ललित निबंध संचयन

हिंदी के महत्वपूर्ण ललितनिबंधकारों की रचनाएँ

Saturday, September 16, 2006

17. ललित निबंध का स्थापत्य



ललित निबंध यह अभिधा या विधा समीक्षकों के बीच विवाद का विषय रहा हा – व्यंग्य विधा की तरह। बहरबाल इस विवादक से बचते हुए ललित निबंधों के बीच से उभरे मूल्यों और उनकी बनावट-बुनावट के संबंध में एक संवाद स्थापित कनरे का यह एक विनम्र प्रयास है। पहले भाषा बनती है। उसका बहुशः प्रयोग होता है। बाद में उसका व्याकरण बनता है। उसका मानक रूप बनता है। ठीक इसी तरह पहले रचनाएँ जन्म लेदी हैं, उनकी प्रवृत्तियों व शैली-शिल्पों को देखकर ही उनका स्थापत्य या शास्त्र बनता है, जो हमेशा विकासशील रहता है – सभ्यता संस्कृति की तरह। ललित निबंध को इसी परिप्रेक्ष्य में तरह-तरह से परिभाषित करने का प्रयास किया गया – अन्य विधाओं के सदृश। परिभाषाएँ कम पड़ती गईं तो ऐसा है, वैसा नहीं, नेति नेति कहकर छोड़ दिया जाता है – ब्रह्म की तरह।

व्यक्ति व्यंजक निबंध, रम्य निबंध, आत्मव्यंजक निबंध, ललित निबंध, पर्सनल एस्से, अदि अदि नामों से प्रचलित यह साहितय रूप अपने स्वरूप का संकेत दे देता है। लल् धातु से क्त प्रत्य और इट् आगम से बना ललित शब्द इस विधा का नाम है, मूल्य और विधान भी, जैसे आदरणीय क्षेमेन्द्र ने औचित्य को स्थिर काव्य का जीवन कहा है – औचित्यं स्थिर काव्यस्य जीवन, वैसे ही लालित्य को इस विधा का जीवन कहा जा सकता है – लालित्यं ललित निबंधस्य जीवनम् (इति से मतिः) ऐसा मेरा मानना है। इस विधा के पुरोधा आदरणीय हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ललित शब्द की बड़ी व्यापक व्याख्या की है। मतलब य कि इन रचनाओं के भीतर चाहे संस्कृति गान हो, लोक गाथा हो, भावना-कल्पना की उड़ान हो, विचार-चिंतन हो, आत्मकथा हो, बीती व्यथा हो, यथार्थ हो, व्यंग्य – सब कुछ ल्लित्य से लिपटे होते हैं, मधुमिश्रित होते हैं।

कोश के अनुसार – “अनाचार्योपदिष्टं स्याल्ललितम्”, अर्थात जो आचार्यों या उनके शास्त्रों से उपदिष्ट न हो, हर प्रकार की जकड़बंदी से मुक्त हो, ऐसी बनावट और बुनावट वाली रचना या कला ललित है। साहित्य दर्पण के अनुसार जिस रचना के अंग-विन्यास में सुकुमारता हो, वह ललित है – “सुकुमारतयाङगानाम विन्यासो ललितं भवेत्।” इस परिभाषा का प्रयोग देखना हो तो आदरणीय हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबंध ‘नाखून क्यों बढ़ते हैं’, ‘अशोक के फूल’ तथा अन्य प्रतिष्ठित निबंधकारों की रचनाएँ पढ़ सकते हैं। नाखून जैसी नाचीज़ को भी चीज़ बना देना, पाठ्य बना देना, अशोक के फूल जैसे निर्गन्ध फूलों को भी स्मृति गंध का विषय बना देना इस लालित्य का प्रताप है। समस्त साहित्य लालित्य या रमणीयता का ही प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप है। “रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दः काव्यम्” यह काव्य लक्षण इसी तथ्य का संकेत है।
ललित निबंध विधा अविचारित रमणीय का रूप है, इसलिए वह रम्य निबंध भी कहा जाता है। अविचारित रमणीयता का आशय रहाँ यह कतई नहीं है कि इसमें विचार को अनर्गल समझा जाता है। तर्क और यथार्थ से यहाँ परहेज किया जाता है। यहाँ यथार्थ से पलायन नहीं है। रम्य पूर में सब स्वीकार है। डॉ. परमानन्द श्रीवास्तव, परसाई जीने के ललित निबंधों की चर्चा करते हुए ठीक ही कहा है कि “परसाई के गद्य की पठनीयता इसी वृहत्तर लालित्य की धारणा से प्रभावित है जिसमें व्यंग्य-विनोद, क्रोध, तनाव सबके लिए जगह है। परसाई के ललित निबंधों में व्यक्ति और आत्म का जो स्पर्श है, वह निरंतर गहरी सामाजिकता में रचा-बसा है।” – ललित निबंध; सं. अष्टभुजा शुक्ल, पृष्ठ 25
जाहिर है अविचारित रमणीय का आशय अनर्गल या निरर्थक रमणीयता से नहीं है। “बुध विश्राम सकलजनरंजनि” रमणीयता ही काम्य है। इस काम्य उद्देश्य को अनदेखा कर अथवा समझने की शिद्दत न उठाकर कुछ समीक्षक इसके स्थापत्य पर ‘नास्टेल्जिया’ या उन्मानद का पंक प्रक्षेप करते पाये जाते हैं। अतीत जीविता का आरोप लगाया जाता है। स्मृति का प्रलाप इसे मानने की भ्राँति पाली जाती है। मानने और पालने की अपनी-अपनी रुचि है, दृष्टि है, कोई क्या कर सकता है। ललित निबंध की प्रासंगिकता पर ऊँगली उठाते हुए श्री राजेन्द्र यादव का कहना है कि “हिन्दी में ललित निबंध की मूल चेतना नास्टेल्जिया है।... छूटे हुए अतीत को हाय हाय भाव से याद करना, चूँकि यहाँ रचनाकार अतीत में स्थित होता है, इसलिए वर्तमान को भी रुमानीया धिक्कार भाव से देखता है।”
– ललित निबंध; सं. अष्टभुजा शुक्ल, पृष्ठ 31

यथार्थवादियों का ऐसा अभियोग वस्तुतः भ्राँति मात्र है या नकार की प्रवृत्ति की सूचना। ललित निबंधों का सच इसके विपरीत साक्ष्य देता है। वस्तुतः यह विधा न वर्तमान या यथार्थ से पलायन को उकसाती है न अतीत के प्रति अतिरिक्त मोह को प्रश्रय देती है। अतिरिक्त मोह किसी भी विधा के लिएदोष है – अनोचित्य दोष की तरह। यथार्थ से साक्षात्कार सभी रचनाकार अपने-अपने संवेदन तंत्र से करते हैं और उसे अपने-अपने ढंग से व्यक्त करते हैं। प्रोफेसर रमेशचन्द्र शाह का मन्तव्य है कि “यथार्थ आत्मतः आविष्कृत करते चलने की प्रक्रिया साहित्य में गहरी मौलिकता को जन्म देती है। निबंध की समस्या आत्म को आत्म से और आत्मसे ही परात्म और अनात्म को पकड़ने की है।”
– शैतान के बहाने, पृष्ठ 4 भूमिका

बात साफ है, न अतीतजीवी होना गुण है न निखालिस वर्तमान में जीना। अपने समय से साक्षात्कार करने वाले प्रभाष जोशी ने कहा है “यथार्थवादी वर्तमानवादी होते हैं। वर्तमान में सिर्फ पशु ही जीते हैं, क्योंकि उसका कोई अतीत नहीं होता।... आदमी आदमी हुआ तो इसलिए कि उसके स्मृति मिली और वह भविष्य के सपने देखने लगा। वर्तमान यथार्थ हो सकता है, परन्तु यथार्थ सत्य नहीं हो सकता। सत्य को यथार्थ केआर-पार देखकर ही आप पा सकते हैं।” – जनसत्ता में छपे लेख से

दरअसल अतीत से कटे लोग कटी पतंग की तरह होते हैं। छने हुए ्तीत या परम्परा का स्मरण या गान गौरव गान है। भूमि वंदना का विधान है। संस्कृति का अभइनंदन है। इसी गान के द्वारा क्या भारतेन्दु और मैथिलीशरण गुप्त ने सुप्त भारतीयता को जगाने का प्रयास अतीत गान द्वारा नहीं किया था। क्या गांधी, आज़ाद, भगत सिंह, राणाप्रताप,शिवाजी जैसों की याद अतीत स्मरण नहीं है ? क्यायह स्मरण राष्ट्रीयता-जागरण काविधान-सा नहीं है ? हमारी परम्परा ‘स्मृति’ को देवी के रूप में स्मरण करती है,जो सभी प्राणियों के भीतर व्यक्त-अव्यक्त रूप से विद्यमान है – कदाचित इसलिए नमन करती है। यह देवी हमें वह ताकत देती है। क्रूर वर्तमान की मार सहने की शक्ति देती है। टूटने से बचाती है। भारतीयसोच के बारे में एग्स विल्सन ने ठीक ही कहा है कि “भारत एक भौगेलिक वास्तविकता से कहीं अधिक परम्परा तथा एक बौद्धिक आध्यात्मिक ढाँचा है।” ललित निबंध भौतिक वास्तविकता का यथोचित आदर करता है, पर अपनी शर्त पर। वह भौगोलिक या भौतिक वास्तविकता से अधिक भारत की आत्मा जिन परम्पराओं, आध्यात्मिकता और संस्कृति में निवास करती है उनकी आराधना करता है। एक घड़ी-आधी घड़ी की नास्टेल्जिया या अतीत की आह-ओह भाव से भरा गान यदि जीवन को, नहला जाये तो क्या बुरा है ? प्रसाद जी ने तो मधुआ के हवाले से कह ही दिया है कि ‘मौज-मस्ती की एक घड़ी भी ज्यादा सार्थक होती है एक लम्बी निरर्थक जिंदगी से।’ क्या यथार्थावादी भीतर से रुमानी तबियत के नहीं होते ? फिर रुमान की वास्तविकता से हाय-तौबा क्यों। उन्हें फ्रायड के पास जाकर सच से पिरचित होना चाहिए। फिर क्या यथार्थ बोध केवल करुआ, कषैला, खट्टा, तीता का ही नाम है, उनमें मधु भाव शामिल नहीं ? जीवन का यथार्थ सब का मिश्रण है – मौसम की तरह, आम की खटमिट्ठी की तरह, पनहा (प्रपाषक रस) की तरह। राम और श्याम की लीलाओं में मारण, मोहन, धारण-निवारण – सब कुछ साझा है।

किसी एक लेखक या उसकी या और की कुछेक रचनाओं को पढ़कर किसी विधा के प्रति धारणा बना लेना भ्राँति को आमंत्रित करना है। प्रोफेसर रमेश चन्द्र शाह जैसे स्थापित निबंधकार और समर्थ समीक्षक जब मुझ जैसे नवसिखुये निबंध लेखक की पहली कृति पर ऐसा अभिमत प्रकट करते हैं तो मेरे भीतर का निबंधकार आश्वस्ति से तृप्त होता ही है, ललित निबंध का स्थापत्य भी रेखांकित हो जाता है। बड़ी विनम्रता और संकोच के साथ आप सब की कृति ‘स्मृति गंध’ पर की डॉ. शाह की टिप्पणी मैं प्रस्तुत करना चाहता हूँ – इस क्षमायाचना के साथ कि आप इसे आत्मप्रशंसा न समझेंगे –

निबंध – विशेषकर वह निबंध जो ‘पर्सनल एस्से’ के नाम से जाना जाता रहा – एक विलक्षण विधा है और हिन्दी खड़ी बोली ने उसे आरंभ से ही बड़ी ललक और सहज सांस्कृतिक आत्मविश्वास केसाथ अपनाया, न केवल अपनाया, बल्कि उसे एक विशिष्ठ भारतीय रंग और स्वर में भी ढाला। यहाँ उसने ललित निबंध के रूप में अपनी अलग ही पहचान स्थापित की।

शोभाकांत झा को यदि यह विधा रास आई है तो इसका कारण यही है कि उनके स्वभाव तथा संस्कार में वे आधारभूत अर्हताएँ विद्यमान हैं, जिनके बिना कोई भी लेखक इसविधा में प्रवेश करने को प्रेरित नहीं हो सकता। इन अर्हताओं में जहाँ एक ओर मिथिला की रसमयी आँचलिकता से अभिषिक्त उनकी रसात्मक संवेदना की सुस्पष्ट भूमिका कार्यरत देखी जा सकती है, वहीं भारत के हृदय की कुंजी स्वरुप हिन्दी और उसकेसाहित्य के अखिल भारतीय स्वरूप का परिश्रमपूर्वक अर्जित बोध भी (शोभाकांत का सोचने और महसूस करने का अपना स्वाधीन ढंग है। प्रचलित साहित्यिक रुढि़यों (नई-पुरानी) की जकड़बंदी से वे ग्रस्त नहीं, यह उनके लेखों में साफ देखा जा सकता है। इसी से जहाँ एक ओर वे तुलसी के कृतित्व को लेकर वे कुछ काम की बातें कह सकते हैं, वहीं दूसरी ओर वे विद्यापति के प्रति अपनी रीझ-बूझ को पाठक के लिए नये सिरे से, नई सूझ-बूझ के साथ सार्थक और उत्तेजक बना सके हैं। यह लचीलापन-संवेदना तथा रुचि दोनों का – उनके विवेकी साहित्यिक भाव-बोध को दर्शाता है। फिर, जिस खुली संवेदना और भावप्रवणता के साथ वे साहित्य को पढ़ते हैं, उसी खुली संवेदना और सहज भावप्रवणता के साथ अपने जीवनानुभवों को भी। ‘स्मरणं त्वदीयम’ और ‘स्मति गंध’ जैसे ललित निबन्ध इस प्रतीति को बल देते हैं। महज नास्टेल्जिया से अपने को अलगा सकने वाली गुणवत्ता इन निबन्धों में दिखाई गई है। उम्मीद करनी चाहिए का आगे लेखक की साहित्यिक रीझ-बूझ तथा जीवनानुभूति का और भी एकाग्र तथा गाढ़ा मेल उसके निबंधों के जरिए प्रकट होगा।

ललित निबंध या किसी भी विधा के स्थापत्य के संबंध में बहुत कुछ कहा जा सकता है और कहा जा चुका है। कोई कहना अंतिम नहीं होता क्योंकि स्थापत्य निरंतर सृजन के कारण बदलता रहता है – नये नये वास्तुशास्त्र की तरह। ‘अदबुत अपूर्व स्वप्न’ जिससे विवेच्य विधा और आधुनिक हिन्दी गद्य का आरंभ माना जाता है। तब से लेकर आज तक इसकी निरंतरता बनी हुई है। ललित निबंधों का लेखन कम जरूर हुआ है, पर बंद नहीं। इसकी प्रासंगिकता चुकी नहीं है। आत्म को परात्म का व्यक्ति को समष्टि का पाठ्य बना देने की कला में निपुण यह विधा मरेगी नहीं – गीत काव्यकी तरह, कविता की तरह। यह कविता का गद्य विकल्प है। जरूरत है अष्टभुजा शुक्ल के शब्दों में “अन्य विधाओं के साथ चलने को आज ललित निबंध को नितांत वैयक्तिक हाहाकर, चिन्ता, धुर ग्राम्य प्रेम या संस्कृति के रंगीन कुहासे से बाहर आकर नए भावबोध के साथ सन्दर्भों से टकराना होगा।” – ललित निबंध; भूमिका पृष्ठ 2

अंत में आदरणीय हजारी प्रसाद द्विवेदी के मन्तव्य से बात को समेटना चाहता हूँ – “आचार, रीति-रिवाजों से लेकर धर्म, दर्शन, शिल्प सौन्दर्य तक में सर्वत्र नये सिरे से सोचने कीआवश्यकता है। कोई नैतिक मूल्य अंतिम नहीं; कोई शिल्प विधि सर्वोत्तम नहीं कही जा सकती, कोई अभिव्यक्ति पद्धति सर्वश्रेष्ठ नहीं हो सकती।” – ललित निबंध; लेख रमेश कुंतल मेघ पृष्ठ 19
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1 Comments:

At 2:08 AM, Blogger Unknown said...

पढ़कर बहुत अच्छा लगा ।धन्यवाद

 

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