगी और इसके विपरीत रसगुल्ले भी बिना भाव के परोसे जाने पर भूसा बन जाते हैं, क्योंकि सांवरा भाव का भूखा होता है। जूठा बेर भी प्रेम से खिलाया जाये तो वह रुचि से खाता है। बिदूर का साग भी बड़े चाव से खाता है और दुर्योधन के छप्पन भोग को भी छोड़ देते हैं। जिस छप्पन में छल छिपा हो, अहंकार मिला हो, जिमाने का भाव नहीं, निवेदन नहीं, उसे भगवान तो भगवान इंसान भी ग्रहण नहीं करता। यदि वह उसे खाता भी तो उसमें वह रस नहीं पाता, उसे व्यवहारवश निगलता है। इसीलिए भगवान को कोई चीज भोग लगाते समय भक्त बड़े भाव से निवेदन करतेहुए कहता है कि हे गोविन्द यह आपकी वस्तु आपको अर्पित है। आप उसे प्रसन्न मन से ग्रहण करें।

त्वदीयं वस्तु गोविंद तुभ्यमेव समर्पये। ग्रहण सुमुखी भूत्वा प्रसीद परमेश्वर।।

इस भाव से जब व्यक्ति खाली हो जाता है तब वह मालामाल रहते हुए भी कंगाल नजर आता है। पूरे देश को भी चाट लेने के पश्चात भी वह अतृप्त रहता है। और की तलाश में कई तरह के घोटाले हवाले में संलग्न रहता है। इस अतिरिक्त संलग्नता और हवस में पड़कर वह मनुष्यता से वंचित तो हो ही जाता है, प्राप्त सुखभोग से वंचित रहा करता है। हब्शी और वहशी को सुख कहाँ ? उसकी तो “डासत ही भाव निशा सिरा जाती है।“ जोड़ता कोई और है और भोगता कोई और है। यह आँखों देखी बात है, कानों सुनी नहीं। हमारे गाँ में एक महाजनी सभ्यता के ठेकेदार थे। नाम था सत्यदेव। नाम के विपरीत उनका आचरण था। चालीस साल पहले बहुत ब्राह्मण बंधुओं के लिए भी काला अक्षर भैंस बराबर हुआ करता था और अन्यों के लिए ओनामासी ढम, बाप पढ़े न हम जैसी स्थिति थी। इस स्थिति का फायदा उठाकर और ईमान-धरम से आँखें बचाकर वे काला-पीला किया करते थे। ऋण देते वक्त दो तीन और लेते वक्त तीन का दो बहीखाते में लिख दिया करते और ऋणी से अंगूठा लगवा लिया करते थे। पाप का धन प्रायः बहुत जल्दी बढ़ता है और उसी मान से घटता भी है। देखते-देखते सत्यदेव पहले तो शक्कर और उच्च रक्तचाप के शिकार हुए। भोग उठ गया। दो सूखी रोटी भी ठीक से खा नहीं पाते थे। जिसके पास भरपेट भोजन की व्यवस्था नहीं होती उससे ज्यादा दुःखी वह होता है जिसके पास भोगने के सारे पदार्थ प्रस्तुत होते हैं, परन्तु बीमारी के कारण वह उन्हें देखता भर है, भोग नहीं पाता।

सकल पदारथ जगमाहीं। करमहीन नर पावत नाही।

सत्यदेव के बेटे विलासी बन गए और देखते-देखते ही उनके खाने के लाले पड़ गए। पर मानता कौन है ? इतिहास पुराण के पन्ने दृष्टान्तों से भरे पड़े हैं। रोज-बरोज पास-पड़ोस में ऐसे उदाहरण देखने को मिलते हैं, पर आदमी मानता नहीं है, चेतता नहीं है, आगे-पीछे देखता नहीं है। नहीं तो ऐसा दिन क्यों देखना पड़ता कि जिनके इशारे से पत्ते हिलते थे आज वे पत्तों की तरह काँपते हैं। जिन मंत्रियों का स्वागत आँखें बिछाये होता था, आज उनके स्वागत में बंदी गृह सज रहेहैं। लानत है अमानत में खयानत करने वाले लोगों के भोग को।

भोग काशी शास्त्र होता है। कोई बहुत भूखा होने पर भी दोनों हाथ से खाने लगता है। दोनों हाथ से बटोरा जा सकता है। खाया नहीं जा सकता। ऐसा न भोगें कि हाजमा खराब हो जाए। अजीर्ण भोजन विष बन जाता है। मित भोजन मीत होता अमित मित्र। ऐसा ही भग रोग बन जाता है। भोग सुख भी होते हैं और दुःख भी। और किये का फल यहाँ या वहाँ भुगतना ही पड़ता है। क्रिया कभी निष्फल नहीं होती। यही कारण है गीता निष्काम कर्म करने के लिए प्रेरणा देती है। क्रिया के सारे फलों को कर्म-धर्म को समर्पित कर देने की सलाह देती है,ताकि अच्छे-बुरे फलों को सुख-दुख को समभाव से भोगा जा सके।

दरअसल समर्पण का भाव कर्तव्य के अहंकार का त्याग है, निमित्त भाव का स्वीकार है। यह फालतू किस्म का दैन्य नहीं, न ही हारी हुई सेना का शस्त्र समर्पण है। हारे हुए का हरिनाम तो रहारा होता ही है, दुख में तो सब सुमिरन करते ही हैं, किन्तु यह सुख में सुमिरन की मानसिकता है। असीम के प्रति ससीम का श्रद्धा अर्पण है। कृपालु के प्रति कृतज्ञता का बोध है। इन्हीं भावों के साथ भगवान को पत्र-पुष्प जो भी अर्पित आस्वाद्य बन जाते हैं, अमृत बन जाते हैं। अमृत भी तो एक अलौकिक अनुभूति ही है। मीठा अहसास है, आनन्द की चरम उपलब्धि है। फिर असली अमृत को देखा किसने है और पिया किसने है ? वस्तुतः भोजन चाहे लाख स्वादिष्ट हो, यदि भक्तिपूर्वक निवेदित नहीं होता तो वह भोग नहीं बन सकता और भक्ति रहित भोग रोग है। और ऐसा भोग आदमी को बी भोग लेता है, भले ही आदमी इस मुगालते में हो कि वह उसे भोग रहा है। मद्यपायी सोच रहा हो कि मैं मद्य पी र
हा हूँ। शंकराचार्य जैसे ज्ञानी ज्ञान की सीमा जानते हैं। अतः वे भोग रोग से बचने के लिए गोविंद भजन की सीख देते हैं –

“भोग न भक्ता वयमेव भुक्ताः
कालो न यातः वयमेव यातः
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्
गोविन्द भज मूढ़मते।।”

तुलसी के राम भी शबरी से कहते हैं कि हे भामिनी बिना भक्ति के कुल, जाति, बड़ाई, मान-सम्मान आदि जल विहीन बादल की तरह शोभित नहीं होते।

“जाति-पांति कुल धर्म बडा़ई। धन बल परिजन गुन चतुराई।।
भगतिहीन न साहई कैसा। बिनुजल बादि देखिन जैसा।”

वस्तुतः भक्तिहीनता श्रद्धआ-विश्वास का चुक जाना है। “ईश्वर मर गया” यह घोषणा करने वाला आस्थाविहीन यह युग क्या जाने कि देवता मनुष्य के लिए और मनुष्य देवुता के लिए कितना जरूरी है ? भक्ति को पूजापाठ क्रियाकाण्ड का पर्याय मानने वाले मानुष क्या जाने कि धर्म और सम्प्रदाय से भक्ति करती है, सबको सबका भाग देती है, भक्ति नहीं करती जोड़ती है। वह बाँटती है तो केवल आनन्द को, प्रेम को, उछाह को, प्रसन्नता को, वह अर्पितकर बाँटकर भोगने के लिए सूत्र देती है। उसी सूत्र की व्याक्या कदाचित मार्क्सवाद है। गीता का स्पष्ट कथन है कि जो व्यक्ति केवल अपने लिए पकाता है, बाँटकर नहीं बोगता, वह भोग नहीं पाप भोजन है – भुज्यते ते अद्यंपापा ये पचन्त्यात्मकारणात्।। भक्ति का दर्शन सहभाग का दर्शन है। इसमें भक्त, जगत और जगतपति सभी सहभाग होते हैं। एक दूसरे को भावित करते हैं एक दूसरे को श्रेय-प्रेय बाँटकर जीवन को अर्थ प्रदान करते हैं –

देवान्भावयतानेन ते देवा भायुन्तु वः।
परसांर भवयन्तः श्रेयःऋ परमावश्यथ।।
इवटान्भागान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।
नैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो छु भुङ क्ते स्तेन एव सः।। 31.11.92

भक्ति और भजन भी भोग भोजन की तरह चिंतनीय है। भजन यद्दपि भकि्त का ही स्वरुप है, परन्तु दोनों के बीच बारीक लकीर खींची जा सकती है। दोनों मे साध्य-साधन संबंध स्थिर किया जा सकता है। राम को पाने के लगए सुमिरन आवश्यक है। एक भजन साधन है। भक्ति की विद्दा है। एक भाव है तो दूसरी रस है भजन-भाव है तो भक्ति अहोभाव है इसी अहोभाव के सामने सुधा र भी तुच्छ लगने लगता है सुखदेव जी गवाह है कि राजा परिक्षित को जब वे भगवान कथा सुनाने को प्रस्तुत हुए तभी देवता लोग स्वर्ग लोक से अमृत घर लेकर पहुँच गए। और सौदा करते हुए बोले मुनिवर आप राजा परिक्षित को बनाने के लिए यह अमृत घर ले लिजिये और बदले मे हमें कथामृत का दान दीजिए। दावो पर हंसते हुए मुनि बोले काघ और कंचन में अदला-बदली कैसी? कहाँ यह अमृत और कहाँ यह भगवदीय कथमृत।

इस मकारा के पीछे निश्चय ही यह धारणा रही होगी कि अमृत तो खारे सागर से उत्पन्न रस है इसमें खारा पन का कुछ रस तो बचा ही होगा। दूसरी बात यह छीना-झुटी से बचा अमृत है। राक्षसों को वंचित कर संचित ईष्या-वेष समन्वित इस अमृत मे वह स्वाद-प्रभाव कहां जो वेद-पुराण से उदभूत भगवतकथामृत मे है। यह भक्ति रस पूरित कथा मनुष्य को ईष्या द्वेष से उपर उठाती है किसी को वंचित नही करती और न कुछ संचित करती है। यह तो सबको प्रेमसुधा रस बांटती ही रहती है। अमृत गले से नीचे उतर कर चूक जाती है, प्रभावहीन हो जाता है, स्वाद रहित हो जाता है, कथारस भीतर उतरकर तर कर देता है। देह-गेह बिसारकर भक्त सांई का सुमिरण करता कराता रहता है।

सब रग तमत रबाब तन बिरह बजावै नित्त।
और न कोई सुन सके, कै साईं के चत्त।।

कई मायने मे कथामृत अपनी श्रेष्ठता का इजहार करता है। इसमे मन को बांधने की ताकत होती है। रमाने की औकात होती है। झरने की तरह प्यास बुझाने की सामर्थ्य होती है। बादल की तरह भिगोने की सहज परोपकारी होती है। यह एक साथ कई इन्द्रियों को बाँधती है। ऐसे गुण उद्द्दि अदभूत् अमृत मे कहाँ? उसे तो एक बार पी कर आदमी निश्चिंत हो जाता है। अमरत्व के अंहकार से भर जाता है। इतना ही नही कथीमृत कई रसो का रसायन होता है। इसमें हृदय दहलाने-सहलाने और दुबोने-उबारने एख से बढ़कर एक प्रसंग होते है, लीलाचरण के अध्याय होते है जो कई तरह से विभोर करते है। यह खूबी अमृत मे कहाँ। वह घर रीत सकता है पर कथा सागर तो अथाह है। कथा के कारण ही सूर के गीत से ज्यादा तुलसी के दोहे-चौपाई जन-जने को समोते है। दूर तक खींचते है। सूर के गीत भी लीला संदर्भो के कारण कदाचित अन्यों की अपेक्षा ज्यादा रमाते है।

दरअसल भगवदीय कथा की बात ही कुछ और है। यही कथा कथा है, बाकी सब व्यथा है, क्योकिं यह भक्ति रस से सिक्त होती है और भक्ति श्रद्ददा विश्वास और प्रेम के भाव संमिश्रित होते है जो व्यक्ति को मम ममेतर से मुक्त करते है मुक्तदशा में न कोई चाह शेष रह जाती है और न चलने के लिए राह। संदेह मिट जाते है, तर्क गल जाते है। ज्ञान का जाल मिट जाता है। जिस मुक्ति के लिए मुनिगण जन्म-जन्म जतन करते रह जाते है, पंडित वृंद पोथी पढ-पढ कर थक जाते है, ुस परम को बिना किसी विशेष यम नियम और धरम-करम के भक्त पा लेता है। प्रभु को अपने भीतर पधरा लेता है-सारे संतो का एक ही मत है
पायो जिन राम, तिन प्रेम ही सो पायौ है।

नृगां जन्मसहस्त्रेण भक्तौ प्रीतिर्हि जायते।
कलौ भक्तिः कलौ भक्तिर्भक्त्या कृष्ण पुरः स्थिर्तिः भागवत 1-2-19

अर्जुन भगवान के अत्यन्त प्रिय पात्र थे अपने सखा के श्रेय के लिए गुहृय गीता ज्ञान का आख्यान उन्होनें किया। उन्हें ज्ञान योग और कर्म योग के अनेक बुझौवल बुझा लेने के बाद, फेंट-फेंटकर गुह्यादगुह्यतर ज्ञान दे लेने के बाद श्री कृष्ण ने अपने दिव्य रुप की झाँकी दिखाई। इस झाँकी से संभवतः अर्जुन का मन और चकरा गया। गीता के 18 अध्याय के 6 सौ 86 श्लोक भी चक्कर दूर नही कर सके तो श्री कृष्ण ने सौ बातो के लिए एक ही बात कही- प्रिय अर्जुन तू अपने मन को मुझमे रमा दे, मेरा भक्त बन जा, मेरी पूजाकर, मुझे प्रणामकर मुझमे समा जायगा, समझ जाएगा।
मन्मना भव मदभक्तो मव्याजी मां नमरकुरू।।
मामेवैष्सि सत्यं ते प्रति जाने प्रियोश्सि में।। 18 1165

वस्तुतः सोचकर देवों तों ज्ञान की कोई सीमा नही है शब्द शास्त्र अनन्त है। अनेक वेद-पुराण है, बाईबिल-कुराण है शास्त्र स्मृति है, अनेक ऋषि-मुनि और महापुरुष के वचन- प्रवचन है। किसको माने किसे नही, यह पचड़े का विषय है इसलिए इस प्रषंच से निजात पाने के संत पते की बात कानों मे कहते है।

भगति भजन हरिनाम है, दूजा दुख अपार ।।
मनसा बावा कर्मना कबीर सुमिरन सारे।।

सच मे सुमिरन सार है सुबदन को सार समझने वालों कोयह बात सारहीन लग सकती है परन्तु अद्वैत वेदान्त के चूड़ान्त ज्ञानी आचार्य़ शंकर भी अन्त मे सुमिरन के लिए आदेशात्मक राय देते हैं।

भज गोविन्दम् भजगाविन्द भज, मुढमते। क्योकि वे जानते है भजन भक्ति के सारे भाव समा जाते हैं। सारे ज्ञान-विज्ञान क्रिया अनुष्ठान तिरोहित हो जाते है, निराकार आकार पा जाता है निंरजन लीम्बुज श्यामल बनकर नयन मे रच जाता है। वह ऐसा अनुरुब रुप पा जाता है कि देखने वाले ठगा-सा रह जाता, जीने मरने लगता है जीयतमरत झूकिं झूकिं परत जेहि वितवत एकबार, तन यमुना तट हो जाता है और मन वृंदावन। लोक लाज छोड़कर कुल कानि को ताक पर रखकर गापियां इन्द्रियाँ रास मे रम जाती है। मीरा लागी लगन मे मगन हो जाती है चित्र द्रवित हो उठता है, विभोर हो जाता है और पोर-पोर महारास में सराबोर होने लगता है और भुवन धन्य हो उठता है।

ताग, गदगदा, द्रवते यस्य चिद्तं रुदत्यभिक्ष्णं हसति क्वच्चिद
विलन्ज उदगायेति नृत्यते च मद् भक्तितयुक्तः भुवनं पुनाति, भागवत 11/14/24

सोचकर देखें तो पता नही चलेगा कि ज्ञान की कोई सीमा नहीं है। यह पूरी तरह व्यक्ति आश्वस्त भी नहीं कर पाता जबकि भक्ति के आते ही आशवस्ति मिल जाती है। यह जीवन का बीमा है। पोषण है। अनुग्रह है। लोकसंग्रह है। भक्ति का ना कोई शास्त्र है और तर्क जाल है। नारद मुनि ने भी भक्ति के शास्त्र नही सूत्र दिये हैं, जिन सूत्र को गहकर व्यक्ति आसानी से अंधकार को पार कर सकता है। भक्ति तो गीत है, दीवानगी है, अश्रु है, अनुराग है, जीवनोत्सव है, इसलिए दुनियादारी एक किनारे करके मीरा गाती है, नाचती है और गिरिधर के रंग में रंग जाती है। सूर सूरसागर में ऊभचूम करने लगते है। तुलसी की भक्ति का मन जब “मानस नहीं” भरता तो वह कवितावाली-दोहावली गाने लगता है भक्ति में निहित इसी मस्ती को छानने के लिए भक्त गण राज पाट धन-दौलत यहां तक कि मुक्ति भी नकार कर भक्ति की मांग करते है। हनुमान जी की यह दशा है कि जहाँ रघुनाथ की गाथा गाई जाती है वहाँ वे अश्रु छलकाते उपस्थित रहते हैं। भक्तिस्वरुपा माता सीता ने भी हनुमान जी को वरदान देते हुए कहा था कि “तुम पर रघुनाथ जी नेह की वर्षा करते है”।

भक्ति लगी की वस्तु है। लगी नहीं कि समझिये ज़िंदगी तर गी, विहाल हो गई। सारी भाव बाधा दूर हो गई इसमें राधा माधव हो जाती है और माधव राधा। भक्त ज्ञान का पहाड़ा भूलकर प्रेम का पाठ पढ़ने लगता है और वह पोथी नहीं ढाई आघर पढ़ता है और सब कुछ पा जाता है।

“हहिहिं साध्यते भक्त्या प्रणामं तत्र गोपिका”

की पहली शर्त ज़रूर है, किन्तु रिरियाहट उसकी नियति नहीं। वह रिरियाती नहीं, वह पुकारती है। यही प्रकार भजन-कीर्ति और अजान होती है जो आराध्य को चाहे वह जिस किसी बाल में हो खींच लाती है। द्रौपती ने पुकारा, कृष्ण चीर बन गए। गज ने पुकार, गंडक तीर पहुँच गए। मीरा ने पुकारा उसके एक तारा बन गए। जब सूर से बाँह छुड़ाकर भागने लगे तो सूरदास रिरियाये नहीं। अपितु ललकारते हुए कहा –

“बाँ छुड़ाये जात हौ अबल जानि के महि।
हृदय से चले जाव तो मर्द बखानौ तोहीं।।”

भक्त के आत्मनिवेदन और विनय में रिरियाहट नहीं होती आत्मविश्वास, श्रद्धा और अनुराग होते हैं। उसी अनुरागवश वासुदेव हो जाते हैं। कभी उखलन में बँध जाते हैं। कभी गाय नचाने लगते हैं। चराने लगते हैं तो कभी माखन चोरी के लिए पकड़े जाते हैं। धन्य है भक्त और वृंदावन जो भगवान सहित भक्ति को भी नचाते हैं –

“वृंदावनस्य संयोगत्युनस्त्वं तरुणी नवा।
धन्यं वृन्दावनं तेन भक्तिर्नृत्ति यत्र च्।।” – 1-1-96

यही कारण है कि भगवान अपना अपमान सह सकते हैं किन्तु भक्तों का नहीं अपना वचन छोड़ सकते हैं, किन्तु भक्त को दिए हुए वचन को हर हाल में निभाते हैं। वे बैकुण्ठ को छोड़ सकते हैं परन्तु भक्त के हृदय निवास नहीं।

“नाहं वसामि बैकुण्ठे, योगिनां हृदयेषु च मत भक्ताः यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद।।”
ज्ञान और वैराग्य भक्ति के आत्मज हैं। भक्ति के आते ही व्यक्ति को संसार का वास्तविक ज्ञान असली तात्पर्य भासित हो जाता है। यह ज्ञान तर्क-वितर्क, वाद-वितंडा से कम और श्रद्धा-विश्वास से अधिक जुड़ा होता है। मतवाद नहीं, संवाद होता है। विराग के भीतर भी परमात्मा का – इन दोनों से भक्ति पुष्ट होती है। ह भी ध्यान रहे कि भक्ति तर्क को एकदम से नहीं अस्वीकारती। अंध श्रद्धा, अन्ध विश्वास, सकाम प्रेम भक्ति के स्वरूप में शामिल नहीं। भव को बंधन समझकर रस्सी तोड़ाकर पर्वत पर भाग जाना, धुनी रमाना, माया के भय से भाग खड़े होना, ये भक्ति के भाव नहीं हैं। वह जीवन को इंच-इंच स्वीकारती है, जीती है – उत्साह से जीती है, कण-कण में सीयाराम के दर्शन करती है। प्रणाम करती है और उदास निराश चेहरे पर मुस्कान बिखेरती है। वह ज्ञान की तरह स्थितप्रज्ञ नहीं रहती। वह हर रंग को , हर मौसम को अहोभाव के साथ स्वीकारती है और शरद की ज्योत्सना और वृंदावन जैसी जगह, अनुकूल काल स्थान पाकर नाचने लगती है। सुख-दुख को ईश्वर की ही देन समझकर भोगभाव से स्वीकारती है। वह भागती है आडम्बर से, चाहे वह अनुष्ठान का आडम्बर क्यों न हो। वह परहेज करती है, पुरोहिताई से, क्योंकि भक्ति भगवान से सीधा-सीधा साक्षात्कार चाहती है। सम्पर्क चाहती है, संवाद चाहती है। वह किसी को बीच में लाना पसंद नहीं करती। पुरोहित बिचौलिया होता है। क्रियाकांड में भरमाता है। राम में सीधे रमने के लिए अवसर नहीं देता। द्रावीड़ प्राणायाम कराता है। “हरितालिका में जो नारी व्रत नहीं करती वह अमुक दोष से ग्रस्त हो जाती है।जो लोग नरक निवारण चतुर्दशी नहीं करते वे कुंभीपाक नरक में जाते हैं।” परन्तु भक्ति तो सीधे-सीधे कहती है जो हरि को भजता है वह हरि का हो जाता है। वह कभी नहीं पछताता।

भक्ति मिथ्याचार और चमत्कार से भयभीत रहती है। चमत्कारी स्वामियों से कोसों दूर रहती है। चमत्कार के चक्कर में स्वामी पड़ सकते हैं परंतु गोस्वामी नहीं। गोपियाँ कभी कृष्ण के चमत्कारों से अभिभूत नहीं हुईं। वे तो उसके वंशी वादन से, नर्तन से विबोर होती थीं, रास से रसमय होती थीं, उसकी सहजता पर रीझती और कुटिलता पर खीझती थीं। भगवान का भी यही हाल था, तभी तो आज भी हंसुला की सदा कगरी को कंजन की छैंया को मटकी के माखन को नहीं भूल पाये। राम हनुमान के अदभुत करतब के ऋणी नहीं बनते अपितु उनके निरभिमान भक्ति व्यवहार के ऋणी हो जाते हैं। उनके सहज स्नेह पर वे बेमोल बिक जाते हैं। जब राम हनुमान से कहते हैं कि मैं तेरा प्रतिउपकार नहीं कर सकता, तेरे ऋण का चुकारा नहीं कर सकता, तब हनुमान जी प्रशंसा की इस बड़ी आँधी में भी आन्दोलित नहीं होते और कहते हैं “प्रभु यह सब आपकी कृपा का प्रताप है, वरना इस डाली से उस डाली कूद करने वाले बंदर की औकात ही क्या है ?” इतना नहीं वै प्रभु प्रशंसा से अकुला जाते हैं। बोझ सम्हाल नहीं पाते और श्रीराम के चरण पर प्रेमाकुल होकर गिर पड़ते हैं –

“सुनि प्रभु वचन बिलोकि मुख, गात हरषि हनुमत।
चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत।।” – सुंदर कांड 32
000000000000000

0 Comments:

Post a Comment

<< Home